Saturday, June 4, 2011

लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री क्यों नहीं


लोकपाल बिल को लेकर सरकार की नीयत शुरू से ही सवालों के घेरे में थी और इस पूरे मसले को लटकाने की जुगत में भिड़ी सरकार अब अपने मकसद में काफी हद तक कामयाब होती भी दिखाई दे रही है। जनवरी में तैयार सरकारी विधेयक के दायरे में प्रधानमंत्री भी शामिल थे, लेकिन अब सरकार को लगता है कि अगर लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री को लाया गया तो प्रधानमंत्री का पद बेकार हो जाएगा। भारत स्वाभिमान के जरिए देश भर में काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन खड़ा करने वाले बाबा रामदेव का भी कहना है कि प्रधानमंत्री और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को लोकपाल के दायरे में लाने के मामले में जल्दबाजी करना ठीक नहीं। अब सरकार का यह कहना है कि लोकपाल के अधिकारों को लेकर समाज के किसी भी वर्ग में एक राय नहीं है। यहां तक कि गैर सरकारी संगठनों में भी इस पर मतभेद हैं। कुल मिलाकर राजनीतिक हलकों में यह भी चर्चा है कि अपने फायदे के लिए ये मतभेद जानबूझकर पैदा किए जा रहे हैं। इन विवादों का सहारा लेकर अब सरकार इस पूरे मसले पर राज्यों और राजनीतिक दलों से चर्चा करके इस मामले को एक बार फिर ठंडे बस्ते में डालने के मूड में है। आखिरकार प्रधानमंत्री का पद लोकपाल के दायरे में क्यों नहीं हो सकता? 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में ए राजा के जेल जाने से कुछ दिनों पहले तक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उनका बचाव करते नजर आ रहे थे। कॉमनवेल्थ घोटाले में अब भले ही सुरेश कलमाड़ी को सलाखों के पीछे डाल दिया गया हो, लेकिन इस बड़े खेल आयोजन से पहले तमाम आपत्तियों पर प्रधानमंत्री कार्यालय ने आंखें मूंद रखी थी। देश में आजादी के बाद से अब तक ऐसे एक नहीं, कई वाकये हो चुके हैं, जब प्रधानमंत्री की कुर्सी भी सवालों के घेरे में रही है। क्या लोकतंत्र में सरकार के मुखिया की जांच कोई नहीं कर सकता? क्या प्रधानमंत्री और प्रधानमंत्री कार्यालय में पारदर्शिता की कोई जरूरत नहीं है? लोकपाल बिल की ड्रॉफ्टिंग कमेटी की बैठक में सरकार ने प्रधानमंत्री, उच्च न्यायपालिका और सांसदों के संसद में किए गए कार्यो को लोकपाल के दायरे में लाने का विरोध किया है। सरकार का तर्क है कि यदि प्रधानमंत्री के खिलाफ कोई जांच शुरू हुई तो वह शासन करने और अहम फैसले लेने का हक खो देंगे। सिविल सोसाइटी का यह कहना ठीक है कि बोफोर्स मामले में भी प्रधानमंत्री जांच के दायरे में थे, लेकिन उन्होंने कामकाज बंद नहीं किया था। वैसे भी सात सदस्यों वाली लोकपाल बेंच के पूरे मामले को परखने के बाद ही किसी मामले में जांच के आदेश दिए जाएंगे। इस पूरे मामले में सरकार का यह भी कहना है कि लोकपाल के दायरे में आने की वजह से प्रधानमंत्री का पद महत्वहीन हो जाएगा। देश की जनता यह जानना चाहती है कि क्या भ्रष्टाचार से जुड़े कई अहम मसलों पर प्रधानमंत्री कार्यालय की चुप्पी की वजह से इस पद की अहमियत कम नहीं हुई? लोकतंत्र में शीर्ष पद पर बैठा व्यक्ति अगर भ्रष्टाचार में शामिल है तो क्या उसकी जांच नहीं की जा सकती? अगर ऐसा नहीं है तो क्या प्रधानमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच भी उनके मातहत कोई एजेंसी करेगी? समाज सुधारक अन्ना हजारे के आंदोलन को देश भर से मिले जनसमर्थन के आगे सरकार ने भले ही घुटने टेक दिए थे और लोकपाल बिल पर सरकार की तरफ से बनी सहमति के बाद जब अन्ना हजारे ने अनशन तोड़ा तो उस वक्त इस पूरे मसले पर सरकार की तरफ से वार्ताकार रहे कपिल सिब्बल को यह लोकतंत्र की जीत नजर आ रही थी, लेकिन कुछ दिन बाद ही सरकार के ये मंत्री लोकपाल संस्था की अहमियत पर सवाल खड़े करते नजर आ रहे थे। केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल का कहना था कि अगर गरीब बच्चों को स्कूल भेजे जाने की कोई व्यवस्था नहीं है या फिर गरीब के पास अस्पताल में दाखिल होने के लिए पैसे नहीं हैं तो इसमें लोकपाल क्या करेगा। मंत्री जी ने यह भी बयान दिया था कि अगर बात पीने के पानी या फिर शौचालय की व्यवस्था की हो तो इसमें लोकपाल के होने या नहीं होने से क्या फर्क पड़ेगा। सरकार को शायद यह समझने कि जरूरत नहीं है कि अगर देश में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा तो गरीब के बच्चे को बेहतर शिक्षा भी मिलेगी और इलाज भी बेहतर होगा। मौजूदा बजट में सरकार ने प्रारंभिक शिक्षा के लिए 21 हजार करोड़ रुपये का प्रावधान किया है और शिक्षा के लिए हजारों करोड़ रुपये के प्रावधान पहले भी किए जा चुके हैं, लेकिन आज भी अगर पढ़ाई-लिखाई के स्तर को लेकर अमीर गरीब में भेदभाव बना हुआ है तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? सामाजिक योजनाओं और विकास पर खर्च की जाने वाली धनराशि भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ती जा रही है और आम आदमी को इसका पूरा फायदा नहीं मिल रहा है तो क्या इसके लिए सरकारी तंत्र की जड़ों में फैला भ्रष्टाचार नहीं है? सवाल लोकपाल के दायरे में सिर्फ प्रधानमंत्री के पद को लाने का नहीं, बल्कि देश में सुशासन और पारदर्शिता के जरिए भ्रष्टाचार पर लगाम कसने का है ताकि देश का हर पिछड़ा तबका किसी सरकार या राजनीतिक दल के लिए खाली वोट बैंक भर न रह जाए। भ्रष्टाचार को लेकर सरकार की मंशा पर सवाल उठते रहे हैं और इस पूरे मसले पर सरकार के हर कदम उसकी सोची-समझी रणनीति का हिस्सा नजर आ रहे हैं। अब सरकार का यह भी कहना है कि संसद में किए जाने वाले भ्रष्टाचार की जांच लोकपाल नहीं कर सकेगा। सरकार का कहना है कि हम सांसदों को खुद पर नियंत्रण के लिए प्रेरित कर सकते हैं। अगर वाकई सांसद खुद से प्रेरित हो रहे होते तो हमारे कुछ सांसद संसद में सवाल पूछने के बदले कैमरे के सामने पैसे लेते नहीं दिखाई देते। सांसद निधि का दुरूपयोग या फिर संसद में किसी सांसद का भ्रष्ट व्यवहार लोकपाल के दायरे में क्यों नहीं होना चाहिए? इसमें कोई दो मत नहीं कि देश में आम जनता की सबसे ज्यादा उम्मीदें न्यायपालिका पर टिकी है और पिछले कुछ समय से न्यायपालिका की निष्पक्षता ने आम जनता को कहीं न कहीं राहत भी दी है। सरकार उच्च न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे से बाहर रखना चाहती है। दरअसल, मसला लोकपाल के जरिए प्रधानमंत्री, सांसद या न्यायपालिका की अहमियत को कम करने या फिर उनके कामकाज में अड़चन डालने का नहीं, बल्कि देश की शीर्ष संस्थाओं में पारदर्शिता लाने का है ताकि बड़े से बड़े पद पर बैठा व्यक्ति भी जांच के दायरे में हो। भ्रष्टाचार के मसले पर सरकार के कदम दिखावटी ज्यादा नजर आ रहे हैं। अभी कुछ दिनों पहले योजना आयोग देश की जनता से भ्रष्टाचार से निपटने को लेकर सुझाव मांगता नजर आ रहा था। लोकपाल ही नहीं, सीएजी और सीवीसी जैसी संस्थाओं को भी और ज्यादा प्रभावी बनाने की आवश्यकता है। यह बात ठीक है कि संविधान में कानून बनाने के लिए संसद सर्वोच्च है, लेकिन जब जनता की नुमाइंदगी करने वाले अपनी जिम्मेदारियों को ठीक से नहीं निभा रहे हों तो उन पर लगाम लगाने की जरूरत है। कुल मिलाकर भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार को ठोस कदम उठाने की ज़रूरत है, वरना देश की जनता इन मसलों पर एक बार फिर संप्रग सरकार को सवालों के कठघरे में खड़ा कर देगी। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)


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