Friday, June 10, 2011

अब जाने का वक्त


प्रधानमंत्री पद की गरिमा सुरक्षित रखने के लिए मनमोहन सिंह का हटना आवश्यक मान रहे हैं लेखक 
भ्रष्टाचार और घपले-घोटालों के अनेक मामलों में केंद्रीय मंत्रियों पर लगे आरोप, काले धन की समस्या से निपट पाने में असफलता और इस कारण पहले अन्ना हजारे और फिर योग गुरु बाबा रामदेव के अनशन-सत्याग्रह ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के समक्ष अनेक नैतिक सवाल खड़े कर दिए हैं। ये सवाल इसलिए और अधिक गंभीर हो गए हैं, क्योंकि रामदेव को अनशन से उठाने के लिए मध्यरात्रि में ताकत का सहारा लिया गया। आज यदि देश में गहरी निराशा का माहौल है केंद्र सरकार के समक्ष साख का गंभीर संकट उत्पन्न हो गया है तो इसके लिए कौन उत्तरदायी है? सच है कि हर अभिनेता इस तथ्य से वाकिफ होता है कि रंगमंच पर आने का समय तय करने से अधिक महत्वपूर्ण होता है जाने का समय तय करना। आज राजनीतिक रंगमंच पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की भूमिका पर भी सवाल खड़े हो गए हैं। उनका पदार्पण एकाएक हुआ था। कुछ घंटे पहले तक वह खुद भी नहीं जानते थे कि उन्हें देश के प्रधानमंत्री पद का उत्तरदायित्व संभालना है। कांग्रेस के अनेक दिग्गज नेताओं ने इसे अंतरंग रूप से कभी स्वीकार नहीं किया। यद्यपि उनमें से कोई भी इस संबंध में आज तक मुखर नहीं हुआ। प्रधानमंत्री निश्चित ही इस तथ्य से अवगत रहे होंगे और संभवत: इस समय यह भी जानते होंगे कि उनके अपने दल के अंदर उन्हें लेकर गहन चर्चाएं हो रही हैं जिनमें उनके हटने की संभावना या आवश्यकता भी शामिल है। इस तथ्य को नकारना वर्तमान परिस्थिति से आंख मूंदने के समान होगा। यह भी सर्वविदित है कि इस समय की केंद्र सरकार सत्ता में तकनीकी आधार पर चल रही है, लोगों के विश्वास और सहमति के आधार पर नहीं। वर्तमान सरकार के अंतर्गत अप्रत्याशित और अनगिनत घोटाले तथा भ्रष्टाचार के प्रकरण लगातार देश के सामने आ रहे हैं। देशवासी यह भी जानते हैं कि इनमें से अधिकांश का कारण सरकार की शिथिलता और अकर्मण्यता है। आज कोई नहीं जानता कि कल किस मंत्री को लेकर नया घोटाला देश के सामने नहीं आ जाएगा। सरकार की साख वैसे तो सात वर्षो में लगातार गिरती रही है, परंतु 2-जी प्रकरण, कलमाड़ी के खेल तथा आदर्श सोसाइटी की अट्टालिकाओं ने साख गिरने की गति और तेज कर दी है। तमिलनाडु में टीवी चैनलों ने अपनी समृद्धि तथा संपत्ति किस तरह बढ़ाई, यह भी देश के सामने है। भट्टा-पारसौल से लेकर इंडिया हैबिटेट सेंटर तक सभी जगह चर्चाओं में एक प्रश्न बार-बार उठता है, प्रधानमंत्री कहां हैं, क्या करते रहे हैं और वह सब को रोक क्यों नहीं पाए। प्रत्येक प्रकरण में उनकेमंत्री कहीं ना कहीं केंद्र-बिंदु बने हुए हैं। पिछले कुछ महीनों से भारत के ईमानदार प्रधानमंत्री को लेकर अनेक व्यक्तिगत चर्चाएं भी प्रारंभ हो गई हैं और नैतिकता एवं संवैधानिक उत्तरदायित्व से जुड़े प्रश्न उठाए जा रहे हैं। इनकी शुरुआत मनमोहन सिंह के पहली बार राज्यसभा सदस्य बनने की प्रक्रिया के तहत दिए गए इस हलफनामे से हुई कि वह सामान्य रूप से असम में रहते हैं। नैतिक परीक्षण में यह प्रकरण जनमानस में कभी भी खरा नहीं उतरा। नरसिंह राव की सरकार जिस ढंग से झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को खरीद कर सत्ता में बनी रही, उस पर उनके किसी भी सहयोगी मंत्री ने कोई प्रश्न नहीं उठाया। मनमोहन सिंह उस समय वित्त मंत्री थे। ऐसे अनेक प्रकरणों को याद करते हुए लोग यह भी देख रहे है कि संचार मंत्री ए. राजा का आखिरी समय तक प्रधानमंत्री समर्थन करते रहे। ए. राजा ने उनकी बात नहीं मानी थी तथा सारा दोष उन्हीं पर मढ़ने का प्रयास भी किया। संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत प्रधानमंत्री किसी भी मंत्री के कार्यकलापों से अपने को अलग नहीं कर सकते। इस उत्तरदायित्व को पूर्णरूप से स्वीकार करते हुए कम से कम पद से हटने की बात कभी तो उन्हें सोचनी या कहनी चाहिए थी, ऐसा आज तक कभी नहीं हुआ। जनता यह भी जानती है कि अपने पूरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री को अपनी इच्छानुसार और स्वविवेक से कार्य करने का अवसर कभी मिला ही नहीं। राष्ट्रीय सलाहकार समिति का गठन एक अनहोनी व्यवस्था के रूप में उनके सामने अड़चन बन कर खड़ा हो गया है। उनकी पद व गरिमा पर एक अनावश्यक अंकुश लगाया गया। इस समिति के कुछ सेक्युलर सदस्य एक तरफ सुविधापूर्ण ढंग से सरकार के साथ बैठकर उस पर नियंत्रण करते हैं और दूसरी ओर अपने पुराने पेशे यानी विरोध का लगातार उपयोग करते रहते हैं। संवैधानिक दृष्टिकोण से यह प्रधानमंत्री का उत्तरदायित्व है कि जिस सर्वोच्च पद पर संसद ने उन्हें बैठाया है उसकी गरिमा पर कोई अन्य व्यवस्था आंच ना डाल सके। प्रधानमंत्री ने एनएसी की व्यवस्था को चुपचाप सहन कर लिया। यही नहीं संप्रग-1 के कार्यकाल केदौरान वाममोर्चे व द्रमुक ने लगातार सरकार की बांहें मरोड़ी और मनमाने ढंग से जो करना चाहा, वह किया। कम्युनिस्टों का अपना एजेंडा सदा से रहा है और यह सर्वविदित है। द्रमुक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य की समझ कभी विकसित नहीं कर पाया और सत्ता तथा राजनीति का केवल एक अर्थ उसने जाना-एक परिवार की समृद्वि और संपत्ति बढ़ाने के लिए देश और प्रांत सभी को पीछे छोड़ देना। परमाणु करार के समय कम्युनिस्टों ने जिस तेजी से विरोध किया उसी समय, केवल एक बार, प्रधानमंत्री ने कुछ दृढ़ता का परिचय दिया और करार का जबरदस्त समर्थन किया। आज लोग आश्चर्य से उस पर पुनर्विचार करते हुए जानना चाहते हैं कि इस समर्थन के पीछे कौन से कारण व तथ्य थे? संप्रग-2 में प्रधानमंत्री न तो ए. राजा को मंत्रिमंडल में लेना चाहते थे, न उन्हें टेलीकॉम मंत्रालय देना चाहते थे। उन्हें यह दोनों कार्य अपनी इच्छा के विपरीत करने पड़े। शंुगलू कमेटी प्रधानमंत्री ने स्वयं गठित कराई थी। उसकी रिपोर्ट जिस प्रकार ठंडे बस्ते व रद्दी की टोकरी में फेंकने के प्रयास हो रहे हैं वह भी जनमानस में अनेक संदेह पैदा कर रहा है। सभी जानते हैं कि दिल्ली सरकार के जिस भ्रष्टाचार को शंुगलू रिपोर्ट ने उजागर किया है उसमें दिल्ली की मुख्यमंत्री और उनके कई प्रिय अधिकारी शामिल रहे हैं। यदि इस प्रकार की घटनाएं 50 वर्ष पहले हुई होतीं तो केंद्र सरकार काफी पहले सत्ता से हट गई होती। आज कांग्रेस की स्थिति लगभग वैसी ही है जैसे राव तथा सीताराम केसरी के समय हुई थी। प्रधानमंत्री का एक निर्णय सारे देश को हताशा और निराशा के वातावरण से मुक्त कर सकता है। वह है कि वह अपने नैतिक उत्तरदायित्व को स्वीकार करें, देश के सामने स्पष्ट करें कि उन्हें किन कठिनाइयों एवं बंधनों में कार्य करना पड़ा और क्यों वह अब सत्ता से हटकर अपना बाकी समय देशहित के कार्यो में लगाएंगे? इसके लिए असीम साहस और अंत:शक्ति की आवश्यकता होगी, परंतु इससे मनमोहन सिंह की प्रतिष्ठा को जो ऊंचाई मिलेगी वह ऐतिहासिक उपलब्धि होगी। (लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं)

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