Thursday, June 16, 2011

आंदोलन के लिए लंबे संघर्ष की जरूरत


स्वामी रामदेव को संतों और अन्य समर्थकों के दबाव में बिना परिणाम अनशन तोड़ देना पड़ा। उनके अनशन के प्रति कांग्रेस के नेता चाहे जितना उपहास करें, अटपटे बयान दें, सार्वजनिक तौर पर असभ्य बेरुखी प्रकट करें इससे पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल तो बना ही है। रामदेव के समर्थक एवं विरोधी दोनों ही कांग्रेस पार्टी एवं सरकार के रवैये से क्षुब्ध हैं। बाबा के आंदोलन की ऐसी परिणति की किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। वस्तुत: देश की दशा बदलने की दिशा में सक्रिय लोगों के लिए रामदेव के आंदोलन की ऐसी दारुण परिणति एक सीख है। रामलीला मैदान का घटनाक्रम सत्ता की हिंसक शक्ति का एक क्रूर आचरण था। भारत ही नहीं, दुनिया के सभी आंदोलनकारियों व सत्याग्रहियों को इनका सामना करना पड़ता है। जब आप सत्ता के विरुद्ध सीना तानकर खड़े होंगे और उसके फुसलावे में नहीं आएंगे तो फिर आपको हिंसक शक्ति का प्रहार झेलना होगा। संसदीय लोकतंत्र की मजबूरी शासन को आरंभ में ऐसा प्रदर्शन करने को विवश करती है जिसमें वह विरोध के समाधान के लिए बातचीत की कोशिश करती है, किंतु उसके अंदर का शासक लंबे समय तक मान-मनौव्वल की इजाजत नहीं देता और उसके बाद वह विरोध को हर तरीके से कुचलने पर आमादा हो जाता है। किसी भी आंदोलन की पहचान उस समय बिना घबराए अहिंसक प्रतिरोध में है। देश इस समय भ्रष्टाचार, अपराध, महंगाई, पूंजीपतियों और सरकार की मिलीभगत से किसानों की जमीने हड़पने और धीरे-धीरे गांवों का अस्तित्व समाप्त करने की घृणित नीतियों का शिकार है और इन नीतियों के परिणामस्वरुप प्रकृति प्रदत्त विरासत यानी नदियां, जंगल और पहाड़ तक नष्ट हो रहे हैं। सच कहा जाए तो पूरा माहौल समग्र परिवर्तन के लिए व्यापक आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार कर चुका है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो भारत को इस समय एक नए आजादी के आंदोलन की आवश्यकता है। आज देशभर में छोटे-बड़े आंदोलन अनेक जगहों पर अलग-अलग तरीकों से हो रहे हंै। यह बात अलग है कि उनमें किसी को प्रचार मिलता है एवं किसी को नहीं। एक बड़े वर्ग के अंदर असंतोष इतना ज्यादा है कि जहां भी कोई व्यवस्था के विरुद्ध आवाज उठाता है, लोगों को उसमें उम्मीद नजर आने लगती है और वह उसी ओर खिंच जाता है। केवल लोकपाल कानून बनाने के लिए किए गए अन्ना हजारे के अनशन को मिले जनसमर्थन से इस बात को समझा जा सकता है। हालांकि बाबा रामदेव ने सत्याग्रह से पूर्व यात्राएं करके देश के साढ़े तीन सौ से ज्यादा जिलों में लोगों को अपने स्वाभिमान ट्रस्ट से सीधे जोड़ने की कोशिश की। हालांकि उनके आंदोलन का समर्थन करने वाले लोगों की संख्या इस अभियान के कारण भले ही कई गुना हो गई, लेकिन इतना व्यापक समर्थन भी दिल्ली पुलिस की कार्रवाई के सामने नहीं टिक पाई तो इसके कारणों की गहराई से पड़ताल करनी पड़ेगी। अन्ना के अनशन पर गहराई से नजर रखने वाले मानते हैं कि जिस तरह के लोग उनमें शिरकत कर रहे थे उसमें यदि वहां भी पुलिस कार्रवाई होती तो अन्ना सहित कुछ लोगों को छोड़कर उसकी अंतिम परिणति भी ऐसी ही हो सकती थी। यह प्रचारित किया जा रहा है कि पुलिस बाबा को मुठभेड़ में मार देती, लेकिन ऐसा कोई पागल और उन्मादियों की सरकार ही कर सकती थी। बाबा तो छोडि़ए, सुनियोजित तरीके से एक भी आंदोलनकारी की हत्या तक पुलिस नहीं कर सकती, क्योंकि इसके राजनीतिक परिणाम को कांग्रेस एवं सरकार दोनों समझती हैं। मान लीजिए पुलिस हत्या करने ही आई हो तो भी देश में बदलाव लाने के संकल्प से संघर्ष करने वालों को ऐसी किसी स्थिति से निपटने के लिए तैयार होना चाहिए। एक सत्याग्रही को विनम्रता से पुलिस अत्याचार के सामने भी निर्भीक होकर खड़ा होना चाहिए। अगर आपकी इतनी तैयारी नहीं है तो आप किसी आंदोलन को उसके निश्चित परिणाम तक नहीं ले जा सकते। वास्तव में इस समय कुशासन तथा राजनीतिक प्रतिष्ठानों में क्षरण से कहीं ज्यादा बड़ी त्रासदी इनके विरुद्ध चलने वाले आंदोलनों के पीछे लंबी दूरगामी सोच और इसके अनुरुप तैयारी का अभाव है। इस समय देश में जो भी आंदोलन, धरना, भूख हड़ताल, विरोध प्रदर्शन आदि हो रहे हैं उनकी आवश्यकता-उपयोगिता तो है, लेकिन दूरगामी सोच और उसके अनुसार लंबे संघर्ष की तैयारी न होने के कारण इनमें से ज्यादातर असफल हो रहे हैं। इन आंदोलनों में शामिल लोगों की वाणी में सरकार के विरुद्ध गुस्सा भले हो पर ऐसे अभियानों की सफलता को लेकर हताशा भी बढ़ रही है। आंदोलनकारी के रूप में चिह्नित और प्रसिद्धि प्राप्त लोगों की ओर ही नजर उठा लीजिए। इनमें से अधिकतर परिवर्तन के व्यापक लक्ष्य एवं उसके लिए लंबे संघर्ष की तैयारी के बारे में सोचते तक नहीं। किसी एक नीति, एक समस्या, अन्याय, प्राकृतिक आपदा से निपटने में सरकारी विफलता के विरुद्ध स्वाभाविक आक्रोश को ये तात्कालिक आंदोलन का रूप तो दे देते हैं, लेकिन उसे समग्र बदलाव के व्यापक लक्ष्य से जोड़ने एवं इच्छित परिणाम लाने तक डटे रहने का संकल्प पैदा नहीं कर पाते। इन आंदोलनों में विचार से ज्यादा भावावेश का आग्रह दिखता है। शासन की एक हिसंक कार्रवाई पूरे आंदोलन की रीढ़ तोड़ देती है। भट्टा पारसौल का उदाहरण लीजिए। मैंने खुद उस गांव की यात्रा के दौरान पाया कि पुलिस से डरे-सहमे ग्रामीण बार-बार यह कह रहे थे कि उनका तो आंदोलन से कोई लेना-देना ही नहीं था। इसका एकमात्र कारण आंदोलन के स्पष्ट लक्ष्य और उसके अनुरुप पूरी तैयारी का न होना है। सत्याग्रह के रूप में उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद की हिंसक शक्ति के सामने सशक्त प्रतिरोध का अहिंसक हथियार देने वाले महात्मा गांधी ने भी साफ कहा था कि सत्याग्रह के पूर्व उसकी पूरी तैयारी होनी चाहिए। उन्होंने तो यहां तक कहा है कि सत्याग्रह का नेतृत्व करने वालों को एक-एक सत्याग्रही के चरित्र, उसके संस्कार, उसकी पृष्ठभूमि, क्षमता आदि बातों की जानकारी होनी चाहिए और उसी अनुरूप उसकी भूमिका निर्धारित की जानी चाहिए। यानी जब पूरी तैयारी हो जाए तब आंदोलन का शंखनाद कीजिए। स्वामी रामदेव ने देशभर में भ्रष्टाचार, शासन की औपनिवेशिक नीति के विरुद्ध लोकजागरण में अहम भूमिका निभाई। हालांकि लंबे समय से स्थानीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर अनेक लोग एवं संगठन ऐसा कर रहे हैं, किंतु बाबा की लोकप्रियता के कारण इस समस्या की ओर ध्यान ज्यादा गया। व्यवस्था से असंतुष्ट एवं बदलाव की इच्छा रखने वालों के व्यापक समर्थन से कोई भी उत्साहित हो सकता था, किंतु इन समर्थकों को आंदोलनकारी-सत्याग्रही मान लेना व्यावहारिक नहीं होगा। वस्तुत: लोकजागरण के समानांतर संघर्ष की तैयारी का अभियान जरूरी है। इसमें अहिंसक संघर्ष करने वालों को शासन के प्रलोभन से लेकर दमन तक अपने रुख पर कायम रहने का संकल्प पैदा करने की आवश्यकता होती है। इसके लिए उचित प्रशिक्षण अनिवार्य है। आतंरिक रूप से तैयार आंदोलनकारी के सामने पूरे देश की फौज भी उतार दी जाए तो वह घबराएगा नहीं। वह शांति से अपनी गिरफ्तारी देगा और रिहा होने के बाद फिर आंदोलन में शामिल हो जाएगा। ऐसे आंदोलनकारियों का समूह ही किसी आंदोलन को सफलता की मुकाम पर ले जा सकेगा। देश की दुर्दशा एवं आंदोलनों के ऐसे हश्र को देखते हुए कुछ लोग कह रहे हैं कि भारत में अब लोकजागरण, देशनिर्माण एवं संघर्ष तीनों मोर्चे पर एक साथ काम करना होगा। लोगों को बताया जाए कि भारत की ऐसी दुर्दशा क्यों है और इससे निकलने का रास्ता क्या है? इसके सत्ता के अन्याय के विरुद्ध संघर्ष की प्रेरणा भरनी होगी। संघर्ष के पूर्व उसकी पूरी तैयारी जरूरी है ताकि किसी भी परिस्थिति में आंदोलनकारी न भयभीत न हों, धैर्य न खोएं और हिंसक न हों। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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