क्या विडंबना है आदमी की फितरत की! हम बीच में नहीं रह सकते या तो इधर रहेंगे या उधर। जरूरी नहीं कि सत्य ठीक वहीं हो जहां हम उसे देखते हैं, लेकिन मन दिमाग पर भारी पड़ जाता है। पूर्वाग्रह इसी से पैदा होते हैं। जब एक बार पूर्वाग्रह पैदा हो गया तब सत्य को देखना और मुश्किल हो जाता है। पिछले कुछ दिनों में अन्ना हजारे और बाबा रामदेव दो व्यक्तित्व उभरकर हमारे सामने आए हैं। इन दोनों के समर्थकों का एक समूह है तो विरोधियों का भी अपना एक समूह विशेष है, जो अपने-अपने पक्ष का जबरदस्त समर्थन करते नजर आ रहे हैं। दोनों ही समूह एक-दूसरे की बात पर विचार करने से कतरा रहे हैं जिस कारण एक अलग ही तरह की संकट की स्थिति बनती दिख रही है। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव दोनों ही अराजनीतिक व्यक्ति रहे हैं। अन्ना हजारे ने समाज सुधार की दिशा में कुछ काम किया है। वह न कभी किसी राजनीतिक दल में शामिल हुए और न ही शामिल होना चाहते हैं यानी उनकी ऐसी कोई मंशा भी नहीं है। इसके उलट दूसरी ओर बाबा रामदेव योग शिक्षक के रूप में मशहूर रहे हैं। बाद में वह काय चिकित्सक भी बन गए और तमाम तरह की बीमारियों को ठीक करने का दावा करने लगे। जब उनकी महत्वाकांक्षा और बढ़ी तो उन्होंने सामाजिक के साथ-साथ राजनीतिक और आर्थिक सुधारों के बारे में भी बोलना शुरू कर दिया। कांग्रेस ही नहीं कुछ और लोगों का भी कहना है कि राजनीति करना इन लोगों का नहीं, बल्कि राजनीतिक दलों का काम है। आखिर ये अन्ना हजारे और बाबा रामदेव इस क्षेत्र में क्यों कूद पड़े हैं? मैं नहीं समझता कि इससे बेहूदा कोई और प्रश्न हो सकता है। सभी व्यवस्थाएं राजनीतिक होती हैं। इन व्यवस्थाओं के सदस्य भी राजनीतिक होते हैं। जब कोई आदमी वोट देने के लिए घर से बाहर निकलता है तो वह राजनीति करने के लिए ही निकलता है। इस मायने में नागरिकता अपने आपमें एक राजनीतिक घटना है। इसीलिए विदेशी नागरिक भारत में राजनीति नहीं कर सकते और उन्हें इसके लिए प्रतिबंधित किया गया है। यदि ऐसी स्थिति में अन्ना हजारे या बाबा रामदेव अगर कोई राजनीतिक प्रश्न उठाते हैं तो इसकी वैधता को ललकारा नहीं जा सकता। हमारे यहां युद्ध के बारे में कहा भी गया है कि यह इतना गंभीर मामला है कि इसे सिर्फ और सिर्फ सेनापतियों के हाथ में ही नहीं छोड़ा जा सकता। यही बात अब राजनीति के बारे में कही जा सकती है। किसी भी लोकतंत्र में राजनीति इतना गंभीर मामला है कि इसे सिर्फ राजनीतिज्ञों के भरोसे छोड़ा नहीं जा सकता। जब राजनेता कहते हैं कि हम राजनीति में हैं इसलिए राजनीति करना हमारे ही अधिकार क्षेत्र में आता है तो वे न केवल अपनी हंसी उड़ाते हैं, बल्कि दूसरों को भी हंसने के लिए मौका देते हैं। मेरे विचार से इन लोगों से साफ कहा जाना चाहिए आप जैसे लोग आज तक अकेले ही राजनीति की जो शोभा बढ़ाते रहे हैं इसीलिए तो हमारे देश का यह हाल हो गया है। देश की वर्तमान दुर्गति के लिए आखिर किसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है अथवा इसके लिए कौन जिम्मेदार है। इस विषय पर यदि देशव्यापी जनमत सर्वेक्षण कराया जाए तो पहले नंबर पर राजनेताओं का ही नाम आएगा। जिस भ्रष्टाचार के खिलाफ हमारे देश में आज इतना असंतोष दिखाई दे रहा है उसके शिरोमणि भी यही नेता लोग हैं। जब ये लोग सरकार चलाते हैं तो सरकार भी भ्रष्ट हो जाती है। कायदे से इस राजनीतिक पतन का उपचार यही हो सकता था कि राजनीति की वर्तमान शैली के विरुद्ध एक या दो नए राजनीतिक दल नए विचारों और कार्यशैली के साथ विकल्प के रूप में उभरते और राष्ट्रीय विनाश को रोकने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते। वर्ष 1980 के दशक में कुछ क्षेत्रीय दलों के उभरने के बाद आज तक कोई नया राजनीतिक दल नहीं बना है। उस समय के बने क्षेत्रीय दल भी अब राष्ट्रीय दलों की तरह भ्रष्ट और जनविरोधी हो चुके हैं। इसलिए किसी नई या वैकल्पिक राजनीतिक संस्कृति का विकास नहीं हो पाया है, लेकिन प्रकृति का यह सामान्य नियम है कि वह खाली हुए रिक्त स्थान को बर्दाश्त नहीं करती और उसे अपने अनुसार किसी न किसी तरह भर लेती है। राजनीतिक प्रक्रिया के नष्ट-भ्रष्ट हो जाने के परिणामस्वरूप ही माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी का उदय हुआ है, लेकिन वह कोई संसदीय पार्टी नहीं है, जिस कारण उसमें वह क्षमता नहीं जिसकी की आज वाकई में आवश्यकता है। इस तरह हम पाते हैं कि हमारे देश में एक राजनीतिक शून्यता की स्थिति है। इस राजनीतिक शून्यता को भरने के लिए ही अराजनीतिक लोगों को वे काम करने पड़ रहे हैं जो काम वस्तुत: राजनीतिक संगठनों का है। अथवा उनके द्वारा होना चाहिए था। आज भारतीय जनता पार्टी अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के साथ खड़ी है। हालांकि वह अन्ना हजारे के साथ कम और रामदेव के साथ ज्यादा दिख रही है, क्योंकि अन्ना हजारे के काम में हिंदूवाद की राजनीति की कोई संभावना नहीं है, जबकि बाबा रामदेव की मुहिम में इस बात की संभावना कोई भी देख सकता है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी की प्रसिद्धि इस बात के लिए कभी नहीं रही है कि यह पार्टी भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष करती है। यही वजह है कि अपने चरित्र को दूसरों से ऊंचा साबित करने के लिए उसे आज एक योग शिक्षक का सहारा लेना पड़ रहा है। पिछले तीस-चालीस वर्षो में ऐसे अनेक आंदोलन हुए हैं जो राजनीतिक फैसलों सफलतापूर्वक चुनौती दे चुके हैं। इनमें मेधा पाटेकर का पर्यावरण आंदोलन, अरुणा राय का सूचना का अधिकार आंदोलन और भूमि अधिग्रहण के विरुद्ध स्थानीय समुदायों का आंदोलन। इन गैर राजनीतिक आंदोलनों की सार्थकता और सफलता साफ तौर पर आज हमें दिख रहे हैं। हमारे देश में मानव अधिकारों का आंदोलन भी अब जोर पकड़ रहा है । हालांकि इसका नेतृत्व भी कोई ऐसा व्यक्ति नहीं कर रहा है जिसके बारे में कहा जा सके कि वह राजनीति में है। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलन को भी इसी संदर्भ में देखना चाहिए। जाहिर है ये दोनों ही व्यक्ति कोई पूर्ण पुरुष नहीं हैं। इनमें कमियां और कमजोरियां हैं और हो सकता है इनकी अपनी कुछ महत्वाकांक्षाएं भी हों, लेकिन हमें यहां नहीं भूला जा सकता कि इन कमियों और कमजोरियों की चर्चा जरूर करनी चाहिए, लेकिन उन्हें पूरी तरह से खारिज करते हुए नहीं। इसी तरह जो लोग अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के भक्त हैं अथवा इनके समर्थक और जो इन्हें युगपुरुष बता रहे हैं, उन्हें भी यह सोचने की जरूरत है कि कहीं वे अपनी अतिभक्ति का शिकार तो नहीं हो रहे हैं। कमियां होने से कोई व्यक्ति घृणास्पद नहीं हो जाता और पूर्ण पुरुष न होने से कोई व्यक्ति श्रद्धा का पात्र न रहे ऐसी भी बात नहीं हो सकती। इसी तरह भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का समर्थन यदि भारतीय जनता पार्टी कर रही है तो यह मुहिम भाजपाई नहीं हो जाती। शैतान को भी बाइबल के अंश उद्धृत करने की आजादी होनी चाहिए, तभी तो उससे यह मांग की जा सकती है कि वह बाइबिल के अनुसार चल कर दिखाए।
Wednesday, June 15, 2011
अराजनीतिक लोगों की राजनीतिक मुहिम
क्या विडंबना है आदमी की फितरत की! हम बीच में नहीं रह सकते या तो इधर रहेंगे या उधर। जरूरी नहीं कि सत्य ठीक वहीं हो जहां हम उसे देखते हैं, लेकिन मन दिमाग पर भारी पड़ जाता है। पूर्वाग्रह इसी से पैदा होते हैं। जब एक बार पूर्वाग्रह पैदा हो गया तब सत्य को देखना और मुश्किल हो जाता है। पिछले कुछ दिनों में अन्ना हजारे और बाबा रामदेव दो व्यक्तित्व उभरकर हमारे सामने आए हैं। इन दोनों के समर्थकों का एक समूह है तो विरोधियों का भी अपना एक समूह विशेष है, जो अपने-अपने पक्ष का जबरदस्त समर्थन करते नजर आ रहे हैं। दोनों ही समूह एक-दूसरे की बात पर विचार करने से कतरा रहे हैं जिस कारण एक अलग ही तरह की संकट की स्थिति बनती दिख रही है। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव दोनों ही अराजनीतिक व्यक्ति रहे हैं। अन्ना हजारे ने समाज सुधार की दिशा में कुछ काम किया है। वह न कभी किसी राजनीतिक दल में शामिल हुए और न ही शामिल होना चाहते हैं यानी उनकी ऐसी कोई मंशा भी नहीं है। इसके उलट दूसरी ओर बाबा रामदेव योग शिक्षक के रूप में मशहूर रहे हैं। बाद में वह काय चिकित्सक भी बन गए और तमाम तरह की बीमारियों को ठीक करने का दावा करने लगे। जब उनकी महत्वाकांक्षा और बढ़ी तो उन्होंने सामाजिक के साथ-साथ राजनीतिक और आर्थिक सुधारों के बारे में भी बोलना शुरू कर दिया। कांग्रेस ही नहीं कुछ और लोगों का भी कहना है कि राजनीति करना इन लोगों का नहीं, बल्कि राजनीतिक दलों का काम है। आखिर ये अन्ना हजारे और बाबा रामदेव इस क्षेत्र में क्यों कूद पड़े हैं? मैं नहीं समझता कि इससे बेहूदा कोई और प्रश्न हो सकता है। सभी व्यवस्थाएं राजनीतिक होती हैं। इन व्यवस्थाओं के सदस्य भी राजनीतिक होते हैं। जब कोई आदमी वोट देने के लिए घर से बाहर निकलता है तो वह राजनीति करने के लिए ही निकलता है। इस मायने में नागरिकता अपने आपमें एक राजनीतिक घटना है। इसीलिए विदेशी नागरिक भारत में राजनीति नहीं कर सकते और उन्हें इसके लिए प्रतिबंधित किया गया है। यदि ऐसी स्थिति में अन्ना हजारे या बाबा रामदेव अगर कोई राजनीतिक प्रश्न उठाते हैं तो इसकी वैधता को ललकारा नहीं जा सकता। हमारे यहां युद्ध के बारे में कहा भी गया है कि यह इतना गंभीर मामला है कि इसे सिर्फ और सिर्फ सेनापतियों के हाथ में ही नहीं छोड़ा जा सकता। यही बात अब राजनीति के बारे में कही जा सकती है। किसी भी लोकतंत्र में राजनीति इतना गंभीर मामला है कि इसे सिर्फ राजनीतिज्ञों के भरोसे छोड़ा नहीं जा सकता। जब राजनेता कहते हैं कि हम राजनीति में हैं इसलिए राजनीति करना हमारे ही अधिकार क्षेत्र में आता है तो वे न केवल अपनी हंसी उड़ाते हैं, बल्कि दूसरों को भी हंसने के लिए मौका देते हैं। मेरे विचार से इन लोगों से साफ कहा जाना चाहिए आप जैसे लोग आज तक अकेले ही राजनीति की जो शोभा बढ़ाते रहे हैं इसीलिए तो हमारे देश का यह हाल हो गया है। देश की वर्तमान दुर्गति के लिए आखिर किसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है अथवा इसके लिए कौन जिम्मेदार है। इस विषय पर यदि देशव्यापी जनमत सर्वेक्षण कराया जाए तो पहले नंबर पर राजनेताओं का ही नाम आएगा। जिस भ्रष्टाचार के खिलाफ हमारे देश में आज इतना असंतोष दिखाई दे रहा है उसके शिरोमणि भी यही नेता लोग हैं। जब ये लोग सरकार चलाते हैं तो सरकार भी भ्रष्ट हो जाती है। कायदे से इस राजनीतिक पतन का उपचार यही हो सकता था कि राजनीति की वर्तमान शैली के विरुद्ध एक या दो नए राजनीतिक दल नए विचारों और कार्यशैली के साथ विकल्प के रूप में उभरते और राष्ट्रीय विनाश को रोकने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते। वर्ष 1980 के दशक में कुछ क्षेत्रीय दलों के उभरने के बाद आज तक कोई नया राजनीतिक दल नहीं बना है। उस समय के बने क्षेत्रीय दल भी अब राष्ट्रीय दलों की तरह भ्रष्ट और जनविरोधी हो चुके हैं। इसलिए किसी नई या वैकल्पिक राजनीतिक संस्कृति का विकास नहीं हो पाया है, लेकिन प्रकृति का यह सामान्य नियम है कि वह खाली हुए रिक्त स्थान को बर्दाश्त नहीं करती और उसे अपने अनुसार किसी न किसी तरह भर लेती है। राजनीतिक प्रक्रिया के नष्ट-भ्रष्ट हो जाने के परिणामस्वरूप ही माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी का उदय हुआ है, लेकिन वह कोई संसदीय पार्टी नहीं है, जिस कारण उसमें वह क्षमता नहीं जिसकी की आज वाकई में आवश्यकता है। इस तरह हम पाते हैं कि हमारे देश में एक राजनीतिक शून्यता की स्थिति है। इस राजनीतिक शून्यता को भरने के लिए ही अराजनीतिक लोगों को वे काम करने पड़ रहे हैं जो काम वस्तुत: राजनीतिक संगठनों का है। अथवा उनके द्वारा होना चाहिए था। आज भारतीय जनता पार्टी अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के साथ खड़ी है। हालांकि वह अन्ना हजारे के साथ कम और रामदेव के साथ ज्यादा दिख रही है, क्योंकि अन्ना हजारे के काम में हिंदूवाद की राजनीति की कोई संभावना नहीं है, जबकि बाबा रामदेव की मुहिम में इस बात की संभावना कोई भी देख सकता है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी की प्रसिद्धि इस बात के लिए कभी नहीं रही है कि यह पार्टी भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष करती है। यही वजह है कि अपने चरित्र को दूसरों से ऊंचा साबित करने के लिए उसे आज एक योग शिक्षक का सहारा लेना पड़ रहा है। पिछले तीस-चालीस वर्षो में ऐसे अनेक आंदोलन हुए हैं जो राजनीतिक फैसलों सफलतापूर्वक चुनौती दे चुके हैं। इनमें मेधा पाटेकर का पर्यावरण आंदोलन, अरुणा राय का सूचना का अधिकार आंदोलन और भूमि अधिग्रहण के विरुद्ध स्थानीय समुदायों का आंदोलन। इन गैर राजनीतिक आंदोलनों की सार्थकता और सफलता साफ तौर पर आज हमें दिख रहे हैं। हमारे देश में मानव अधिकारों का आंदोलन भी अब जोर पकड़ रहा है । हालांकि इसका नेतृत्व भी कोई ऐसा व्यक्ति नहीं कर रहा है जिसके बारे में कहा जा सके कि वह राजनीति में है। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलन को भी इसी संदर्भ में देखना चाहिए। जाहिर है ये दोनों ही व्यक्ति कोई पूर्ण पुरुष नहीं हैं। इनमें कमियां और कमजोरियां हैं और हो सकता है इनकी अपनी कुछ महत्वाकांक्षाएं भी हों, लेकिन हमें यहां नहीं भूला जा सकता कि इन कमियों और कमजोरियों की चर्चा जरूर करनी चाहिए, लेकिन उन्हें पूरी तरह से खारिज करते हुए नहीं। इसी तरह जो लोग अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के भक्त हैं अथवा इनके समर्थक और जो इन्हें युगपुरुष बता रहे हैं, उन्हें भी यह सोचने की जरूरत है कि कहीं वे अपनी अतिभक्ति का शिकार तो नहीं हो रहे हैं। कमियां होने से कोई व्यक्ति घृणास्पद नहीं हो जाता और पूर्ण पुरुष न होने से कोई व्यक्ति श्रद्धा का पात्र न रहे ऐसी भी बात नहीं हो सकती। इसी तरह भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का समर्थन यदि भारतीय जनता पार्टी कर रही है तो यह मुहिम भाजपाई नहीं हो जाती। शैतान को भी बाइबल के अंश उद्धृत करने की आजादी होनी चाहिए, तभी तो उससे यह मांग की जा सकती है कि वह बाइबिल के अनुसार चल कर दिखाए।
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