Wednesday, June 29, 2011

इतिहास का काला पन्ना


लेखक आपातकाल को कांग्रेस के लोकतंत्र विरोधी दृष्टिकोण के प्रमाण के रूप में याद कर रहे हैं
देश के अंदर और बाहर हर कोई यह भलीभांति जानता है कि केंद्र सरकार के भीतर जो कुछ चलता है उसे एक संविधानेतर शक्ति केंद्र द्वारा नियंत्रित किया जाता है। यह भी कोई रहस्य नहीं है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी 2004 के लोकसभा चुनाव में संप्रग की जीत के बाद सीधे-साधे मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के पश्चात सुपर संवैधानिक सत्ता बन गई थीं। सरकार पर पकड़ बनाए रखने के लिए वह नियमित तौर पर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करती हैं। चूंकि कांग्रेस में इस प्रकार की संविधानेतर शक्तियों की परंपरा सी रही है, इसलिए कांग्रेस को इसमें किसी सिद्धांत, संविधान के उल्लंघन जैसी कोई बात नजर नहीं आती। नेहरू-गांधी परिवार कांग्रेस के कामकाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पार्टी इस धारणा पर चल रही है कि इस परिवार के सदस्य को सरकारी कामकाज में दखल देने के लिए किसी औपचारिक पद की आवश्यकता नहीं है। आम धारणा के विपरीत, यह प्रक्रिया नेहरू के दिनों में ही शुरू हो गई थी। उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने राजनीति में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी थी और 1950 के दशक के आखिरी वर्षो में नेहरू ने उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष भी बना दिया। इस परिवार के सदस्यों का आक्रामक रूप से संविधानेतर गतिविधियों में दखल 1970 के दशक के मध्य में देखने को मिला। तब युवक कांग्रेस के अध्यक्ष संजय गांधी ने केंद्रीय मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को आदेश देने शुरू कर दिए थे। शासन की यह पद्धति आपातकाल के दौरान तमाम हदें पार कर गईं। अपनी मां प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा प्रेरित संजय गांधी ने संघीय स्तर पर और राज्यों में समानांतर सत्ता केंद्र स्थापित कर लिया था। केंद्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, आइएएस व आइपीएस अधिकारियों के पर कतर दिए गए थे और पूरे भारत में भय का शासन कायम कर दिया गया था। इंदिरा गांधी संजय गांधी के कारनामों से इस कदर अभिभूत थीं कि उन्होंने अपने प्रचंड बहुमत के बल पर 1971-76 के लोकसभा के कार्यकाल को एक साल का विस्तार दे दिया था। यह भयावह दौर तब खत्म हुआ जब लोगों ने चुनाव में कांग्रेस को उखाड़ फेंका। इंदिरा गांधी ने यह चुनाव इन खुफिया रिपोर्टो के बाद कराया था कि जनता उनका समर्थन करेगी। यह कांग्रेस के शासन का इतिहास है, किंतु बहुत से कांग्रेसी दिखावा करते हैं कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं या फिर यह लोगों की स्मृति से लोप हो गया है, किंतु वे लोग जिनका लोकतंत्र में अटल विश्वास है, फिर से ऐसा नहीं होने देना चाहते। आतंक के दिनों को भूलना मुसीबतों को फिर से न्योता देने के समान है। इसलिए लोकतंत्र की खातिर आपातकाल की वर्षगांठ 25 जून पर इसके स्याह दिनों को याद करना जरूरी है। इसी आलोक में कुछ संगठनों व व्यक्तियों पर समानांतर सत्ता खड़ी करने संबंधी केंद्रीय मंत्रियों के आरोपों की भ‌र्त्सना करनी जरूरी हो जाता है। उदाहरण के लिए, भ्रष्टाचार की समस्या का समाधान करने की अनिच्छुक सरकार प्रधानमंत्री और सांसदों को लोकपाल के दायरे में लाने से पैर खींच रही है। यह ऐसा मसला है जो नागरिकों के बड़े तबके को परेशान कर रहा है। नेहरू के दिनों से ही कांग्रेस भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के कदम उठाने से हिचकिचाती रही है। उदाहरण के लिए आजादी के बाद से ही कांग्रेस पार्टी के वफादार सदस्यों को ही राज्यपाल के रूप में नियुक्त करती रही है। इसी प्रकार उसने हमेशा प्रयास किया है कि चुनाव आयुक्त ऐसा व्यक्ति न बन जाए जो स्वतंत्र रूप से फैसले कर सकता हो। आपातकाल के दौरान कांग्रेस खुलेआम स्वतंत्र मीडिया और न्यायपालिका के खिलाफ अभियान चलाती रही है। संविधान में 42वें संशोधन पर संसद में हुई बहस से ही साफ हो जाता है कि कांग्रेस न्यायपालिका, मीडिया और स्वतंत्र विचारों वाले नौकरशाहों के किस कदर खिलाफ है। सीएम स्टीफेन जैसे लोगों ने खुलेआम समर्पित न्यायपालिका की वकालत की थी। यह समर्पण संविधान के प्रति न होकर कांग्रेस के प्रति अभीष्ट था। इसके बाद भी हालात में कोई परिवर्तन नहीं आया। हमेशा यह प्रयास किया जाता रहा है कि पार्टी के समर्थक या फिर दागदार छवि वाले व्यक्ति संवैधानिक पदों पर तैनात कर दिए जाएं। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है चुनाव आयुक्त के रूप में नवीन चावला की तैनाती, जिन्हें शाह जांच आयोग किसी भी सार्वजनिक पद के अयोग्य ठहरा चुका है। इसका दूसरा उदाहरण है कांग्रेस द्वारा मानकों की धज्जियां उड़ाते हुए भ्रष्टाचार के एक आरोपी को केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) के तौर पर तैनात करना। इस परिप्रेक्ष्य में कपिल सिब्बल और पी. चिदंबरम जैसे कुछ केंद्रीय मंत्रियों के प्रवचन सुनना अजीब लगता है, जो 1980 के दशक में मीडिया विरोधी बिल लाने के कर्णधार थे। कुछ दिन पहले उन्होंने संयुक्त रूप से मीडिया को संबोधित करते हुए मजबूत लोकपाल बिल लाने की पक्षधर सिविल सोसाइटी के सदस्यों पर हमला किया कि बाहरी लोगों द्वारा लिए गए फैसलों के आधार पर सरकार चलाना सही नहीं है। मजबूत लोकपाल के खिलाफ एक अन्य दलील यह थी कि सरकार के समानांतर एक और ढांचा खड़ा नहीं किया जा सकता। इन मंत्रियों ने हैरानी जताते हुए कहा कि सरकार अपनी शक्तियों को कम करने का काम कैसे कर सकती है? किंतु क्या मनमोहन सिंह सरकार पिछले सात वर्षो से यही नहीं कर रही है? क्या उसने अपनी शक्तियां संवैधानेतर सत्ता सोनिया गांधी के हाथों में नहीं सौंप दीं? पी. चिदंबरम की दलील तो इससे भी अधिक हास्यास्पद थी कि देश में संविधान है, जिसके मूल ढांचे में बदलाव नहीं किया जा सकता। कांग्रेस के दर्जनों सांसदों व नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रतिपादित संविधान के मूलभूत ढांचे के विचार की संसद के भीतर और बाहर अनेक बार धज्जियां उड़ाई हैं। उन्होंने तो यहां तक कहा है कि उनके पास सुप्रीम कोर्ट के जजों को सबक सिखाने के अपने तरीके हैं। आपातकाल की वर्षगांठ पर हमें उन भयावह संवैधानिक संशोधनों पर भी नजर डालनी चाहिए जो कांग्रेस ने आपातकाल के दौरान किए थे। इनमें प्रधानमंत्री को संविधान से ऊपर स्थापित करना, सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट की शक्तियों को कम करना और राष्ट्रपति को कार्यकारी आदेश के माध्यम से संविधान संशोधन की शक्ति प्रदान करना शामिल था। इन संशोधनों ने संविधान के मूलभूत सिद्धांतों को ही ध्वस्त कर दिया था। कांग्रेस के रवैये में अभी भी कोई परिवर्तन नहीं आया है, इसलिए अधिक सावधान रहने की आवश्यकता है। हमें 25 जून को खुद को यह याद दिलाने के लिए इस्तेमाल करना चाहिए कि कांग्रेस अथवा उसके नेतृत्व वाली सरकार क्या-क्या शरारतें करने में समर्थ है? हमें विरोध से घृणा करने वाली कांग्रेस द्वारा आपातकाल के दौरान मारे गए, सताए गए और जेल में ठूंस दिए गए लाखों लोगों का स्मरण करना चाहिए। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)


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