Wednesday, June 29, 2011

अनर्थकारी जाति-धर्म गणना


कैसी विचित्र स्थिति है कि एक ओर संत कबीर ने "जात न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान" का आह्वान किया और दूसरी ओर पिछले दिनों केंद्रीय मंत्रिमंडल ने राज्य सरकारों से अपने कर्मचारियों के जरिए देश में जाति और धर्म के आधार पर गणना कराने का निर्णय लिया।

निर्णय के अनुसार सरकार की मंशा यह जानने की है कि ग्रामीण और शहरी इलाकों में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले किस जाति तथा धर्म के कितने लोग हैं। यह गणना जून से शुरू होकर इस वर्ष के अंत तक संपन्ना हो जाएगी। ज्ञातव्य है कि देश में जाति आधारित अंतिम गणना १९३१ में हुई थी जिसकी परिणति देश के विभाजन के रूप में हुई। इस बार सरकार का तर्क है कि जाति और धर्म के आधार पर गणना कराने से कल्याणकारी योजना बनाने में आसानी होगी और यह पता लग सकेगा कि मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों, हिन्दुओं आदि में कितने प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे वाली श्रेणी में आते हैं। केंद्रीय मंत्री अंबिका सोनी के अनुसार जाति और धर्म के आधार पर एकत्रित आँकड़ों का उपयोग बारहवीं योजना में ग्रामीण और शहरी गरीब आबादी की कल्याणकारी योजनाओं, सबसिडी और पहचान पत्र आदि कार्यक्रमों को बनाने के लिए किया जाएगा लेकिन यह भी कहा गया कि जाति और धर्म आधारित आँकड़ों को गोपनीय रखा जाएगा।

असल में सरकार के निर्णय से उच्चतम न्यायालय की खंडपीठ की उस चिंता का निदान नहीं होता जिसमें योजना आयोग को कहा गया कि गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वालों की संख्या ३६ प्रतिशत से संबंधित अपने तर्क को समझाए, किंतु न्यायालय का मंतव्य गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वालों की संख्या का तर्क समझाने के लिए गणना को जाति और धर्म से जोड़ने का नहीं था। इसका कारण यह है कि जाति और धर्म आधारित गणना विशुद्ध रूप से सामाजिक प्रक्रिया है जबकि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या जानना आर्थिक अवधारणा है। दोनों को एकसाथ जोड़ने का नतीजा यह होगा कि न तो सामाजिक उद्देश्य पूरे होंगे और न ही आर्थिक अवधारणा तार्किक रूप ले सकेगी। जाति और धर्म के आधार पर गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वालों की गणना अर्थव्यवस्था में इतनी असंगतियों और विकृति को जन्म देगी जो समावेशी विकास और संयुक्त आर्थिक संरचना दोनों पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगी।

योजनाकारों को जाति और धर्म के आधार पर बारहवीं योजना के ग्रामीण और शहरी आबादी की कल्याणकारी योजनाएँ, सबसिडी और विशिष्ट पहचान पत्र कार्यक्रमों को राष्ट्रीय उद्देश्यों और लक्ष्यों से जोड़ना होगा। विभिन्ना जातियों और धर्म अनुयायियों का हित इसी में है कि वे समावेशी विकास की मुख्यधारा में जुड़ें, अन्यथा गरीबी रेखा धर्म और जाति के दलदल में फँस जाएगी। भय यह भी है कि ऐसा करने से बारहवीं योजना मुख्य रूप से धर्म और जाति आधारित गणनाशास्त्र ही बनकर न रह जाए।

सरकार के निर्णय के संदर्भ में महात्मा गाँधी के सर्वधर्म समभाव में जाति और धर्म के संकुचित व्यवहार को कोई स्थान नहीं था। उनके शब्दों में धर्म को किसी रूप में खरोंचा नहीं जा सकता। उसका सौदा अपने रक्त से किया जा सकता है। नेहरू और लोहिया सरीखे परस्पर विरोधी नेताओं में इस पर मतैक्य रहा कि जातीय पहचान को बढ़ावा देना सामाजिक और राष्ट्रीय एकता के लिए घातक है। भारतीय संविधान के शिल्पी डॉ. आम्बेडकर, स्वामी विवेकानंद, पं.नेहरू और लोहिया की उक्तियों का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। डॉ. आम्बेडकर के अनुसार जातिगत विभाजन ने दलितों को सामाजिक सम्मान ही नहीं बल्कि जीने का अधिकार भी प्रदान नहीं किया। उनके शब्दों में "जाति भेद और वर्ण व्यवस्था ने समाज में नीची समझी जाने वाली जातियों को किसी भी प्रकार की क्रांति करने योग्य नहीं रहने दिया। वर्ण भेद, सामाजिक स्थिति और संपत्ति ये तीनों शक्तियाँ प्रभुता के स्रोत हैं जिनके माध्यम से मनुष्य या वर्ग दूसरों की स्वतंत्रता को समाप्त करता है। जब तक ये शक्तियाँ सामाजिक संरचना का संचालन करती रहेंगी, तब तक न तो आर्थिक क्रांति और न विकास के साथ संपत्ति का समीकरण वर्गहीन और वर्णहीन समाज का निर्माण कर सकेगा।"

इसी तरह स्वामी विवेकानंद के प्रपत्र में भी इस भविष्यवाणी की अनुगूँज सुनाई दी, "नया भारत किसान के हल, मजदूरों की भट्टी, झोपड़ियों, जंगलों से जन्म लेगा। भूखे पेट के साथ धर्म का मेल नहीं हो सकता।" वे ऐसे धर्म को नहीं मानते थे जो विधवा के आँसू नहीं पोंछ सके और अनाथ बच्चों के मुँह में रोटी का टुकड़ा नहीं दे सके।

भारत में सत्तर के दशक के बाद खींची गई तीस गरीबी रेखाओं का भी दिलचस्प इतिहास है। बहुधा विभिन्ना समितियों द्वारा खींची गई गरीबी रेखा ने पोषक पदार्थों की आवश्यकताओं की अनदेखी ने जीवन स्तर के विवादास्पद मुद्दों को शहर के परकोटे से शहर का बहुत ब़ड़ा हिस्सा छोड़ दिया। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से लेकर प्रो. सुरेश तेंडुलकर समिति तक गरीबी का अनुपात जानने के लिए नए प्रकार की विधि ईजाद की गई। प्रो. सुरेश तेंडुलकर द्वारा अपनाई गई पद्धति के अनुसार देश में ३७.२ प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रही है। उनके द्वारा राज्यवार गरीबी और अनुमान और भी अधिक चौंकाने वाले हैं। लगभग उसी समय स्वर्गीय अर्जुन सेनगुप्त समिति ने देश में गरीबों की संख्या ७८ प्रतिशत और सक्सेना पैनल ने ५० प्रतिशत संख्या का अनुमान लगाया था। ७८ प्रतिशत से ३६ प्रतिशत तक की इतनी विभिन्नाताओं के बीच उच्चतम न्यायालय की यह चिंता स्वाभाविक ही थी कि उक्त गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वालों की संख्या ३६ प्रतिशत बताने से संबंधित तर्क समझाया जाए।

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