हत्या के एक मामले को लेकर हरियाणा के पर्यटन एवं परिवहन मंत्री ओम प्रकाश जैन और मुख्य संसदीय सचिव जिले राम शर्मा को अपने-अपने पदों से इस्तीफा देना पड़ा है। इन दोनों ही राजनेताओं पर एक पूर्व सरपंच की हत्या का आरोप था। इन्होंने इस्तीफा मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के निर्देश पर दिया है। इनसे इस्तीफा इसलिए लिया गया ताकि मामले की जांच प्रभावित न होने पाए। पूरे मामले की तह में जाएं तो यह केवल हत्या का मामला नहीं है। आरोप यह है कि हत्या के मूल में रिश्वतखोरी का मामला है। पूर्व सरपंच कर्मसिंह के पुत्र राजिंद्र का आरोप था कि उनके पिता की हत्या इन दोनों राजनेताओं ने कराई थी। इनमें श्री शर्मा ने पुलिस में भर्ती कराने के लिए उनके पिता से 4.95 लाख रुपये की रिश्र्वत ली थी, जबकि श्री जैन ने परिवहन विभाग में भर्ती कराने के लिए उनके रिश्तेदार से साढ़े चार लाख रुपये लिए थे। दोनों ने न तो नौकरियां लगवाईं और न ही पैसे लौटाए। भारतीय राजनीति में पिछले तीन दशकों में जिस तरह के मामले उभर कर सामने आए हैं, उन्हें देखते हुए इन आरोपों से एकदम से इनकार नहीं किया जा सकता है। पिछले तीन दशकों का भारतीय राजनीति का इतिहास उठाकर अगर देखा जाए तो वह घपलों-घोटालों के आरोपों और जांचों से ही भरा हुआ है। हाल ही में पंजाब में भी कुछ राजनेताओं को अपने पदों से इसी कारणवश इस्तीफा देना पड़ा। वहां इसी वजह से मंत्रिमंडल का पुनर्गठन भी करना पड़ा। आरोप-प्रत्यारोप के दौर भी चले। केंद्र सरकार भी इससे अछूती नहीं रह गई है। ए. राजा, सुरेश कलमाड़ी और अब कनिमोझी.. ये तो अभी हाल के उदाहरण हैं। इसके अलावा भी भारतीय राजनीति ऐसे प्रकरणों से भरी पड़ी है। इतना ही नहीं, कुछ राजनेताओं पर अवैध संबंधों और कुछ पर निजी रंजिश में भी हत्या करवाने के आरोप लगाए जा चुके हैं। इनमें से कुछ तो सही भी साबित हो चुके हैं और अब संबंधित लोग सजा भी भुगत रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि लगाए जाने वाले आरोप हमेशा सही ही नहीं होते हैं। कई बार आरोप राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण लगाए जाते हैं और कई बार व्यक्तिगत रंजिश में भी। लेकिन यह बात भी नजरअंदाज नहीं की जानी चाहिए कि इतने शक्तिसंपन्न लोगों पर कोई सही आरोप लगाने के लिए भी संबंधित व्यक्ति को कई बार सोचना पड़ता है। इसकी वजहों में सिर्फ उनकी ऊंची पहुंच ही नहीं, बल्कि जटिल कानूनी प्रक्रियाओं से गुजरना और आरोप को सही साबित कर पाने में आने वाली मुश्किलें भी शामिल हैं। हरियाणा के इन राजनेताओं पर लगे आरोपों के बारे में फिलहाल कुछ भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि इन मामलों की अभी जांच चल रही है और जब तक जांच के परिणाम सामने न आ जाएं, तब तक खास कर इस मामले में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। इसके बावजूद, एक बात तो तय है कि आज देश की राजनीति में आपराधिक चरित्र वाले तत्वों का प्रवेश एक सामान्य सी बात हो गई है। ऐसे एक-दो नहीं, सैकड़ों मामले नजीर के तौर पर सामने रखे जा सकते हैं। चुनाव आयोग तथा सामाजिक संगठनों की तमाम कोशिशों के बावजूद भारतीय राजनीति में अभी भी अपराधी तत्वों का प्रवेश पूरी तरह बंद नहीं कराया जा सका है। कई तरह के कानूनी प्रावधान हो जाने के बावजूद वे चुनाव लड़ रहे हैं, विधायक एवं सांसद बन रहे हैं और यहां तक कि मंत्रिमंडल में भी शामिल हो जा रहे हैं। ऐसे लोग प्रदेशों और देश के महत्वपूर्ण पदों पर पहुंच रहे हैं और सार्वजनिक महत्व के फैसले कर रहे हैं, यह भारत जैसे बड़े लोकतंत्र के लिए शर्मनाक है। सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि राजनीति का अपराधीकरण रोकने के लिए किए गए सैकड़ों उपायों और कानूनी प्रावधानों का आखिर क्या फायदा है, जब इस तरह के लोगों को राजनीति की दुनिया में घुसने से रोका ही नहीं जा पा रहा है? क्या ये प्रावधान सिर्फ दिखावे के लिए हैं या इनकी कोई उपयोगिता भी है? जाहिर है, इन प्रावधानों के होते हुए भी अगर ऐसे तत्व राजनीति में आकर महत्वपूर्ण पद हासिल कर रहे हैं तो इसकी असली वजह यही है कि कानूनों को दरकिनार करने के रास्ते निकाल लिए जा रहे हैं। ऐसे रास्ते कैसे निकाले जा रहे हैं? क्या ये संबंधित पार्टियों में बड़े पदों पर बैठे राजनेताओं की जानकारी के बगैर हो रहा है? इस बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता, क्योंकि आज देश की राजनीति बहुत महत्वपूर्ण संक्रमण के दौर से गुजर रही है। भारतीय राजनीति में किसी के भी बारे में कोई बात छिपी हुई नहीं रह गई है। किसी अपराधी तत्व पर उसके ऊंचे रसूख के नाते सुबूतों के अभाव में कोई आरोप साबित न हो सका हो, यह अलग बात है, लेकिन उसकी असलियत की जानकारी सभी को है। थोड़ी देर के लिए अगर यह मान भी लिया जाए कि ऐसे लोग पार्टी या नेताओं को अपने बारे में सही जानकारी नहीं देते हैं, तो भी बड़े नेताओं को इस संबंध में उनकी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं किया जा सकता है। यह किसी एक मामले की बात नहीं है, लगभग सभी मामलों में ऐसा ही होता है। अपराध चाहे कैसा भी हो, करने वाला उसे छिपाने की ही कोशिश करता है। क्योंकि उसे सजा का भय हमेशा बना रहता है। वह अपना सच छिपाने की हर कोशिश करता है, लेकिन ऐसे मामलों में सही जानकारी देने वालों की भी कोई कमी नहीं है। छिपाने वाले अगर दस हैं तो बताने वाले हजार। इन बताने वालों में सिर्फ राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी ही नहीं, समाज के हित-अहित की परवाह करने वाले और कई बार भुक्तभोगी लोग भी शामिल होते हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि उनकी आवाज अक्सर दबा दी जाती है। आवाज दबाने का यह काम भी ऐसे ही नहीं किया जाता है। सच तो यह है कि आज के कई राजनेता इसे अपनी जरूरत मानते हैं। आज किसी पार्टी को साफ-सुथरी छवि वाले ईमानदार और चरित्रवान राजनेताओं की जरूरत नहीं रह गई है। भले लोगों को ही टिकट देने का दिखावा चाहे कितना भी कर लिया जाए, लेकिन असल में सबको ऐसे ही उम्मीदवार चाहिए जो किसी भी कीमत पर चुनाव जीत सकें। इसके अलावा, अगर कभी पार्टी सत्ता में आने से मामूली अंतर के कारण चूक रही हो, तो वह सभी सिद्धांतों को ताक पर रखकर किसी भी तरह के लोगों का समर्थन हासिल कर लेती है। चुनाव बाद होते गठबंधन इसके सबसे मजबूत प्रमाण हैं। बड़े राजनेताओं को देश और जनहित को ध्यान में रखते हुए इस सोच और प्रवृत्ति से उबरना होगा। उनका ध्यान सिर्फ सत्ता हासिल करना नहीं, बल्कि सत्य और सिद्धांतों की रक्षा पर भी होना चाहिए। अगर बड़े राजनेता इस नीति पर अमल नहीं करेंगे तो स्थितियां कितनी भयावह हो जाएंगी, इसका आकलन भी अभी नहीं किया जा सकता है। (लेखक दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं)
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