Monday, December 3, 2012

शीत सत्र और सरकारी अस्त्र-शस्त्र



सरकार और विपक्ष के बीच मत विभाजन प्रस्ताव में बहस कराने की सहमति के बाद संसद के शीत सत्र का गतिरोध तत्काल खत्म हुआ है। ऐसा लग रहा था कि जिस तरह मानसून सत्र कोयला ब्लॉक आवंटन पर नियंत्रक एवं महालेक्षा परीक्षक (कैग) की भ्रष्टाचार संबंधी रिपोर्ट की भेंट चढ़ गया, यह सत्र खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश पर सरकार के टस से मस न होने की वेदी पर बलि चढ़ जाएगा, लेकिन महज बहस हो जाने से यह कल्पना करना कुछ ज्यादा उम्मीद करना होगा कि संसद आगे भी सुचारू रूप से चलेगी। नजर उठाइए और देखिए, खुदरा क्षेत्र सहित बीमा एवं बैंकिंग, पेंशन आदि में विदेशी निवेश का मुद्दा मानसून सत्र में भी गरम था और सरकार द्वारा इसका निर्णय करने के बाद तापमान कई गुणा बढ़ा हुआ है। 2जी की नीलामी फुस्स होना भी विपक्ष को नागवार गुजरा है। विपक्ष के साथ सरकार के सहयोगी और समर्थक दलों में से भी कई इन मामलों पर सरकार के साथ नहीं है। अमेरिका की खुदरा क्षेत्र की महाकाय कंपनी वालमार्ट द्वारा परोक्ष रूप से भारत में घूस का संकेत देना भी आग में घी का काम कर रहा है। भ्रष्टाचार के दूसरे मामले भी जुड़ चुके हैं। देश चाहेगा कि संसद चले, क्योंकि गतिरोध के कारण मानसून सत्र में कुल 102 विधेयक लंबित हो गए। इनमें आम आदमी की जिंदगी, हमारे भविष्य से जुड़े ऐसे विधेयक हैं, व्यापक चर्चा के बाद जिनका पारित होना आवश्यक है। विदेशी निवेश पर 184 के तहत लोकसभा एवं 167 के तहत राज्यसभा के मत विभाजन में बहुमत सरकार के खिलाफ चला जाए, तब भी उसे खतरा नहीं होता। वैसे लोकसभा के अंकगणित में सरकार के अल्पमत में आने की संभावना कम है। मुद्दों से असहमत होते हुए भी सरकार में शामिल एवं बाहर से समर्थन देने वाले दलों में जो सरकार का साथ देंगे, उनकी संख्या पर्याप्त है। तो सरकार ने ऐसी जिद क्यों की? जिस तरह से उसके कुछ साथी एवं समर्थक दल विदेशी निवेश का विरोध कर रहे थे, उससे वह संख्या बल को लेकर आशंकित थी और शायद सदन के रिकॉर्ड में मत विभाजन का आंकड़ा आने से वह बचना चाहती थी। सरकार का पैंतरा खैर, अब सरकार ने समय भांपकर विपक्ष की बात मान ली, लेकिन इससे अंतर क्या आएगा? विपक्ष चाहता है कि सरकार खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश से हाथ खींचे। दूसरी ओर सरकार ने मंत्रिमंडल के कार्यकारी आदेश से मल्टी ब्रांड खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश को हरी झंडी देने के बाद विदेशी मुद्रा प्रबंध कानून यानी फेमा में चौथा संशोधन करके भारत से बाहर रहने वाले व्यक्ति को सिक्युरिटी देने या हस्तांतरित करने की अनुमति दे दी है। भारतीय रिजर्व बैंक के नियमों को उसके अनुकूल बनाने के बाद अधिसूचना भी जारी हो चुकी है। तो सरकार उस दिशा में आगे ही नहीं बढ़ रही, उसके प्रति संकल्प दिखा रही है। इसमें बीच का या मेल-मिलाप का कोई रास्ता हो ही नहीं सकता। इस तरह दोनों के बीच यह चुंबक के दो धु्रवों का अंतर सत्र एवं उसके बाहर अपना रंग दिखाता रहेगा। सरकार विदेशी निवेश पर आगे बढ़ने पर आमादा है और विपक्ष उसे रोकना चाहता है। विपक्ष इसमें कैसे शांत रह सकता है। उसने वालमार्ट द्वारा घूस मांगने के आरोप की जांच कराने की भी मांग कर दी है। वालमार्ट कंपनी ने पहले कहा कि वह अमेरिका के विदेशी भ्रष्ट व्यवहार कानून (एफसीपीए) के संभावित उल्लंघन संबंधी आरोपों की भारत, चीन, ब्राजील और मैक्सिको के संदर्भ में जांच करा रही है। अब उसने भारती वालमार्ट के कुछ कर्मचारियों को हटा दिया है, जिनसे घूसखोरी के आरोपों की पुष्टि हो रही है। यह सीधा खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश से जुड़ा मामला है। वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा का वालमार्ट के आरोप पर कहना था कि सरकार इसकी जांच कराने नहीं जा रही है। उनके अनुसार किसी लोकतांत्रिक देश में आरोप लगना सामान्य बात है और आरोप उनके कानून के अनुसार लगा है। चूंकि भारत में ही कर्मचारियों पर कार्रवाई हुई है, इसलिए सरकार के आनाकानी को विपक्ष स्वीकार नहीं करेगा। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां भी सरकार के विरुद्ध गई हैं। गत 6 नवंबर को विदेशी निवेश संबंधी याचिका पर शीर्ष अदालत ने हालांकि कहा कि कार्यपालिका यानी सरकार को शासन करने का आदेश मिला है और वह (न्यायपालिका) सामान्यत: आर्थिक नीतियों में हस्तक्षेप से बचेगी, लेकिन आर्थिक नीतियां न्यायिक पुनर्निरीक्षण से परे नहीं है और सरकार संसद के प्रति जवाबदेह है, इसलिए संसद के सामने उसे सारी बातें रखनी चाहिए। विदेशी निवेश पर नियम 184 तथा 167 के तहत चर्चा कराने की मांग पर सरकार की सोच बिल्कुल उलट थी। आनंद शर्मा का वक्तव्य देखिए, कार्यकारी निर्णय सरकार के विशेषाधिकार हैं और वे संसद में विधायी प्रक्रिया द्वारा किसी प्रकार का प्रश्न उठाने या बहस करने का कोई कारण नहीं देखते। यानी पहले वह बहस के ही पक्ष में नहीं थी। ज्यादातर नेताओं का तर्क होता था कि अगर सरकार सारे निर्णयों पर बहस करने लगे, तब तो कोई काम नहीं हो सकता। इस संदर्भ में न्यायपालिका के इस मंतव्य का महत्व बढ़ जाता है। मुश्किल है राह संसद में न्यायिक हस्तक्षेप के सारे दल विरोधी हैं और यह संसदीय लोकतंत्र में शासन के तीनों प्रमुख अंगों के बीच संतुलन और निषेध की व्यवस्था के भी विरुद्ध हो सकता है, पर इस मंतव्य के बाद कार्यकारी निर्णय संसद में बहस न कराने का तर्क खारिज हो गया। हालांकि बाद में सरकार 193 के तहत चर्चा को तैयार हुई, जिसमें मत विभाजन का प्रावधान नहीं है। संसदीय लोकतंत्र में संसद नीति-निर्धारण की सर्वोच्च इकाई है और सिद्धांतत: कोई विषय इसकी चर्चा से बाहर का हो ही नहीं सकता। सरकार अपना पक्ष रखने के लिए स्वतंत्र है, पर चर्चा से बाहर का तर्क कभी भी स्वीकार्य नहीं हो सकता। वैसे चर्चा कराना, कराना या किस नियम के तहत कराना है, यह दोनों सदनों के सभापतियों का विशेषाधिकार है। अध्यक्ष यदि फैसला कर दें तो दोनों पक्षों को मान्य होगा, पर संसद चलाने के लिए ऐसे बिल्कुल परस्पर विरोधी विचार आने पर दोनों सदनों के माननीय अध्यक्ष सरकार एवं विपक्ष की सम्मिलित बैठक करते हैं और जो राय बनती है, उसके अनुसार फिर संचालन करते हैं। सच कहा जाए तो कांग्रेस ने मजबूरी में विपक्ष की मांग स्वीकार की है। वस्तुत: कांग्रेस मानती है कि अगर मानसून सत्र की तरह यह सत्र भी उसके हाथ से निकल गया तो उसका अपने पक्ष में दिए गए तर्क कमजोर हो जाएंगे, इसलिए उसकी रणनीति आरंभ से ही संसद चलाने और उसमें विपक्ष को करारा जवाब देने की थी। वह शीतकालीन सत्र को अपने ढंग से निपटा देने तथा विपक्ष की आवाज को कमजोर करने के लिए जितना संभव था, अंदर और बाहर की तैयारी करती रही है। इसमें एक ओर मान-मनौव्वल रणनीति का अंग था, जिसमें प्रधानमंत्री की स्वयं विपक्ष से बातचीत की पहल भी शमिल थी। दूसरी ओर विपक्ष पर हमला करने की भी रणनीति बनाई गई। पहले 2जी नीलामी को उसने कैग के 1 लाख 76 हजार करोड़ के घाटे के आकलन को गलत साबित करने और विपक्ष के उपहास का आधार बनाया। फिर कैग के एक पूर्व महानिदेशक के बयान को। भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी पर लगे आरोप उछलाने को भी रणनीति में शामिल किया गया। इस तरह सरकार एवं विपक्ष दोनों बिल्कुल आमने-सामने हैं और बहस इसमें बीच का रास्ता नहीं निकाल सकती। विपक्ष किसी सूरत में विदेशी निवेश व भ्रष्टाचार के मसले पर हथियार नहीं डाल सकता। 2जी नीलामी पर माकपा एवं भाजपा दोनों ने सरकार को कठघरे में खड़ा किया और 19 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने भी कह दिया कि सरकार ने नीलामी में गंभीरता नहीं दिखाई। विपक्ष के हाथों यह एक बड़ा हथियार हो गया है। भ्रष्टाचार पर गडकरी मामले में भाजपा को कठघरे में खड़ा करने की उसकी कोशिश के भी दोनों पहलू हैं। भाजपा कह रही है कि वह गडकरी के खिलाफ जांच कराए, पर रॉबर्ट वाड्रा, सलामन खुर्शीद, शरद पवार एवं उनके परिवार तथा जिन अन्य केंद्रीय मंत्रियों पर आरोप लगे (राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को छोड़कर), सबकी जांच हो। कृष्णा गोदावरी बेसिन में गैस मूल्य तय करने की भी जांच हो और कोयला ब्लॉक आवंटन जांच की रपट सामने रखे। सरकार ऐसा करेगी नहीं और विपक्ष शांत होगा नहीं। इस तरह दोनों पक्षों के रवैये को देखते हुए शीत सत्र के सुचारू रूप से चलने को लेकर कोई आश्वस्त नहीं हो सकता। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Dainik Jagran National Edition 3-12-2012 Page 9 jktuhfr)

Saturday, December 1, 2012

दक्षिण के सेनापति ने छोड़ा भाजपा का साथ

दक्षिण के सेनापति ने छोड़ा भाजपा का साथ
बेंगलूर, प्रेट्र : कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बुकानाकेरे सिद्दलिंगप्पा येद्दयुरप्पा ने अपनी पूर्व घोषणा के तहत शुक्रवार को भाजपा छोड़ दी। अफसोस जताते हुए येद्दयुरप्पा ने आरोप लगाया कि अपनों ने ही उन्हें भाजपा छोड़ने पर मजबूर किया। उन्होंने पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफे का पत्र राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को भेज दिया। बड़े हुजूम के साथ विधानसभा भवन पहुंचे येद्दयुरप्पा ने स्पीकर से मिलकर उन्हें विधायक पद से अपना त्याग पत्र भी सौंपा। यहां फ्रीडम पार्क में समर्थकों को संबोधित करते हुए 70 वर्षीय लिंगायत नेता ने कहा, यह कभी न भूलने वाला और दुख भरा दिन है। पार्टी ने मुझे सब कुछ दिया और मैंने भी भाजपा के लिए काफी त्याग किया। लेकिन पार्टी के कुछ नेताओं ने ही मुझे धोखा दिया। वे मुझे पार्टी में नहीं देखना चाहते। चार दशक तक भाजपा से जुड़े रहे येद्दयुरप्पा अपनी विदाई का एलान करते वक्त अपने आंसुओं को न रोक सके। अवैध खनन में आरोपित होने पर जुलाई 2011 में आलाकमान के कहने पर एक अनुशासित सिपाही की तरह मुख्यमंत्री पद छोड़ने की याद दिलाते हुए येद्दयुरप्पा ने कहा कि उनकी अच्छाई को कमजोरी समझा गया। येद्दयुरप्पा ने उम्मीद जताई कि पंजाब, ओडि़शा, उत्तर प्रदेश की तरह कर्नाटक जनता पार्टी क्षेत्रीय दल के रूप में राज्य को विकास के पथ पर ले जाएगी। साथ ही विधानसभा की सभी 224 सीटों पर लड़ने और लोकसभा चुनाव में 20 सीटें लाने का दावा भी किया। पूर्व भाजपा नेता ने शेट्टार सरकार को चुनाव तक नुकसान न पहुंचाने का वादा भी दोहराया। उन्होंने गडकरी समेत केंद्रीय नेतृत्व पर वादाखिलाफी व कर्नाटक की सियासी नब्ज न पहचानने और विपक्षी नेताओं के दांव में फंसने का आरोप लगाया। वह यह कहने से भी नहीं चूके कि भाजपा ने उनकी 40 साल की मेहनत को नजरअंदाज कर दिया। येद्दयुरप्पा ने अपने समर्थक विधायकों-सांसदों को नौ दिसंबर को केजेपी की हवेरी में होने वाली रैली में न आने की अपील की है, ताकि भाजपा उन पर कार्रवाई न कर सके।
Dainik Jagran National Edition 1-12-2012 Page -1 jktuhfr)

राजनीति में रिश्तों के शिल्पकार





राजनीति का एक भद्रपुरुष चला गया। इंद्र कुमार गुजराल के निधन की खबर सुनी तो मन में पहला खयाल यही आया। धक्का भी लगा एक अच्छे मित्र को खो देने का। ऐसे मित्र जो अपने विरोधियों के साथ भी मित्रवत ही रहे। यही उनके व्यक्तित्व की सबसे खास बात थी। उनका व्यवहार हर किसी के साथ अच्छा रहा। यही कारण था कि उनका कोई दुश्मन नहीं था, विरोधी भले रहे हों। भद्रपुरुषों के विरोधी समाज में होते भी हैं, लेकिन गुजराल साहब को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। उन्होंने कभी अपने व्यवहार में किसी के भी प्रति कठोरता नहीं आने दी। यह गुजराल साहब के व्यक्तित्व में निहित मित्रता का ही परिणाम था कि उन्होंने पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित किया, जो गुजराल डॉक्टि्रन कहलाया। यही उनके विदेश मंत्री रहते सबसे बड़ी उपलब्धि रही। गुजराल डॉक्टि्रन के पीछे उनकी यही सोच काम कर रही थी कि हिंदुस्तान को यदि अपने पड़ोसी देशों से संबंध सुधारने के लिए खुद चलकर एक मील भी आगे जाना पड़े तो उसे गुरेज नहीं करना चाहिए, ताकि दुनिया का उस पर भरोसा बढ़े। भारतीय राजनीति में गुजराल साहब का सबसे बड़ा योगदान यह रहा कि उन्होंने राजनीति को प्रेम और मेलजोल की भाषा दी। राजनीति में उनका सफर नई दिल्ली नगर निगम के सदस्य से शुरू हुआ था। फिर वह कांग्रेस के सदस्य बने। तब वह पाकिस्तान से आए थे। यह 1946 की बात है। उनके पिता अवतार नारायण गुजराल ने तब लाहौर में अपना कारोबार शुरू किया था। इंद्र लाहौर में कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े हुए थे, लेकिन बंटवारे के बाद भारत आकर वह कांग्रेस में शामिल हो गए। इंदिरा गांधी के वह काफी करीबी थे। उन्हें गांधी की किचन कैबिनेट का सदस्य कहा जाता था। 1975 में आपातकाल के दौरान उन्होंने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय संभाला। इसी दौरान संजय गांधी के साथ उनके रिश्तों में तल्खी आई। तब उन्होंने संजय का आदेश न मानते हुए साफ शब्दों में उनसे कह दिया था कि, मैं तुम्हारी मां का मंत्री हूं, तुम्हारा नहीं। हालांकि उन्हें इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा और उन्हें योजना आयोग में बैठा दिया गया, लेकिन इंदिरा गांधी उनकी योग्यता को पहचानती थीं और उन्होंने गुजराल साहब को तत्कालीन सोवियत संघ (रूस) का राजदूत नियुक्त कर मास्को भेज दिया। वह भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी न रहते हुए भी राजदूत बनाए गए। अपने मिलनसार स्वभाव के जरिये ही उन्होंने तब के सोवियत संघ से भारत के संबंध तो बेहतर बनाए ही, व्यक्तिगत रिश्ते भी बनाए। यह सिर्फ और सिर्फ गुजराल साहब के कारण था कि सोवियत संघ इंदिरा गांधी के कहने पर 1971 में हिंदुस्तान की मदद को राजी हुआ। दरअसल, बांग्लादेश युद्ध से पहले इंदिरा गांधी ने यह आश्वासन मांगा था कि यदि हिंदुस्तान पर किसी तरह का कोई संकट आता है तो सोवियत संघ हमारी मदद करे। पहले सोवियत संघ ने इन्कार कर दिया था, लेकिन गुजराल साहब के हस्तक्षेप के बाद वह इस पर राजी हो गया। 1971 की इस शांति संधि में उनकी अहम भूमिका थी। यह उनकी भद्रता और रिश्तों के नए अध्याय लिखने की कला की एक मिसाल मात्र है। असल में वह रिश्तों के शिल्पकार थे। उनके रिश्तों की गर्माहट आज तक महसूस की जाती है। यह स्वाभाविक ही है कि रूस ने उनके निधन पर श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुए कहा है कि वह उन्हें हमेशा याद रखेगा। गुजराल साहब 1980 तक रूस में रहे, लेकिन जब लौटे तो कांग्रेस में शामिल न होकर जनता पार्टी में चले गए। बाद में वह वीपी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार में विदेश मंत्री बने। खाड़ी युद्ध के समय उन्होंने इराक में फंसे भारतीयों को स्वदेश लाने का काम कुशलता से अंजाम दिया। राष्ट्रीय मोर्चा ने अप्रैल 1997 में उन्हें प्रधानमंत्री बनाया। उनकी वामपंथी विचारधारा के प्रति झुकाव के कारण ही उन्हें वाम दलों का बाहर से समर्थन मिला। प्रधानमंत्री बनते ही विचारधारा के इसी झुकाव में उन्होंने नौकरशाहों का वेतन बढ़ाया। उनका मानना था कि नौकरशाहों की ईमानदारी के लिए उनका वेतन बेहतर होना बेहद जरूरी है। प्रधानमंत्री रहते हुए वह दक्षिण अफ्रीका गए और वहां से मिF जाकर निर्गुट सम्मेलन को नए आयाम देने की भी एक कोशिश की। उन्होंने भारत-पाकिस्तान संबंधों में जमी बर्फ को पिघलाने के लिए तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के सामने व्यापार शुरू करने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने भारत-पाकिस्तान पीपुल्स कमेटी भी बनाई, जिसमें सामाजिक कार्यकर्ता भी शामिल थे। हालांकि उनकी सरकार मार्च 1998 में ही गिर गई, लेकिन 11 माह में ही वह अपनी अमिट छाप छोड़ गए। प्रधानमंत्री रहते उन्होंने नौकरशाहों के व्यवहार, राजनीति में ईमानदारी और काबिलियत पर जोर दिया। वह खुद एक पारदर्शी व्यक्तित्व वाले शख्स थे। सेवानिवृत्ति के बाद भी उन्होंने रिश्तों का अपना शिल्प जारी रखा। छोटे-छोटे समूह बनाने का शिल्प, जो भारतीय राजनीति को उनकी सबसे बड़ी देन है। अकाली और केंद्र के बीच तनाव की खाई को पाटने के लिए उन्होंने पंजाब ग्रुप बनाया। कश्मीर ग्रुप भी उन्हीं के प्रयासों से बनाया जा सका। मैं खुद इन दोनों का सदस्य रहा हूं। इसलिए कह सकता हूं कि यदि नई दिल्ली तब राजी हो गई होती तो अलगाववादियों के साथ समझौता हो गया होता। उर्दू के साथ उनका एक जज्बाती जुड़ाव था। पाकिस्तान के मशहूर शायर फैज अहमद फैज उनके अच्छे दोस्त थे। गुजराल साहब एक सिद्धांतवादी व्यक्ति थे, जिन्हें अपने उसूलों के साथ समझौता करना मंजूर नहीं था। वह कई मुद्दों पर बेबाक राय रखते थे। उनका मानना था कि प्रधानमंत्री को लोकसभा से होना चाहिए। यही कारण था कि राज्यसभा से चुने जाने के बाद उन्होंने लोकसभा चुनाव भी लड़ा। वह लोकपाल के समर्थक थे, लेकिन उनका मानना था कि प्रधानमंत्री को इसके दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए। उनका कहना था कि प्रधानमंत्री के पास ऐसी बहुत सी जानकारी होती है, जो उद्घाटित नहीं की जा सकती। ऐसे में यदि अदालत में पेश होना पड़ जाए तो उसके सामने धर्मसंकट की स्थिति बन सकती है। उन्होंने पिछले दिनों अन्ना हजारे का भी समर्थन किया था, लेकिन भ्रष्टाचार की इस लड़ाई में अब वह साथ नहीं हैं। आखिरी बार जब उनसे मिला था तो मैंने पूछा था कि आप प्रधानमंत्री रहे, कई मंत्रालय संभाले, राजदूत भी रहे, लेकिन जब आपने अपनी आत्मकथा लिखी तो उसमें कोई बड़ा खुलासा नहीं किया। तब उनका यही जवाब था कि वह पत्रकार नहीं हैं, जो चीजों को सनसनीखेज बनाएं। आज उस अभिन्न मित्र के जाने से जो अकेलापन मैं महसूस कर रहा हूं वह सिर्फ मैं ही समझ सकता हूं। मुझे यकीन है कि हिंदुस्तान के साथ-साथ पाकिस्तान और बांग्लादेश भी उन्हें याद करता रहेगा। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

Dainik Jagran National Edition 1-12-2012 Page-8 राजनीति