पता नहीं यह वक्त और नेतृत्व का बदलाव है या सामाजिक विद्वेष को ही अपनी सत्ता की बुनियाद बनाने का फार्मूला कि अंग्रेजों के जिन सांप्रदायिक कानूनों का कभी कांग्रेस ने विरोध किया था, अब वही कांग्रेस कुछ शब्दावलियों का हेरफेर करके एक ऐसा कानून बनाने जा रही है, जो समाज में परस्पर नफरत और बहुसंख्यक समाज के दमन का हथियार बन सकता है। भारत के इतिहास में दो नमूने मिलते हैं। एक कानून अंग्रेजों ने 1888 में उत्तर प्रदेश में बनाया था और दूसरा कानून 1922 में तत्कालीन नवाब बेगम ने अपनी रियासत भोपाल में बनाया था। अंतर केवल इतना है कि तब अंग्रेजों और भोपाल की नवाब बेगम ने खुलकर इस्लाम और मुसलमान शब्दों का इस्तेमाल पूरी ताकत से किया था, जबकि ताजा कानून में वही विशिष्ट अधिकार अल्पसंख्यकों को दिए गए हैं। अंग्रेजों और भोपाल की नवाब बेगम द्वारा मुसलमानों के संरक्षण को लेकर कानून बनाने के पीछे उनके मकसद थे। अंग्रेज 1857 के कटु अनुभव से निकले थे। वे भारत में सांप्रदायिक विभाजन करके मुसलमानों को अपने पक्ष में करना चाहते थे। इसीलिए लार्ड मिंटो के जमाने में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन गर्वनर जनरल आसलेन ने म्युनिसपल और लोकल वार्डो में चुनाव के लिए मुसलमानों को विशिष्ट दर्जा देने का कानून बनाया तो भोपाल रियासत के गैर-मुस्लिमों (जो बहुमत में थे) पर दबाव बनाने के लिए तत्कालीन नवाब बेगम ने भी ऐसे ही कानून की नींव रखी। इन दोनों ही कानूनों का कांग्रेस ने डटकर विरोध किया था। 1911 में संपन्न कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन और 1913 के कराची अधिवेशन में कांग्रेस ने अंग्रेजों से कानून बदलने की मांग की और आंदोलन की घोषणा की, जबकि भोपाल के मामले पर गांधी जी ने पहले पत्र लिखकर फिर व्यक्तिगत संदेश भेजकर कहा कि वह कानून राष्ट्रीय एकता में बाधक है। इतिहास गवाह है कि कांग्रेस की पहल पर वे दोनों कानून बदले गए। यह बात अलग है कि कानून भले ही बदल गए हों, लेकिन वे देश में कुछ ऐसा विष छोड़ गए थे, जिसके आधार पर भारत ने विभाजन की त्रासदी झेली और पाकिस्तान का अस्तित्व सामने आया। समाज में वह कड़वाहट आज भी है, जो यदा-कदा दंगों के रूप में सामने आती है। त्रासदी का इतना कठोर अनुभव झेलने के बावजूद भारत सरकार फिर एक ऐसा कानून बनाने जा रही है, जो धूमिल होती सांप्रदायिक और सामाजिक विद्वेष की भावनाओं को और तीखा करेगा। सच्चर कमेटी की सिफारिशों के आधार पर केंद्र सरकार ने एक ऐसे कानून का मसौदा तैयार किया है, जो भारत में अल्पसंख्यकों को अति विशिष्ट दर्जा तो देगा ही, साथ ही उन्हें यह विशेषाधिकार भी देगा, जिससे वे किसी भी गैर-अल्पसंख्यक को बिना किसी सबूत उपलब्ध कराए केवल शिकायत और सूचना के आधार पर गिरफ्तार करा सकेंगे और जमानत भी नहीं होगी। संयोग से इस कानून का मसौदा उसी कांग्रेस के नेतृत्व में काम करने वाली सरकार ने तैयार किया है, जिसने आजादी के पहले किसी भी सांप्रदायिक विभाजन के कदम का विरोध किया और जो किसी सांप्रदायिक सीमा से ऊपर उठकर सोचने का दंभ किया करती थी। विधेयक के मसौदे में व्यक्तिगत शिकायत में किसी गवाह या किसी प्रमाण के बिना पुलिस कार्रवाई करने के लिए बाध्य होगी। व्यक्तिगत शिकायत नहीं है, फिर भी कोई व्यक्ति यदि सूचना देता है कि अमुक व्यक्ति या समूह की बातचीत अल्पसंख्यकों की भावना को आघात पहुंचाने वाली है या अमुक व्यक्ति या समूह अल्पसंख्यकों की भावनाओं को आघात पहुंचाने या किसी भी प्रकार का नुकसान पहुंचाने का षड्यंत्र कर रहा है, तब भी अमुक व्यक्ति और उससे जुड़े समूह की गिरफ्तारी होगी। जमानत नहीं होगी और शिकायतकर्ता को कोई सुबूत या गवाह पेश करने की जरूरत होगी। शिकायतकर्ता यदि चाहे तो अपना नाम भी गुप्त रख सकता है। इसके अलावा इस मसौदे में प्रत्येक स्तर पर एक अभिकरण बनाने का भी प्रावधान है, जिसमें अल्पसंख्यक और जनजाति समूहों के सदस्यों की संख्या निर्धारित है। कई बार कानून के प्रावधान इतने महत्वपूर्ण नहीं होते, जितने कानून बनाने के पीछे की नीयत और उसे लागू करने की परिस्थितियां और मानसिकता होती है। इस कानून के मसौदे के पीछे भी यही दोनों बातें एक प्रश्न बनकर आ खड़ी हुई हैं। हाल में ही दक्षिणी और पूर्वी भारत के पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम सामने आए हैं। परिणामों के विश्लेषण से यह बात साफ हुई है कि सभी प्रांतों में उन राजनैतिक दलों ने अपनी सरकारें बना ली है, जिन्हें उन प्रांतों में अल्पसंख्यक मतदाताओं ने समर्थन दिया था। अब उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं। उत्तर प्रदेश में कभी अखंड राज करने वाली कांग्रेस से केवल इसी प्रदेश में नहीं, बल्कि पूरे उत्तर, पश्चिम और मध्य भारत में अल्पसंख्यक वोट कांग्रेस से रूठा हुआ है। कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपने पैर दोबारा जमाने की कोशिश कर रही है। खबरें हैं कि उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यक मुलायम सिंह और मायावती दोनों से दूरियां बना रहे हैं। ऐसे में केवल कांग्रेस है, जिसे वे एक बार फिर अपनी पसंद का दल बना सकते हैं। यदि कांग्रेस इसमें कामयाब रही तो वह पहले या दूसरे क्रम पर आ सकती है। यह माना जा रहा है कि अल्पसंख्यकों को विशिष्ट अधिकार और कानूनी हथियार देने वाला यह कानून इसी रणनीति का हिस्सा है। केंद्र सरकार का यह कदम उसे अंग्रेजों के ठीक उसी सोच के समीप लाकर खड़ा कर देता है, जिसमें सामाजिक विभेद पैदा करके या सांप्रदायिक वैमनस्य की कीमत पर भी सत्ता को मजबूत करने का उपाय शामिल किया गया था। दूसरी महत्वपूर्ण बात माहौल और मानसिकता की है। भारत में अधिकार कानूनों का इस्तेमाल लोग अपने हित संरक्षण के लिए कम और दूसरे को नीचा दिखाने, नेस्तनाबूद करने या अहंकार की तुष्टि के लिए अधिक करते हैं। दहेज प्रताड़ना, बलात्कार, अनुसूचित जाति से संबंधित कानूनों में अब यह बात साफ हो गई है कि अपने केस को मजबूत करने और आरोपी को बेहद मुश्किल में डालने के लिए इन धाराओं का इस्तेमाल होता है। इनमें 60 से 65 प्रतिशत तक मामले झूठे होते हैं। कानून के जितने सख्त प्रावधान महिला या अनुसूचित जाति के लिए हैं, ताजा कानून उससे कई गुना सख्त और एकतरफा है। स्वाभाविक है कि इनका इस्तेमाल भी उन्हीं कानूनों की तरह होगा, जैसा दूसरे कानूनों का हो रहा है। आजादी के पहले भी ऐसे कानून कभी पसंद नहीं किए गए। फिर भी यह माना जाता था कि वे सरकारें भारतीय जन के अनुरूप नहीं थीं। उन्हें भारत की भावनाओं से कोई लेना देना नहीं था, बल्कि वे भारत को खंडित देखना चाहती थीं, कमजोर देखना चाहती थीं। आजादी के बाद इस विचार में बदलाव की उम्मीद थी, लेकिन दुर्भाग्य है कि आजादी के कोई 64 साल बाद भी भारत की सरकारें बिल्कुल अंग्रेजों की तरह सोचती हैं और उन्हीं जैसे विभाजनवादी कानून बनाने की तैयारी करती हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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