Friday, September 30, 2011

नीलेकणि ने योजना आयोग के आरोप नकारे


तय मानकों से अलग हटकर काम करने के योजना आयोग के आरोपों को नकारते हुए भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआइडीएआइ) के अध्यक्ष नंदन नीलेकणि ने कहा कि है वह प्रधानमंत्री से मिले अधिकारों के तहत ही काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि अगर किसी को कुछ संदेह है तो इस बारे में उसी से पूछा जाना चाहिए। भारत में आधार संख्या जारी करने की परियोजना की शुरूआत को एक साल पूरा होने के अवसर पर आयोजित समारोह में नीलेकणि ने स्पष्ट किया कि उन्हें प्रधानमंत्री से अधिकार मिले हुए हैं। प्राधिकरण के महानिदेशक राम सेवक शर्मा को योजना आयोग के उपाध्यक्ष ने अधिकार सौंपे हैं और वित्तीय सलाहकार के गंगा को व्यय सचिव की ओर से अधिकार प्राप्त हैं। उन्होंने साफ किया कि यूआइडीएआइ तय प्रक्रिया से नहीं हट रहा है और अगर कोई समझता है कि अधिकार अलग होने चाहिए तो वह कुछ नहीं कर सकते। खबरों के मुताबिक योजना आयोग ने इस बात पर चिंता व्यक्त की थी कि यूआइडीएआइ सरकार द्वारा तय प्रक्रियाओं से हटकर काम कर रहा है। नीलेकणि ने कहा कि योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया इस प्राधिकरण के सबसे बड़े समर्थक हैं और यह बात उनसे सीधे पूछी जानी चाहिए। खबरों के मुताबिक योजना आयोग ने वित्त मंत्रालय को प्राधिकरण में एक पूर्णकालिक वित्तीय सलाहकार नियुक्त करने का भी सुझाव दिया है। योजना आयोग को जवाब देते हुए नीलेकणि ने कहा कि यूआइडीएआइ एक सरकारी विभाग है जो सरकारी नियमों, प्रक्रियाओं, बजट के प्रावधानों के अनुसार काम करता है और संसदीय समितियों, प्रवर्तन एजेंसियों आदि के प्रति जवाबदेह है। उन्होंने साफ किया कि प्राधिकरण ने संचालन में पारदर्शिता और निष्ठा कच् उच्च मानक तय किए हैं। प्राधिकरण के समक्ष धन की कमी के सवाल पर उन्होंने कहा कि वे वित्तीय संसाधनों से संतुष्ट हैं। इस बारे में कोई मुद्दा नहीं है। प्राधिकरण के महानिदेशक शर्मा ने कहा कि आधार के लिए पंजीकरण की प्रक्रिया पूरी तरह निशुल्क है और यदि पंजीकरण केंद्रों पर किसी तरह का धन मांगे जाने की शिकायतें मिलती हैं तो ऐसे लोगों के विरूद्ध आपराधिक मामला दर्ज कराया जाएगा। शर्मा ने जम्मू कश्मीर और उत्तर-पूर्व के कुछ राज्यों में पंजीकरण प्रक्रिया धीमी होने की बात स्वीकार करते हुए कहा कि प्रयास जारी हैं।

एक-दो महीने में अलग तेलंगाना लेकर रहेंगे


राष्ट्रवादी समिति (टीआरएस) अध्यक्ष के चंद्रशेखर राव ने गुरुवार को हुंकार भरते हुए कहा है कि हम एक-दो महीने में पृथक तेलंगाना लेकर रहेंगे। उन्होंने आंदोलन बिना रुके जारी रहने का एलान किया ताकि केंद्र तेलंगाना समर्थकों के आगे झुकने को मजबूर हो जाए। अलग राज्य पर दबाव डालने के लिए संयुक्त संघर्ष समिति का एक प्रतिनिधिमंडल जल्द ही नई दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से मिलेगा। उधर आंदोलन के 18वें दिन शुक्रवार को हैदराबाद बंद का एलान समिति ने किया है जिसे देखते हुए राजधानी में सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए गए हैं। गुरुवार को निजामाबाद के कामरेड्डी से तेदेपा विधायक गंपा गोवर्धन के पार्टी से इस्तीफा देकर टीआरएस में शामिल होने के मौके पर पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए राव ने कहा कि एकता हमारी ताकत है। हम निश्चित तौर पर तेलंगाना लेकर रहेंगे। दिल्ली को झुकना ही पड़ेगा और एक या दो महीने में तेलंगाना देना ही होगा। उधर, अलग तेलंगाना राज्य के लिए 13 सितंबर जारी हड़ताल में शामिल होते हुए हॉकरों ने गुरुवार से अखबार देना भी बंद कर दिया। हैदराबाद और सिकंदराबाद में कोई भी समाचार पत्र वितरित नहीं हुए। तेलंगाना पर बनीं जेएसी के संयोजक एम कोडंदरम को सिकंदराबाद में हिरासत में ले लिया गया है। वहां वे तेलंगाना समर्थक प्रदर्शन में भाग ले रहे थे। इसके बाद तेलंगाना समर्थक उस पुलिस थाने पहुंचे जहां उन्हें रखा गया था और वहां प्रदेश सरकार और पुलिस के खिलाफ नारेबाजी की। तटीय आंध्र प्रदेश और रायलसीमा के लोगों के हैदराबाद पर दावे की धज्जियां उड़ाते हुए उन्होंने साफ किया कि हैदराबाद तेलंगाना की संपत्ति है। दिल्ली के कुछ लोग भी इस मुद्दे पर अनावश्यक तौर पर भ्रमित हैं। हम हैदराबाद के बिना तेलंगाना को स्वीकार नहीं करेंगे। राव ने कहा कि गैर तेलंगाना क्षेत्र के लोग तब तक हैदराबाद में रुक सकते हैं, जब तक उनके लिए नई राजधानी नहीं बन जाती। उधर टीआरएस नेता चंद्रशेखर राव के बेटे केटी रामाराव ने कहा कि तेलंगाना पर बनी संयुक्त संघर्ष समिति का एक प्रतिनिधिमंडल नई दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से मुलाकात करेगा। उन्होंने बताया कि कई दलों की सहभागिता वाले इस प्रतिनिधिमंडल में टीआरएस अध्यक्ष भी शामिल होंगे।

भ्रष्टाचार के खिलाफ मौजूदा कानून में कमी

 समाज में गहरी जड़ें जमा चुके भ्रष्टाचार से चिंतित वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने इस बुराई से लड़ने के लिए हर मोर्चे पर सतत संघर्ष का आह्वान किया। हालांकि उन्होंने माना कि इस बुराई के खिलाफ लड़ने के लिए कानून के क्रियान्वयन में कुछ कमियां हैं। मुखर्जी ने गुरुवार को यहां एक कार्यक्रम में कहा, भ्रष्टाचार समाज में काफी गहरी जड़ें जमा चुका है.. इसके खिलाफ सभी संबद्ध पक्षों द्वारा समन्वित व संगठित तरीके से लड़ने की जरूरत है। मुखर्जी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार द्वारा उठाए गए कदमों को याद करते हुए कहा, इस बुराई से लड़ने के लिए हमारे प्रयास लगातार बढ़ रहे हैं और भ्रष्टाचार को पूरी तरह समाप्त करने के लिए हम पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं। हालांकि उन्होंने माना कि मौजूदा कानूनों के क्रियान्वयन में कुछ कमियां हैं और विभिन्न एजेंसियों के बीच समन्वय की भी कमी है जिससे उनके अधिकार क्षेत्र में घाल-मेल भी बढ़ रहा है। उन्होंने कहा, चुनाव फंडिंग और सार्वजनिक सेवाओं के कई क्षेत्रों में प्रशासन संचालन में असफलता ने इस बुराई को बढ़ाने में मदद दी है।

राज्यपाल की मर्यादा का उल्लंघन


राज्यपाल का पद एक बार फिर विवादों में है। इस बार गुजरात की राज्यपाल की नीयत पर उंगली उठाई जा रही है। घटना की पृष्ठभूमि में गुजरात के लोकायुक्त की नियुक्ति में किया जाने वाला मनमानापन है। गत माह राज्यपाल ने अवकाश प्राप्त न्यायाधीश आरए मेहता को गुजरात का लोकायुक्त नियुक्त कर दिया। इस मामले में उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री या मंत्रिमंडल से कोई सलाह नहीं ली। राज्यपाल का तर्क है कि उन्होंने गुजरात लोकायुक्त अधिनियम 1986 के अनुसार काम किया है। उनका कहना है कि गुजरात लोकायुक्त अधिनयम की धारा-3(1) में लोकायुक्त की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा किए जाने की व्यवस्था है और यह भी कि ऐसा करते समय गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा विधानसभा के विपक्ष के नेता से परामर्श किए जाने की बाध्यता है। उसमें मुख्यमंत्री का नाम नहीं लिखा हुआ है इसलिए मुख्यमंत्री से परामर्श करना उनके लिए जरूरी नहीं था। ऐसे में प्रश्न उठता है कि भारतीय संविधान के अंतर्गत क्या राज्यपाल मुख्यमंत्री के परामर्श के बिना इस तरह की नियुक्तियां कर सकता है? यदि हां, तो यह विवेकाधिकार किस सीमा तक है? यही सवाल मोदी से उपवास का हिसाब मांगने पर भी उठता है। संविधान सभा में आशंका व्यक्त की गई थी कि केंद्र और राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकार होने पर केंद्र राज्यपालों के माध्यम से राज्य के कामकाज में दखलंदाजी कर सकता है। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने 30 दिसंबर, 1948 को संविधान सभा में कहा था कि राष्ट्रपति की तरह ही राज्यों में राज्यपाल केवल संवैधानिक तथा प्रतीकात्मक प्रधान होगा। संसदीय व्यवस्था के अंतर्गत राष्ट्राध्यक्ष के पास सीमित विशेषाधिकार ऐसे होते हैं जिनका इस्तेमाल वे अपने विवेक के अनुसार कर सकते हैं। उनका मानना था कि राज्यपालों की स्थिति और उनके विवेकाधिकार वही होंगे जो राष्ट्रपति के हैं और राज्यपाल को राज्य मंत्रिमंडल के परामर्श से ही काम करना होगा। राज्यपाल और राज्य मंत्रिपरिषद के अंतर्संबंधों की व्याख्या संविधान के अनुच्छेद-163 में की गई है। उसमें तीन महत्वपूर्ण प्रावधान हैं। पहला यह कि राज्यपाल की सलाह के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी और कुछ मामले ऐसे भी हो सकते हैं जिनमें उसे अपने विवेक के अनुसार काम करने का अधिकार होगा। दूसरा यह कि उन मामलों को तय करने का अधिकार राज्यपाल के पास होगा कि कहां पर उसे मंत्रिपरिषद की सलाह माननी है और कब अपने विवेक के अनुसार काम करना है। तीसरा प्रावधान यह कि मंत्रियों द्वारा राज्यपाल को दी गई सलाह के संबंध में जांच करने का अधिकार न्यायालय को नहीं होगा। गुजरात की राज्यपाल अनुच्छेद-163 का अर्थ अपने तरीके से निकाल रही हैं जो संविधान निर्माताओं की मंशा के अनुकूल नहीं है। गुजरात की राज्यपाल ऐसी अकेली शख्यिसत नहीं हैं जिन्होंने अनुच्छेद-163 का अपने मन मुताबिक अर्थ निकाला हो। राज्यपालों ने राज्य शासन के साथ सैकड़ों बार खिलवाड़ किया है। एक बार तो नौबत ऐसी आ गई थी कि केंद्र सरकार के इशारे पर राष्ट्रपति शासन लगाने के प्रकरणों की बाढ़ आ गई थी। इसकी शुरुआत 1952 में ही हो गई थी, जब तत्कालीन मद्रास राज्य के राज्यपाल श्रीप्रकाश ने स्पष्ट बहुमत नहीं होने के बावजूद चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को सरकार बनाने का निमंत्रण दिया। सन 1959 में केरल में ईएमएस नंबूदरीपाद के नेतृत्व वाली सरकार को गैरकानूनी तरीके से बर्खास्त कर दिया गया। शुरू में अदालतें इस तरह के दुरुपयोगों में हस्तक्षेप करने से बचती रहीं किंतु जब पानी नाक से ऊपर पहुंच गया तो न्यायालय को दखलंदाजी करनी पड़ी। कम से कम चार मामले ऐसे आए जिनमें न्यायालय ने राज्यपाल के आचरण पर गंभीर टिप्पणी की। सन 1998 में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रमेश भंडारी ने मंत्रिमंडल को बर्खास्त करके दूसरे मंत्रिमंडल को शपथ दिला दी। जगदंबिका पाल बनाम भारत संघ के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट को निर्देश देना पड़ा कि विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर मुख्यमंत्री पद के दावेदारों के समर्थकों की संख्या का पता लगाया जाए। सन 2005 में झारखंड के तत्कालीन राज्यपाल ने संविधान की अपेक्षाओं के प्रतिकूल आचरण किया और राज्य सरकार को अस्थिर करने की कोशिश की। अनिल कुमार झा बनाम भारत संघ के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभा के अध्यक्ष को निर्देश दिया कि वह सदन में शक्ति परीक्षण कराएं। सदन में मतदान से यह साबित हो गया कि राज्यपाल गलत थे। एसआर बोम्बई बनाम भारत संघ (सन 1994) मामले में राज्यपाल के अधिकार और उसकी मर्यादा से जुड़े विषयों पर व्यापक दिशानिर्देश किए गए। मंशा यह थी राज्यपाल अपने को तानाशाह न समझे बल्कि संविधानिक मर्यादा के अनुरूप आचरण करे। इसके बाद रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ (2006) में भी सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट निर्देश दिया कि कोई राज्यपाल बहुमत के दावे को इस आधार पर नकार नहीं सकता कि उसकी व्यक्तिगत राय या अनुमान के मुताबिक बहुमत हासिल करने के लिए अनैतिक या गैरकानूनी साधनों का इस्तेमाल किया गया। गुजरात के मामले में एक बार फिर इतिहास अपने आपको दोहरा रहा है। (लेखक विधि मामलों के विशेषज्ञ हैं)

प्रधानमंत्री की जवाबदेही


लेखक मंत्रिमंडल और उसके मुखिया की कार्यशैली को संप्रग सरकार के संकट का कारण बता रहे हैं
केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार का संकट गहराता जा रहा है। संकट 2जी घोटाले और उसकी खुलती नई-नई परतों की वजह से उतना नहीं है, जितना मंत्रिमंडल और उसके मुखिया की कार्यशैली के कारण है। क्या एक गैरराजनीतिक व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाने का प्रयोग विफल हो रहा है? संप्रग-1 के नायक डॉ. मनमोहन सिंह संप्रग-2 के खलनायक जैसे क्यों नजर आने लगे हैं? क्या यह विपक्ष के भ्रामक प्रचार का नतीजा है या मीडिया का इस सरकार से मोहभंग का? क्या कांग्रेस के अंदर ही ऐसे लोग हैं जो इस सरकार और मनमोहन सिंह को कामयाब नहीं होने देना चाहते? क्या मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में कांग्रेस का दबा हुआ अंदरूनी संघर्ष अब खुलकर सामने आने लगा है? क्या प्रधानमंत्री की सरकार पर और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की पार्टी पर पकड़ ढीली पड़ती जा रही है? ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब हर कोई जानना चाहता है। सवाल दिन ब दिन बढ़ रहे हैं पर जवाब देने वाला कोई नजर नहीं आ रहा। 2जी घोटाले की आंच अब पी चिदंबरम तक पहुंच गई है। सीबीआइ और केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि इस मामले में चिदंबरम की भूमिका की जांच करने की कोई जरूरत नहीं है। चिदंबरम के मामले को सुप्रीम कोर्ट ले जाने वाले सुब्रमण्यम स्वामी का कहना है कि नए तथ्यों की रोशनी में जांच कराने में हर्ज क्या है। नया तथ्य वित्त मंत्रालय का वह नोट है जो प्रधानमंत्री के लिए तैयार किया गया था। इस नोट को तैयार करने में कई मंत्रालय और कैबिनेट सचिव भी शामिल थे। प्रधानमंत्री इस पूरे मामले का तथ्यात्मक ब्यौरा चाहते थे। इस नोट में कहा गया है कि तत्कालीन वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने कोशिश की होती तो घोटाले को रोका जा सकता था। अब यह किसी से छिपा नहीं है कि मनमोहन सरकार के दोनों वरिष्ठ मंत्रियों प्रणब मुखर्जी और चिदंबरम आपस में बातचीत भी नहीं करते। इसलिए इस पूरे मामले को दोनों के आपसी झगड़े का नतीजा बताया जा रहा है। दोनों की सोनिया गांधी के दरबार में पेशी हो चुकी है। अब सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह की मुलाकात के बाद कोई अंतिम फैसला होगा। दोनों की नजर सुप्रीम कोर्ट के रुख पर है। लेकिन प्रधानमंत्री ने मंगलवार को विदेश से लौटते समय हवाई जहाज में मीडिया से कहा कि सरकार में सब ठीक-ठाक है। उन्होंने विपक्ष पर आरोप लगाया कि वह समय से पहले चुनाव के लिए बेचैन है और राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने की कोशिश कर रहा है। प्रमुख विपक्षी दल भाजपा का कहना है कि यह कांग्रेस का अंदरूनी मामला नहीं है जिसे पार्टी के नेता मिल बैठकर सुलझा लेंगे। यह जनता के पैसे का सवाल है। इस नोट के आधार पर विपक्ष चिदंबरम का इस्तीफा मांग रहा है। सवाल इस बात का नहीं है कि चिदंबरम राजा को रोक सकते थे या नहीं। सवाल इस बात का है कि प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के सदस्य अपनी ही सरकार की बनाई नीति से सहमत हैं या नहीं। स्पेक्ट्रम आवंटन के लिए पहले आओ पहले पाओ की नीति को लागू करने में तत्कालीन संचार मंत्री ए राजा ने क्या गड़बड़ की यह एक अलग मामला है। उससे पहले सवाल है कि क्या तत्कालीन वित्तमंत्री चिदंबरम और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस नीति से सहमत थे या हैं। आजाद भारत की यह पहली सरकार है जिसका मुखिया सहित हर सदस्य यह साबित करने में लगा है कि जो कुछ हुआ उसके लिए कम से कम वह जिम्मेदार नहीं है। सरकार के एक अहम नीतिगत फैसले की जिम्मेदारी लेने के लिए कोई तैयार नहीं है। किसी टीम का कप्तान टीम की जीत हार या उसके प्रदर्शन से अपने को कैसे अलग रख सकता है? ऐसी हालत में कैबिनेट के सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत का क्या होगा? अगर सरकार के प्रशासनिक या नीतिगत फैसले की जिम्मेदारी और जवाबदेही से प्रधानमंत्री मुक्त हैं तो सरकार में प्रधानमंत्री की भूमिका क्या है? क्या प्रधानमंत्री को उनकी ही सरकार से अलग करके देखा जा सकता है? प्रधानमंत्री और उनके वरिष्ठ सहयोगी अपने इस व्यवहार से एक स्पष्ट संदेश दे रहे हैं कि इस नीतिगत फैसले में कुछ गड़बड़ जरूर है। मनमोहन सिंह सरकार के हर गलत फैसले से अपने को अलग दिखाने में सबसे आगे नजर आते हैं। ऐसे में दूसरे मंत्री भी ऐसा ही करें तो क्या गलत है। चिदंबरम अगर आज संकट में हैं तो उसके लिए प्रणब मुखर्जी से उनकी प्रतिस्पर्धा या प्रधानमंत्री बनने की उनकी महत्वाकांक्षा जिम्मेदार नहीं है। चिदंबरम इसलिए संकट में हैं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश कर रहे हैं। जब ए राजा स्पेक्ट्रम आवंटन की नीति तय कर रहे थे तो प्रधानमंत्री क्या कर रहे थे। उन्हें देश को बताना पड़ेगा कि वह अपनी ही सरकार की इस नीति से सहमत थे या नहीं। यदि सहमत थे तो उसके बचाव में खड़े क्यों नहीं हो रहे। और यदि उन्हें इस नीति में खामी नजर आ रही थी तो उसे सुधारने के लिए उन्होंने क्या किया। प्रधानमंत्री चिदंबरम का बचाव तो कर रहे हैं पर अपनी सरकार की नीति का नहीं। उन्हें पता है कि चिदंबरम के जाते ही उनका रक्षा कवच ध्वस्त हो जाएगा। चिदंबरम के जाने के बाद प्रधानमंत्री को विपक्ष के हमलों से बचाना कठिन हो जाएगा। सोनिया गांधी के सामने यही कठिनाई है। मनमोहन सिंह को बचाने के लिए चिदंबरम को बचाना उनकी मजबूरी है। कांग्रेस और सोनिया गांधी की मुश्किल यह है कि पैराशूट होने के बावजूद सरकार लगातार गिरती जा रही है। पैराशूट खुले (राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद संभालने को तैयार हों) तभी सरकार सुरक्षित जमीन पर उतर सकती है। वरना सरकार का नीचे जाना तो तय है। सवाल केवल रफ्तार और समय का है। घोटालों का बोझ जितना बढ़ेगा गिरने की रफ्तार उतनी तेज होगी। विपक्ष और मीडिया को कोसने की बजाय प्रधानमंत्री और सोनिया को अपना घर दुरुस्त करने पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि मीडिया और विपक्ष जो कह रहा है देश की जनता उस पर अविश्वास नहीं कर रही। संकट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दरवाजे पर आ गया है। घर में आग लगी हो तो पड़ोसी की निंदा में समय गंवाना समझदारी नहीं मानी जाती। विपक्ष को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करके प्रधानमंत्री इस आग पर काबू नहीं पा सकते। इस समय विपक्ष पर हमला आग पर पानी की बजाय पेट्रोल का काम करेगा जो उनकी सरकार ने पहले ही काफी महंगा कर रखा है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

हिंसक हुआ तेलंगाना आंदोलन


अलग तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर जारी आंदोलन हिंसक होता हुआ नजर आ रहा है। आंध्र प्रदेश में अलग-अलग जगहों पर प्रदर्शनकारियों ने दो निजी बसों और एक रेलवे बुकिंग काउंटर में आग लगा दी। इसके अलावा अलग राज्य की मांग को लेकर मुख्य विपक्षी तेलुगू देशम पार्टी (तेदेपा) के तेलंगाना क्षेत्र के 32 विधायकों ने आंध्र प्रदेश विधानसभा से इस्तीफा दे दिया। वहीं, हैदराबाद में आंदोलनकारियों द्वारा कई जगह पर सड़क यातायात बाधित करने पर दर्जनों नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया। पुलिस के मुताबिक, जामिया उस्मानिया रेलवे स्टेशन के नजदीक देर रात एक बजे अज्ञात लोगों ने एक वॉल्वो बस को आग के हवाले कर दिया। सॉफ्टवेयर कंपनी के कर्मचारियों को लाने ले जाने वाली बस एक निजी ऑपरेटर की थी। एक दूसरी घटना में सीताफलमंडी रेलवे स्टेशन पर एक बुकिंग काउंटर में आग लगा दी गई। पुलिस के घटनास्थल पर पहुंचने से पहले ही हमलावर वहां से गायब हो गए। दोनों घटनाएं उस्मानिया विश्वविद्यालय के नजदीक हुईं। विश्वविद्यालय में छात्र अलग तेलंगाना की मांग को लेकर विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं। प्रदर्शनकारी इससे पहले जामिया उस्मानिया रेलवे स्टेशन को निशाना बना चुके हैं। तीसरी घटना में नलगोंडा जिले में हैदराबाद से विजयवाड़ा जा रही एक निजी बस को आग के हवाले कर दिया गया। इससे पहले बस में सवार यात्रियों को जबरन नीचे उतार दिया गया था। आंदोलन की अगुआई कर रही तेलंगाना संयुक्त कार्रवाई समिति (जेएसी) ने हैदराबाद और सीमांध्रा (रायलसीमा व आंध्रा क्षेत्र) के बीच चलने वाली बसों को रोकने की धमकी दी है। जेएसी नेताओं ने सरकार को बसों का परिचालन नहीं रोकने पर परिणाम भुगतने की चेतावनी दी है। राज्य संचालित सड़क परिवहन निगम (आरटीसी) की बसें 10 दिन से तेलंगाना की सड़कों पर नहीं उतरी हैं। आरटीसी कर्मचारी भी अलग राज्य की मांग को लेकर चल रहे आंदोलन में कूद पड़े हैं। तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के प्रमुख के. चंद्रशेखर राव के बेटे केटी रामा राव को पुलिस ने बुधवार को हिरासत में ले लिया। हिरासत में लिए जाने से ठीक पहले उन्होंने केंद्र और राज्य सरकार को चेतावनी दी है कि तेलंगाना में हालात नियंत्रण से बाहर हो सकते हैं। उन्होंने मामले में केंद्र से हस्तक्षेप की मांग की है। उन्होंने कहा कि रेड्डी सरकार जनभावना को दबाने की कोशिश कर रही है। हैदराबाद में अलग तेलंगाना की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे टीआरएस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कई कार्यकर्ताओं को बुधवार को हिरासत में लिया गया। बुधवार को अलग तेलंगाना के समर्थन में 32 तेदेपा विधायकों ने आंध्र प्रदेश विधानसभा से इस्तीफा दे दिया। इससे पहले जुलाई में इसी मांग को लेकर तेदेपा विधायकों ने इस्तीफा दिया था, लेकिन विधानसभा अध्यक्ष ने उनके त्यागपत्र अस्वीकार कर दिया। तेदेपा विधायकों ने अपने त्यागपत्र सदन के अध्यक्ष एन मनोहर के उपलब्ध नहीं होने के कारण सचिव एस राजा सादाराम को सौंपे। इस बीच, पार्टी सूत्रों ने बताया कि उन्होंने तेलुगू देशम विधायक दल कार्यालय में कांग्रेस विधायकों का छह घंटे से ज्यादा इंतजार किया, लेकिन कोई नहीं आया। सरकारी कर्मचारियों की आम हड़ताल 15वें दिन भी जारी रही। जेएसी के नेताओं, टीआरएस, भाजपा और जेएसी के घटक दलों द्वारा व्यस्त चौराहों पर बैठने से सड़क यातायात ठप्प हो गया। हैदराबाद और सिकंदराबाद में 100 जगहों पर सड़क यातायात रोको अभियान चलाया गया। जेएसी के संयोजक एम. कोडंडरम को सिकंदराबाद के वाणिज्यिक केंद्र पैराडाइज से, टीआरएस के विधायक के. तारकरा रामा राव को मेट्टूगुडा से और भाजपा के वरिष्ठ नेता बंडारू दत्तात्रेय को समर्थकों के साथ गिरफ्तार किया गया। हड़ताल करने वाले सरकारी कर्मचारियों द्वारा सचिवालय के अन्य कर्मचारियों को कार्यालय जाने से रोकने पर पुलिस ने दर्जनों कर्मचारियों को भी गिरफ्तार किया है। तेलंगाना कर्मचारी नेता स्वामी गौड़ पर पुलिस हमले के विरोध में सड़क रोको अभियान चलाया गया। तेलंगाना समर्थक वकीलों ने मानवाधिकार आयोग के समक्ष पुलिस की शिकायत दर्ज कराई है। आयोग ने डीजीपी से सोमवार तक रिपोर्ट दाखिल करने को कहा है।

हिसार में मुद्दों पर हावी जातिगत समीकरण


हिसार के संसदीय उपचुनाव में मुद्दों पर फिलहाल जातिगत समीकरण हावी दिख रहे हैं। इस त्रिकोणीय मुकाबले में तीनों प्रमुख प्रत्याशी चुनावी प्रचार में विकास और भ्रष्टाचार को मुद्दा बना रहे हैं, लेकिन वास्तव में जाति के अंडर करेंट का बोझ सब पर भारी है। दो दिग्गज जाट प्रत्याशियों के मैदान में होने से उनका वोट लेने की दौड़ तो है ही, लेकिन यहां दूसरी बिरादरी के मतदाताओं का रुख और ज्यादा अहम है। यही कारण है कि तीनों प्रमुख उम्मीदवार जातिगत समीकरणों को साधने में जुटे हैं। भजनलाल के निधन से खाली हुई इस सीट पर मुख्य मुकाबला उनके बेटे और हजकां-भाजपा उम्मीदवार कुलदीप विश्नोई, इनेलो सुप्रीमो ओम प्रकाश चौटाला के बेटे अजय चौटाला और पूर्व केंद्रीय मंत्री रह चुके कांग्रेस प्रत्याशी जयप्रकाश बरवाला के बीच सिमटा हुआ है। मतदान 13 अक्टूबर को है, लेकिन मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा से लेकर ओम प्रकाश चौटाला समेत सभी दिग्गजों की आवाजाही से हिसार का की आबो-हवा पूरी तरह से सियासी रंग से सराबोर है। यह चुनाव दरअसल, कुलदीप विश्नोई और अजय चौटाला की भविष्य की सियासत के लिए अहम है, वहीं इनेलो और हजकां के बीच चौधर या दबदबे की लड़ाई भी है। वहीं कांग्रेस प्रत्याशी जयप्रकाश बरवाला उर्फ जेपी के साथ-साथ हरियाणा सरकार की प्रतिष्ठा भी दांव पर लगी है। यही कारण है कि खुद मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा अपनी कैबिनेट के साथ यहां डेरा डाले हैं तो ओम प्रकाश चौटाला, अभय चौटाला और उनकी नई पीढ़ी दिग्विजय और दुष्यंत चौटाला भी हिसार में जम गए हैं। कुलदीप विश्नोई का तो यह गृह क्षेत्र है और वह खुद को भजनलाल का वारिस साबित कर गैर जाट वोटों के बीच अपनी जगह बनाने की पूरी मशक्कत कर रहे हैं। सुषमा स्वराज जैसे भाजपा के शीर्ष नेता भी उनके समर्थन में आएंगे, इससे पहले स्थानीय नेता माहौल तैयार करने में जुटे हैं। हिसार के करीब 12 लाख 50 हजार मतदाताओं में सबसे ज्यादा करीब 4.40 लाख वोट जाट बिरादरी का है। ऐसे में बाकी आठ लाख से ज्यादा वोटों के बीच पैठ बनाने की ज्यादा होड़ है। इनमें सबसे ज्यादा करीब 16 फीसदी यानी करीब सवा दो लाख दलितों का रुख बेहद अहम है। इसके अलावा पंजाबी, ब्राह्मण, वैश्य, यादव, विश्नोई, कुम्हार आदि के वोट बेहद अहम हैं। सभी प्रत्याशियों ने अपने चुनाव क्षेत्र के प्रभारियों की नियुक्ति में उस क्षेत्र विशेष के जातीय समीकरणों का ध्यान रखते ही वहां अपने प्रतिनिधि नियुक्त किए हैं।

उपचुनाव में ममता की शानदार जीत


राज्य के दो विधानसभा उपचुनाव में तृणमूल कांग्रेस की शानदार जीत हुई है। भवानीपुर विधानसभा सीट से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी 54 हजार 213 वोटों से विजयी हुई हैं। यहां से माकपा की नंदिनी मुखर्जी को भारी पराजय का मुंह देखना पड़ा। उन्हें 19 हजार 442 वोट पाकर ही संतोष करना पड़ा। ममता को 73 हजार 635 वोट मिले। बसीरहाट उत्तर से तृणमूल कांग्रेस के एटीएम अब्दुल्ला ने अपने निकटतम प्रतिद्वंदी सुबेदअली गाजी को 30 हजार 941 वोटों से हराया। तृणमूल कांग्रेस यह सीट माकपा से छीनने में सफल रही। माकपा विधायक मुस्तफा बिन कासिम की मौत से यह सीट रिक्त हुई थी। मुख्यमंत्री के लिए परिवहन मंत्री सुब्रत बक्शी के विधायक पद से इस्तीफा देने के कारण भवानीपुर सीट रिक्त हुई थी। ममता को अपने क्षेत्र में जीतने पर किसी को शक-संदेह नही था, लेकिन जीत के अंतर को लेकर अटकलों का बाजार गरम था। बक्शी ने पिछली बार माकपा के नारायण जैन को 49 हजार से कुछ अधिक वोटों से हराया था। ममर्ता बक्शी की तुलना में कितनी अधिक वोट से जीतती हैं, इस पर ही तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे थे। बारिश के कारण भवानीपुर में मतदान की गति धीमी होने के कारण तृणमूल कांग्रेस नेताओं की चिंता बढ़ी थी। खुद ममता बनर्जी भी मतदान के समय प्रतिकूल मौसम को लेकर कुछ विचलित हुई थीं, लेकिन चुनाव नतीजा उम्मीद से बेहतर हुआ। उन्होंने 79.13 प्रतिशत वोट पाकर जीतने का रिकार्ड बनाया। विधानसभा उपचुनाव में भी वाममोर्चा को करारा झटका लगा। विधानसभा में वाममोर्चा की सीटें घटकर 63 हो गई। केंद्रीय वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को भवानीपुरा विधानसभा सीट पर जीत दर्ज करने के लिए बधाई दी और इसे एक बड़ी जीत करार दिया। प्रणब दा ने कहा कि उपचुनाव में ममता को मिली 54 हजार मतों से अधिक की जीत उनकी सरकार के अब तक के फैसलों पर जनता के समर्थन की मुहर है।

जिलों की बिसात पर जातीय वोटों की चाल


पश्चिमी उप्र में चुनावी समीकरणों को अपने पक्ष में करने को अगर बसपा सरकार ने तीन नये जिलों के गठन की घोषणा की तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। दरअसल वोटों की जुगत में सूबे में नये जिलों के गठन का खेल अब पुराना हो चुका है। इसे सूबे की सियासत में गठबंधन युग की देन माना जाता है। शायद यही वजह है 1994 से अब तक राज्य में 20 जिले बढ़ चुके हैं। यह सिलसिला थमने वाला भी नहीं है। अलग-अलग इलाकों से नये जिलों के गठन की मांग उठ रही और राजनीतिक दल उन्हें अपनी सरकार आने पर अमली जामा पहनाने का वादा कर रहे हैं। वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत से सत्ता हासिल के करीब एक वर्ष बाद मुख्यमंत्री मायावती ने एटा जिले के एक हिस्से को अलग कर 15 अप्रैल 2008 को बसपा के संस्थापक कांशीराम के नाम पर कांशीराम नगर बनाया था। इस पर प्रमुख विपक्षी दल सपा ने यह कह कर आपत्ति जताई थी कि कांशीराम का उस क्षेत्र से कोई लेना देना नहीं रहा है। मायावती ने दलित राजनीति में उनके योगदान का जिक्र करते हुए इस कदम के जरिए वोट बैंक को पुख्ता करने की कोशिश की थी। बीते वर्ष एक जुलाई को छत्रपति साहूजी महराज नगर नाम से बने सूबे के 72वें जिले का मामला भी खासा विवादित रहा। मायावती जब 2003 में मुख्यमंत्री थीं, तब उन्होंने यह जिला बनाया था और उस समय विपक्ष ने यह कहकर इसका विरोध किया था कि अमेठी का एतिहासिक महत्व है। इसे देखते हुए जिले का नाम अमेठी ही रखा जाए। उसी साल सत्ता बदल गई। मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बन गए और उन्होंने नवम्बर 2003 में छत्रपति शाहू जी महाराज के नाम से जिले के गठन की अधिसूचना को निरस्त कर दिया। इस मामले में कोर्ट के फैसले के आधार पर पिछले साल नये सिरे से छत्रपति शाहूजी महाराज जिले का गठन किया गया। मायावती ने पहले मुख्यमंत्रित्वकाल में वर्ष 1995 में उधम सिंह नगर और अंबेडकरनगर को नया जिला बनाया था। उधम सिंह नगर अब उत्तराखंड में है। फैजाबाद से काट कर बनाए गए अंबेडकरनगर जिले पर भी सपा ने खासा एतराज जताया था। सपा की मांग थी कि समाजवादी चिंतक डा. राममनोहर लोहिया की जन्मस्थली होने के कारण उसका नाम लोहिया पर होना चाहिए। वैसे मुलायम सिंह यादव ने अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में 1994 में कुशीनगर व संत रविदास नगर और 1995 में महोबा के नाम से नया जिला बनाया था। संत रविदास नगर के मुख्यालय को लेकर खासा विवाद छिड़ा था। मायावती ने सर्वाधिक जिले दूसरे शासनकाल में बनावाए। वर्ष 97 में उन्होंने कौशाम्बी, ज्योतिबा फूलेनगर, महामायानगर (हाथरस), चंदौली, गौतमबुद्धनगर, श्रावस्ती, संतकबीरनगर, औरैया, बागपत व कन्नौज को जिला बनावाया। यही नहीं उन्होंने सहारनपुर, मिर्जापुर व बस्ती मंडल का सृजन भी किया था। बाद में मुलायम सरकार ने बागपत व कन्नौज को छोड़कर बाकी सभी को समाप्त कर दिया। मामला कोर्ट में पहुंचा। उसने इसे विभेदकारी करार देते हुए बसपा सरकार के फैसले पर मुहर लगाई। मजबूरन सपा सरकार को इन जिलों और मंडलों को बहाल करना पड़ा।

रिश्ते हों बेहतर पर आतंकवाद से समझौता नहीं


आतंकी गुटों के खिलाफ कार्रवाई में नाकामी को लेकर अमेरिकी दबाव से घिरा पाकिस्तान जहां भारत से संबंध सुधार की पींगें बढ़ाने के मौके बटोर रहा है। वहीं इस पाकिस्तानी पेशबंदी पर सतर्क भारत दोस्ती का हाथ थामने के साथ ही यह हर हाल में साफ कर देना चाहता है कि आतंकवाद पर उसका रुख समझौते से परे है। संयुक्त राष्ट्र महासभा में हाशिए पर पाक की ओर से सौहार्द की हर पहल को तवज्जो देने के साथ ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आतंकवाद को सींचने में आइएसआइ की भूमिका पर अमेरिका में उठ रहे सवालों का खुल कर समर्थन किया। वतन वापसी के दौरान मीडिया से बातचीत में प्रधानमंत्री ने शीर्ष अमेरिकी जनरल एडमिरल माइक मुलेन द्वारा आइएसआइ पर लगाए आरोपों के बारे में पूछे जाने पर कहा कि इसमें कुछ भी नया नहीं है। भारत तो यह बात हमेशा से कहता रहा है। खुशी इस बात की है कि अब दुनिया को भी यह सच्चाई नजर आने लगी है। साथ ही पीएम ने इस बात पर भी जोर दिया कि पहले भारत जब आतंकवाद के पीछे आइएसआइ की भूमिका का मामला उठाता था तो दुनिया भरोसा नहीं करती थी। उल्लेखनीय है कि एडमिरल मुलेन ने बीते दिनों काबुल में अमेरिकी दूतावास पर हुए हमले के लिए सीधे आइएसआइ को जिम्मेदार ठहराया था। अमेरिका में शीर्ष सैन्य स्तर से आए इन आरोपों ने पाकिस्तान के साथ उसके रिश्तों को तलहटी में पहुंचा दिया है। संयुक्त राष्ट्र महासभा में शिरकत के लिए पहुंची पाकिस्तानी विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार का पूरा दौरा इन सवालों पर सफाई देते ही बीता। हालांकि इस बढ़ते दबाव के बीच हिना ने पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात की पहल की। वहीं बाद में भारतीय विदेश मंत्री एसएम कृष्णा को संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तानी मिशन की ओर से आयोजित पार्टी का न्योता भेजा गया। भारतीय विदेश मंत्री ने भी प्रोटोकॉल को दरकिनार कर पार्टी में शिरकत की। हालांकि इस मुलाकात में भी कृष्णा ने अपनी पाकिस्तानी समकक्ष को यह जरूर याद दिलाया कि पाक को आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई के वादे नहीं भूलने चाहिए।

माया ने बनाए तीन नए जिले


उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने बुधवार को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तीन नए जिलों की घोषणा की। शामली, हापुड़ और संभल तहसीलों को जिले का दर्जा दिया गया है। तहसीलों के नाम यथावत रहेंगे, जिलों के नाम क्रमश: प्रबुद्ध नगर, पंचशील नगर और भीम नगर होंगे। देर शाम शासन ने इस संबंध में अधिसूचना जारी करते हुए अधिकारियों की तैनाती भी कर दी। बताते चलें कि 1994 से अब तक प्रदेश में 20 नए जिलों का गठन हुआ है, जिनमें से 16 का गठन मायावती ने अपने विभिन्न कार्यकाल में किया है। सीएम ने नए जिलों के गठन के पीछे कानून व्यवस्था, बढ़ता शहरीकरण व आबादी विस्तार के तर्क दिए और कहा, अब विकास कानून-व्यवस्था की स्थिति बेहतर होगी। बुधवार को सबसे पहले सीएम मुजफ्फरनगर की तहसील शामली पहुंचीं और 73वें जिले के रूप में प्रबुद्ध नगर की घोषणा की। इसमें शामली और कैराना तहसील को शामिल किया गया है। यह सहारनपुर मंडल का हिस्सा होगा। इसके बाद गाजियाबाद की तहसील हापुड़ पहुंचीं। इसे पंचशीलनगर के नाम से प्रदेश का 74वां जिला बनाने की घोषणा की। इसमें हापुड़, गढ़मुक्तेश्वर और धौलाना तहसील को शामिल किया गया है। संभल पहुंचने पर मुख्यमंत्री ने संभल को सूबे का 75वां जिला बनाने का एलान किया। इसे अब भीम नगर के नाम से जाना जाएगा। इस जिले में तीन तहसीलें संभल, चंदौसी और गुन्नौर शामिल की गई हैं, जिनमें दो मुरादाबाद जिले से और एक बदायूं से ली गई है। मुख्यमंत्री की घोषणा के बाद शाम को प्रमुख सचिव राजस्व केके सिन्हा ने इस संबंध में अधिसूचना जारी कर दी। साथ ही नए जिलों में जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक और अपर पुलिस अधीक्षकों की तैनाती कर दी।

सिंगुर की जमीन हारे टाटा

 पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को बुधवार को दोहरी सफलता हासिल हुई। भवानीपुर विस उपचुनाव में माकपा प्रत्याशी को 54,213 मतों से हराने वाली ममता ने सिंगुर की जमीन पर कब्जे के मामले में रतन टाटा को हाईकोर्ट में मात दी। कलकत्ता हाई कोर्ट ने सिंगुर भूमि पुनर्वास- विकास अधिनियम, 2011 को चुनौती देने वाली टाटा मोटर्स की याचिका खारिज कर दी। अदालत ने अपने आदेश में कहा,राज्य सरकार द्वारा कुछ माह पूर्व पारित कानून संवैधानिक व वैध है। कंपनी दो माह के भीतर सिंगुर से सारा सामान हटा ले। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने फैसले को ऐतिहासिक बताते हुए कहा, सिंगुर के किसान आंदोलन ने भारत ही नहीं पूरी दुनिया के ऐसे प्रभावितों को रास्ता दिखाया है। सरकार दो नवंबर के बाद किसानों को जमीन लौटाने की प्रक्रिया शुरू करेगी। वहीं, टाटा मोटर्स ने अदालत के फैसले के अध्ययन के बाद आगे की कार्रवाई की बात कही है। हाईकोर्ट के न्यायाधीश इंद्रप्रसन्न मुखर्जी ने 51 पृष्ठों के फैसले में कहा, राज्य सरकार द्वारा बनाया गया कानून तथा इसके तहत उठाया गये कदम संवैधानिक है। कानून में इस प्रकार के अधिग्रहण के लिए पर्याप्त जनहित का ध्यान रखा गया है। अदालत ने कहा,उसके फैसले पर दो नवंबर तक बिना शर्त रोक रहेगी ताकि पीडि़त पक्ष आगे अपील कर सकें। अदालत ने हुगली के डीएम-एसपी को विशेष अधिकारी नियुक्त किया है,जो इस बात पर नजर रखेंगे कि टाटा से भूमि का हस्तांतरण दो माह में राज्य सरकार को सुगमता से हो। मुखर्जी ने इस मामले में दुकानदारों की भी अर्जी खारिज करते हुए उन्हें दी गई जमीन का हस्तांतरण भी बरकरार रखा। राज्य में सत्ता परिवर्तन के बाद ममता ने नया कानून पारित कर 21 जून की शाम पूरी जमीन कब्जे में ले ली थी। टाटा मोटर्स ने 22 जून को हाईकोर्ट में यह कहते हुए नए कानून को चुनौती दी कि यह असंवैधानिक है क्योंकि 600 एकड़ भूमि उसे दी गई थी जिसका हस्तांतरण किया जाना गलत है। वहीं, ममता ने अदालत को धन्यवाद देते हुए कहा, सिंगुर में 600 एकड़ भूमि में एक बड़ा कारखाना लगाया जाएगा, शेष 400 एकड़ भूमि मुआवजा स्वीकार नहीं करने वाले किसानों को वापस कर दी जाएगी।

दादा पर टिका चिदंबरम का भविष्य

 मनमोहन सिंह के अपनी टीम में आल इज वेल का संदेश देने के 24 घंटे के भीतर गृहमंत्री पी चिदंबरम और वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के बीच छिड़ा घमासान दूर करने की कवायद चरम पर पहुंच गई है। सरकार के संकट में फंसे होने का हवाला देकर मतभेदों को भुला 2 जी घोटाले पर वित्त मंत्रालय के नोट से उठे राजनीतिक बवाल को शांत करने के लिए प्रणव को स्पष्टीकरण जारी करने के लिए मनाने की कोशिशें तेज हो गई है। शाम को कोलकाता से दिल्ली आए प्रणब अपनी तरफ से कोई बयान जारी कर सकते हैं, जिसमें वित्त मंत्रालय के उस नोट पर भी स्पष्टीकरण हो सकता है, जिसके बाद चिदंबरम पर इस मामले में संलिप्तता का आरोप प्रगाढ़ हुआ है। प्रणब ने पीएम और सोनिया गांधी को इस मामले में सफाई देते हुए चार पेज का एक पत्र भी लिखा, जिसमें कहा गया है कि 25 मार्च का नोटन सिर्फ वित्त बल्किअन्य मंत्रालयों की सलाह पर ही लिखा गया। कांग्रेस आलाकमान से मुखर्जी की मंगलवार शाम हुई मुलाकात के बाद सामने आई इस चिट्ठी को विवाद दबाने की कोशिश के तौर पर भी देखा जा रहा है। माना जा रहा है कि विचार-विमर्श का तर्क अदालत में जारी सुनवाई के दौरान इस नोट को सुबूत बनने से रोक सकता है। सूत्रों के मुताबिक, प्रणब की ताजा चिट्ठी में इस बात पर जोर दिया गया है कि 25 मार्च को वित्त मंत्रालय से पीएमओ भेजा गया नोट दरअसल, अंतरमंत्रालयी विचार- विमर्श का हिस्सा था और यह प्रधानमंत्री कार्यालय व कैबिनेट सचिवालय की जानकारी पर आधारित था। वित्त मंत्रालय की दलील है कि चूंकि इस पूरे विवाद पर अलग-अलग कथन सामने आते रहे हैं, लिहाजा 25 मार्च को भेजे गए नोट के सहारे समग्र व एकजुट पक्ष रखने की कोशिश की गई। यह अलग बात है कि यह नोट जब सामने आया तो विवाद का सबब बन गया। इसे बुधवार को सरकार और संगठन के स्तर से मुखर्जी-चिदंबरम के बीच तकरार की धारणा तोड़ने की कोशिश माना जा रहा है। कांग्रेस में अंदरखाने वित्त मंत्रालय का 25 मार्च का नोट हैरानी का सबब है जिसमें कहा गया है कि तत्कालीन वित्त मंत्री चिदंबरम को 2जी स्पेक्ट्रम की नीलामी के लिए जोर देना चाहिए था। सूत्रों ने कहा, नोट का मकसद चिदंबरम को नीचा दिखाना नहीं हो सकता, ऐसी मंशा होती तो मार्च में लिखा गया यह नोट कब का लीक कर दिया गया होता। कांग्रेस और पीएम इस मामले में पूरी तरह चिदंबरम का साथ देकर भाजपा के आरोपों को हवा में उड़ा रहे हैं कि सरकार के अंदर अनबन है। कांग्रेस आधिकारिक रूप से यह मानने को कतई तैयार नहीं है कि सरकार में किसी प्रकार का मतभेद है। पार्टी प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने इसे भाजपा की कुंठाओं का नतीजा करार दिया और कहा,वित्त मंत्रालय के नोट का 2जी मामले पर कोई कानूनी प्रभाव नहीं पडे़गा। संकेत हैं कि तकनीकी रूप से इस मसले पर अदालत व सीबीआइ के चंगुल से चिदंबरम को निकालने के बाद सरकार अपनी लड़ाई तेज करेगी।