हमारे माननीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम के अधीन काम करने वाली दिल्ली पुलिस ने 4-5 जून की रात्रि रामलीला मैदान में स्वामी रामदेव और उनके समर्थकों पर हुई कार्रवाई को न्यायोचित ठहरा रही है। उच्चतम न्यायालय में प्रस्तुत अपने शपथ पत्र में दिल्ली पुलिस ने कहा है कि उसने किसी प्रकार का बल प्रयोग नहीं किया, केवल आंसू गैस के गोले छोड़े। उस रात की घटना का जो भी फुटेज उपलब्ध है, उसे देखने वाले लाखों देशवासी सच जान चुके हैं। लाठी चार्ज की तकनीकी परिभाषा अपनी जगह है, लेकिन उतनी भारी संख्या में पुलिस बलों द्वारा रामलीला मैदान से लोगों को हटाने के दौरान लाठियां भांजते, चलाते, मारते, सामान उठाकर तोड़ते फाड़ते, फेंकते साफ देखा जा सकता था। जितनी बड़ी संख्या में पुलिस मंच की ओर चढ़ती दिख रही थी, उससे कोई भी आम नागरिक भयभीत हो सकता था। अगर हिंसा हुई ही नहीं तो फिर उतने लोग घायल कैसे हुए? बल प्रयोग नहीं हुआ तो लोग अपना सामान तक छोड़कर वहां से भागने पर क्यों मजबूर हुए? अगले दिन वहां लोगों के आम उपयोग के सामानों के ढेर किस बात के गवाह थे? लेकिन चिदंबरम के मातहत काम करने वाली पुलिस से हम इससे अलग व्यवहार और जवाब की उम्मीद कर भी नहीं सकते। वास्तव में यह सरकार की ओर से उच्चतम न्यायालय में शपथ पत्र देकर अपनी बर्बरता और गैर लोकातांत्रिक कार्रवाई को सही ठहराने का एक शर्मनाक प्रसंग है। हालांकि पुलिस और गृह मंत्रालय को इस बात का जवाब देना शेष है कि अगर रामदेव ने योग की अनुमति लेकर अनशन करते हुए कानून तोड़ा या पांच हजार की संख्या की जगह उसके आकलन में 20 हजार लोगों को एकत्रित किया तो कार्रवाई 1 बजे रात के बाद क्यों की गई और मैदान खाली करने के लिए केवल 80 मिनट का समय क्यों दिया गया? उच्चतम न्यायालय सरकार और पुलिस से निपटने में सक्षम है और वहां से इनके जवाबों का प्रत्युत्तर मिलेगा, लेकिन देश के आम नागरिक को यह अधिकार तो है ही कि वह अपने गृहमंत्री की भूमिका का मूल्यांकन कर उनका भविष्य तय करे। इस दृष्टि से विचार करें तो यह साधारण हैरत की बात नहीं है कि तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता द्वारा चिदंबरम के इस्तीफे की मांग के बाद देश का ध्यान उनकी नाकामियों, गलतियों, पापों, अपराधों की ओर गया है। जयललिता का आरोप है कि चिदंबरम पिछले लोकसभा चुनाव में हार गए थे, लेकिन गलत तरीके से उन्हें विजीत घोषित किया गया। चुनाव परिणामों पर नजर रखने वालों को याद होना चाहिए कि ज्यादातर समाचार चैनलों पर उनके हारने की खबर आ गई थी। लगातार उनके हारने का टिकर चलता रहा, लेकिन बाद में खबर आई कि वे 3,354 मतों से जीत गए। उनके क्षेत्र शिवगंगा में अन्नाद्रमुक के लोग अपने उम्मीदवार राज कन्नप्पन की विजय का जश्न मनाना शुरू कर चुके थे। उनकी विजय पुनर्गणना के बाद हुई और मद्रास उच्च न्यायालय में इसके विरुद्ध याचिका लंबित है। चिदंबरम ने इसी याचिका को आधार बनाते हुए जया को न्यायायल की अवमानना का दोषी करार दिया। वस्तुत: यह न्यायालय की अवमानना का भय दिखाकर लोगों का मुंह बंद करने की रणनीति है। न्यायालय की अवमानना मूलत: उसके फैसले के विरुद्ध टिप्पणी या उसके आचरण पर प्रश्न उठाने से होती है। उनके इस्तीफे की मांग में न्यायालय की अवमानना का प्रश्न कतई निहित नहीं है। इसके अलावा चिदंबरम के विरुद्ध ऐसे भी मामले हैं, जिनमें वे न्यायालय का नाम लेकर आम नागरिकों का मुंह बंद नहीं करा सकते। थोड़ा पीछे लौटिए और विकिलीक्स के खुलासे को याद करिए। उसमें अमेरिकी वाणिज्य दूतावास के अधिकारी ने यह संदेश भेजा था कि चिदंबरम ने चुनावों में मतदाताओं तक रुपये पहुंचाए। संदेश के अनुसार यह भूमिका उनके पुत्र ने निभाई। तमिलनाडु चुनाव में मतदाताओं को घूस देने के प्रचलन से पूरा देश परिचित है। विकिलीक्स को चिदंबरम किस न्यायालय की अवमानना का दोषी मानेंगे? अगर न्यायालय के प्रति चिदंबरम के मन में इतना ही सम्मान है तो मद्रास उच्च न्यायालय का फैसला आने तक उन्हें मंत्री पद से स्वयं अलग हो जाना चाहिए, लेकिन न चिदंबरम में इतना नैतिक साहस है और न मनममोहन सिंह सरकार में इतना आत्मविश्वास और आत्मसम्मान बचा है कि कोई दूसरा उनसे ऐसा करने के लिए कहे। जरा सोचिए, पाकिस्तान को सर्वाधिक वांछित खूंखार आतंकियों एवं अपराधियों की गलत सूची प्रदान करने के लिए केवल सीबीआइ के कुछ निचले स्तर के अधिकारी ही दोषी हैं या हमारे गृहमंत्री भी? ऐसा भारत में और मनमोहन सिंह सरकार के अंदर ही संभव है कि देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए जिम्मेवार व्यक्ति के मंत्रालय से इतनी बड़ी गलती हो गई, जिसकी भरपाई तक कठिन है, लेकिन उसके ऊपर कोई प्रश्न तक नहीं उठा। इससे देश की साख को ही केवल बट्टा नहीं लगा, भारत में जारी आतंक की जड़ें पाकिस्तान में हैं, इसे साबित करने का अभियान भी कमजोर पड़ा। पाकिस्तान ने सूची खारिज कर दी। अगर आप नई सूची देखेंगे तो साफ हो जाएगा कि वांछितों की पूरी सूची दोषपूर्ण थी। कांग्रेस के अंदर भी इस पर सुगबुगााहट हुई, लेकिन चिदंबरम जैसे 10 जनपथ एवं मनमोहन सिंह के विश्वासपात्र के खिलाफ कौन सवाल उठाए! किंतु चिदंबरम के चारों ओर धीरे-धीरे घेरा बढ़ रहा है। यह स्थिति आसानी से किसी के गले नहीं उतरती कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के आरोप में पूर्व दूरसंचार मंत्री ए राजा तो जेल में रहें और उस समय के वित्तमंत्री पर कोई आंच नहीं आए। अगर 2जी स्पेक्ट्रम का 2001 के मूल्यों पर आवंटन भ्रष्टाचार है और इससे सरकारी खजाने को जानबूझकर निजी लाभ के लिए हानि पहुंचाई गई तो इसमें वित्तमंत्री की भूमिका क्यों नहीं हो सकती। राजा के साथ चिदंबरम की इस मुद्दे पर कई बैठकें होने का प्रमाण है। बुद्धिमान होने के कारण उन्होंने केवल अपनी खाल बचाने के लिए पत्रों में अपने लिखित मंतव्य अंकित किए। सुब्रमण्यम स्वामी ने उच्चतम न्यायालय में उनका नाम भी आरोपियों में शामिल करने के लिए विशेष याचिका दायर की हुई है। नीरा राडिया और ए. राजा का टेप जिनने भी सुना होगा, उसमें चिदंबरम को धन दिए जाने की बात साफ तौर पर कई बार कही जा रही है। उनको सीधे या परोक्ष धन मिला या नहीं, इस बारे में भले अंतिम राय नहीं बनाई जा सकती, लेकिन टेप के आधार पर जांच तो होनी चाहिए। क्या सीबीआइ या केंद्रीय सतर्कता आयुक्त देश के गृहमंत्री के खिलाफ निष्पक्ष जांच कर सकती है? 2जी से बाहर निकलिए तो नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट का जो अंश लीक हुआ है, उसमें कहा गया है कि रिलायंस उद्योग का कृष्णा गोदावरी बेसिन में अनुचित समर्थन किया गया। इसके अनुसार वर्ष 2004-2006 के बीच मुकेश अंबानी के रिलायंस उद्योग को कृष्णा गोदावरी बेसिन के विकास के नाम पर अनुचित लाभ दिया गया और इस बीच नियमों में उसके अनुकूल लगातार परिवर्तन किया गया। इसमें वित्त मंत्रालय एवं पेट्रोलियम मंत्रालय दोनों की भूमिका थी। कैग रिपोर्ट के अनुसार तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग द्वारा गैस के निर्धारित मूल्य प्रति ब्रिटिश थर्मल यूनिट 1.80 अमेरिकी डॉलर की जगह 4.20 डॉलर करने के निजी कंपनियों के प्रस्ताव से सहमति जताना गलत था। चिदंबरम वित्तमंत्री होने के साथ मंत्रियों के उस समूह के सदस्य भी थे, जिसने इस प्रस्ताव को हरी झंडी दी। मूल्य बढ़ाने से केवल निजी कंपनियों को फायदा हुआ व सरकारी खजाने को चपत लगी। इस प्रकार मनमोहन सिंह सरकार के रत्न माने जाने वाले चिदंबरम के पीछे गहरा स्याह काफी घना हो चुका है। देश यह न भूले कि आम आदमी के महंगाई के आग में झुलसने की प्रक्रिया चिदंबरम के वित्तमंत्री रहते हुए ही हुई थी। वे ऐसे वित्तमंत्री थे, जो चीजों का नाम लेकर उत्पादकों-निर्माताओं से दाम घटाने की अपील करते थे और बाजार में दाम बढ़ते जाते थे। उस बीच शेयर बाजार में हुए घपलों की यहां याद दिलाने की आवश्यकता नहीं। बहरहाल, चिदंबरम का मंत्री बने रहना मनमोहन सरकार पर एक और ऐसा काला गहरा धब्बा होगा, जिसे धो पाना उसके लिए कतई संभव नहीं होगा। इसका एकमात्र समाधान चिदंबरम की मंत्रिमंडल से छुट्टी ही हो सकती है। ऐसे व्यक्ति के हाथों गृह मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण विभाग की बागडोर रहना देश के लिए भी ठीक नहीं है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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