खालिस्तान लिबरेशन फोर्स का खूंखार आतंकी देविंदर पाल सिंह भुल्लर की दया याचिका राष्ट्रपति द्वारा खारिज किए जाने के बाद उसकी मौत की सजा माफ करने को लेकर एक बार फिर राजनीतिक पाखंडियों ने अपना छाती धुननी शुरू कर दिया है। राजनीतिक दलों द्वारा भुल्लर को माफी देने के लिए कोहराम मचाना इस बात का संकेत है कि राजनीतिक दल अपने सियासी फायदे के लिए किसी भी हद तक गिरने को तैयार बैठे हैं। पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भुल्लर की सजा को आजीवन कारावास में बदलने की वकालत की है वहीं शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी और सत्तारूढ़ अकाली दल द्वारा भुल्लर की सजा के मामले में प्रधानमंत्री से हस्तक्षेप करने की मांग की गई है। देखा जाए तो इस तरह का राजनीतिक प्रपंच और मानसिक दिवालियापन सिर्फ इसलिए किया जा रहा है ताकि महज कुछ दिनों में होने वाल पंजाब विधानसभा चुनाव में लाभ उठाया जा सके। यह बहुत विचित्र लगता है कि ये दोनों ही राजनीतिक दल वाहे गुरु के सुझाए रास्ते पर चलने की बात करते हैं और राष्ट्रद्रोहियों के आगे न झुकने की गाल भी बजाते हैं, लेकिन उन्हें इस बात का तनिक भी ज्ञान नहीं है कि वे जिस आतंकी के गुनाहों को माफ करने की राजनीतिक धमा-चौकड़ी मचाए हुए हैं वह कोई साधारण अपराधी नहीं, बल्कि दुर्दात आतंकी और देशद्रोही है और उसने सैकड़ों बेगुनाहों का खून बहाया है। उसके अपराध की गंभीरता को देखकर ही देश के सबसे बड़े न्यायालय ने फांसी की सजा मुकर्रर की है। राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल भी उसकी क्षमादान याचिका खारिज कर चुकी हैं। राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका खारिज किए जाने के बाद भारतीय संविधान में मौत की सजा पाए किसी अपराधी को अपने बचाव के लिए कोई रास्ता नहीं बचता है। यह जानने के बावजूद भी अगर राजनीतिक दल देविंदर पाल सिंह की माफी की आड़ में जनमानस की भावनाओं को उभारकर सियासी फायदा समेटने का जुगाड़ बांध रहे हैं तो यह उनकी कायराना सियासत ही समझी जाएगी। आतंकी भुल्लर का अपराध कोई सामान्य श्रेणी का नहीं है और न ही वह कोई इंकलाबी मसीहा है जो उसके पक्ष में आवाज बुलंद की जा रही है। उस पर पंजाब के पूर्व एसएसपी सुमेंध सिंह सैनी और पूर्व युवक कांग्रेस अध्यक्ष एमएस बिट्टा के खिलाफ आतंकी हमले की साजिश रचने का आरोप है। सियासी मानवतावादियों को ध्यान रखना चाहिए कि इस हमले में कई निर्दोष लोगों की जानें भी जा चुकी हैं। यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि दया याचिकर्ताओं को न्यायालय द्वारा उचित प्रक्रिया अपनाकर ही मौत की सजा सुनाई जाती है। ऐसा नहीं है कि न्यायालय किसी आरोपी को अपनी बेगुनाही साबित करने का भरपूर मौका नहीं देता है। अगर देविंदर पाल सिंह भुल्लर न्यायालय में अपनी बेगुनाही साबित नहीं कर पाया तो इसके लिए उसका देशद्रोहात्मक कृत्य ही जिम्मेदार है। यह सब जानने के बाद भी अगर सियासतदानों द्वारा दिखावटी तरीके से भुल्लर को माफ करने की गुहार लगाई जा रही है तो उन्हें यह बताना ही होगा कि जिन निर्दोष लोगों के खून बहाने का अपराध भुल्लर ने किया है आखिर उसका हिसाब कौन देगा? इस दुर्दात खालिस्तानी आतंकी को 2001 में फांसी की सजा सुनाई गई थी और इसने 14 जनवरी, 2003 को राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका पेश की, लेकिन त्रासदी यह है कि भुल्लर की दया याचिका 27 अन्य याचिकाओं के साथ नार्थ ब्लाक में लंबे समय तक धूल फांकती रही। मामला तब तूल पकड़ा जब भुल्लर ने मानसिक अवसाद से पीडि़त होने की गुहार लगाकर सुप्रीम कोर्ट से क्षमादान याचिका पर जल्द सुनवाई के लिए दरख्वास्त लगाई। असाधारण बिलंब से दुखी होकर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा कि मृत्युदंड या आजीवन कारावास प्राप्त अपराधियों की दया याचिकाओं पर फैसला करने में इतना विलंब क्यों हो रहा है? संप्रग सरकार के पास फिलहाल इस प्रश्न का कोई सार्थक जवाब देते नहीं सूझ रहा है। देश के गृहमंत्री को यह ज्ञान बांटते हुए सुना गया कि वर्तमान नियमों में दया याचिकाओं पर निर्णय लेने की कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है। गृहमंत्री से पूछा जाना चाहिए कि इस तरह की जुगाली आखिर कितने दिन तक चलेगी। अगर समय सीमा निर्धारित नहीं है तो सरकार क्यों नहीं कानून बनाकर समय सीमा निर्धारित कर रही है? क्या इसके लिए भी किसी और के सिर ठीकरा फोड़ने की तैयारी की जा रही है। जिस व्यक्ति को फांसी की सजा मुकर्रर हो और उसके बचाव के सारे रास्ते भी बंद हो चुके हों, ऐसी स्थिति में उस आरोपी को हर रोज मरना पड़ता है जो फांसी से भी बदतर है। इसे जायज नहीं ठहराया जा सकता है। इस बारे में यह भी उचित नहीं है कि अपनी सियासत की गणित सुधारने के लिए ऐसे लोगों को दीर्घकाल तक मौत के जबड़े में फंसाए रखा जाए। माना कि ऐसे दुर्दात अपराधियों के प्रति किसी प्रकार की सहानुभूति नहीं होनी चाहिए और न ही वे इसके हकदार हैं, लेकिन इस बात का ध्यान तो रखना ही चाहिए कि उन आरोपियों के परिजनों पर क्या गुजरती-बीतती होगी। देखने में यही आ रहा है केंद्र की संप्रग सरकार ने दया याचिकाओं को राजनीति के भंवर में फंसा रखा है और स्वार्थपूर्ण राजनीति कर रही है। अगर ऐसे में देश के राजनीतिक दल और तमाम सामाजिक संगठन फांसी की सजा पाए आरोपियों को तत्काल फांसी देने की मांग करते हैं तो इसे अनुचित कैसे कहा जा सकता है? कांग्रेस के अतिरिक्त सभी राजनीतिक दल और पूरा देश चाहता है कि संसद भवन को निशाना बनाने वाले आतंकी अफजल गुरु को जल्द से जल्द फांसी हो जिसे सरकार द्वारा अनसुना किया जा रहा है। गौरतलब है कि अफजल गुरु को 20 अक्टूबर, 2006 को फांसी की सजा दी जानी थी पर उसकी पत्नी द्वारा दया याचिका दाखिल किए जाने के बाद मामला खटाई में पड़ गया। कांग्रेस के लोग दलील दे रहे हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के मामले में तीन लोगों की सजा संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु के मामले से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। सवाल यह नहीं है कि अफजल गुरु अथवा राजीव गांधी के हत्यारों में से किसे फांसी पहले दी जाए और किसे बाद में, बल्कि सरकार की नीति और नियत की है। संविधान में यह कहीं नहीं लिखा है कि किसी देशद्रोही को फांसी देने के लिए क्रमबद्धता को आधार बनाया जाए, लेकिन आतंकवाद से लड़ने का कोरा बहाना गांठने वाले गृहमंत्री क्रमबद्धता की ही पूंछ पकड़े बैठे हैं। सच तो है कि केंद्र सरकार अफजल मामले में सियासत की आग सुलगाकर उस पर सियासी रोटी सेंकना चाहती है। संप्रग सरकार 2004 से ही सत्ता में है और अब तक उसे सात साल से ऊपर होने जा रहा है, लेकिन किसी की भी समझ से परे है कि वह अभी तक एक भी लंबित दया याचिकाओं पर कोई निर्णय क्यों नहीं ले सकी है। अगर इसके पीछे कोई ठोस तर्क नहीं है तो मतलब साफ है कि सरकार दया याचिकाओं पर विचार करने से डर रही है। सत्ता में बैठे कुछ लोग यह प्रचारित करने में भी जुटे हैं कि अगर अफजल गुरु को फांसी दी गई तो घाटी में एक बार फिर उबाल आ जाएगा। पाकिस्तान से रिश्ते खराब हो जाएंगे। बातचीत पटरी से उतर जाएगी और न जाने कौन-कौन-सी बला आ जाएगी। कुछ ऐसा ही कुतर्क अकाली दल और पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष अमरिंदर सिंह जैसे लोग भुल्लर की फांसी पर भी दे सकते हैं। इस तरह के विचारों को पोषने वालों से पूछा जाना चाहिए कि वे इस तरह की परोक्ष धमकी भरा कुतर्क देकर आखिर किसको डराने की कोशिश कर रहे हैं। अगर वाकई में संप्रग सरकार आतंकियों को सबक सिखाना चाहती है तो उसे बिना देर किए दया याचिकाओं पर तत्काल निर्णय लेना चाहिए और क्रमबद्धता के तर्क को खूंटी पर टांगकर भुल्लर और अफजल जैसे आतंकियों को फांसी की शूली पर चढ़ा देना चाहिए। इन देशद्रोहियों की फांसी देने से सरकार और देश की कानून व्यवस्था के प्रति लोगों का विश्वास बढ़ेगा। अन्यथा यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि सरकार आतंकवाद पर अपना उल्लू सीधा करना चाहती है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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