Wednesday, June 1, 2011

छल-कपट का नया ठिकाना


लेखक एचआर भारद्वाज को राज्यपाल बनाए रखने से कांग्रेस को भारी राजनीतिक नुकसान होने की आशंका जता रहे हैं...
कर्नाटक के राज्यपाल के रूप में हंसराज भारद्वाज ने पिछले एक वर्ष में जैसा आचरण किया है उसे देखते हुए किसी को इस पर संदेह नहीं होना चाहिए कि उन्होंने बेंगलूर के राजभवन को साजिश, कपट और शरारत का गढ़ बना दिया है और ऐसा करते हुए वह राज्य में संविधान और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सबसे अधिक क्षति पहुंचाने वाले व्यक्ति बन गए हैं। उन्होंने जो हथकंडे अपनाए हैं वे किसी अधकचरे वकील द्वारा जिरह में अपनाए जाने वाले तौर-तरीकों से मिलते-जुलते हैं। इससे भी अधिक विचित्र यह है कि जब-जब उनके ये तौर-तरीके असफल हो जाते हैं तो उन्हें पलटी मारने में तनिक भी देर नहीं लगती। सीधे शब्दों में कहा जाए तो हंसराज भारद्वाज ने अपने इस आचरण से उस पद की गरिमा ही गिराई है जिस पर वह आसीन हैं। उनके पिछले रिकार्ड को देखिए। गत अक्टूबर में जब 11 भाजपा विधायकों ने मुख्यमंत्री के खिलाफ बगावत कर सरकार से समर्थन वापस लेने की घोषणा की तो उन्होंने येद्दयुरप्पा से विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए कहा। यद्यपि उन्हें विधानसभा स्पीकर को यह आदेश देने का अधिकार नहीं था कि उन्हें किस तरह काम करना चाहिए, लेकिन फिर भी भारद्वाज के इस निर्णय को स्वीकार किया गया। इसके बाद जब येद्दयुरप्पा ने बहुमत साबित कर दिया तो उन्होंने विश्वास मत को धोखाधड़ी की संज्ञा दी और राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर दी। उस समय सभी इससे अवगत थे कि विधानसभा अध्यक्ष द्वारा 16 विधायकों की सदस्यता रद करने का फैसला एक बड़े कानूनी मसले का रूप ले लेगा-पहले उच्च न्यायालय में और फिर उच्चतम न्यायालय में। उच्च न्यायालय द्वारा स्पीकर के फैसले को सही ठहराने के बावजूद यह स्पष्ट था कि 16 विधायकों के भविष्य का फैसला अंतत: उच्चतम न्यायालय को ही करना है। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने हाल में जो फैसला दिया उसमें भाजपा विधायकों के संदर्भ में स्पीकर के फैसले को खारिज कर दिया गया। उच्चतम न्यायालय के फैसले का आधार यह था कि स्पीकर ने भाजपा विधायकों को अयोग्य ठहराने में प्रक्रिया का सही तरह पालन नहीं किया। पांच निर्दलीय विधायकों के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय का कहना यह था कि उनका समर्थन वापस लेना दलबदल विरोधी कानून के दायरे में नहीं आता। उच्चतम न्यायालय ने जो कुछ कहा उससे राज्यपालों को किसी भी तरह निर्वाचित सरकारों को अस्थिर करने का अधिकार नहीं मिल जाता। पिछले अक्टूबर में भी जब भारद्वाज ने राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश की थी तो जो लोग सहमति में सिर हिला रहे थे वे भी इस पर अनिश्चित थे कि केंद्र सरकार उच्चतम न्यायालय के इस स्पष्ट अभिमत के बाद उनकी सिफारिश को कैसे मान सकती है जिसमें कहा गया है कि राज्यपालों को यह अधिकार नहीं है कि वे किसी सरकार के बहुमत का निर्धारण करें। अगर भारद्वाज को कुछ संदेह भी था तो उन्हें अदालतों के निर्णय का इंतजार करना चाहिए था। बोम्मई मामले में उच्चतम न्यायालय ने पहला और सबसे बुनियादी सिद्धांत यह सामने रखा था कि किसी सरकार के बहुमत अथवा अल्पमत में होने का फैसला सदन के भीतर ही हो सकता है, राजभवन में नहीं। सौभाग्य से केंद्र सरकार का संचालन करने वालों ने भारद्वाज की तुलना में बेहतर समझ दिखाई और उन्होंने उनकी सिफारिश अस्वीकार कर दी। भारद्वाज ने फिर पलटी मारी और येद्दयुरप्पा से 14 अक्टूबर को विश्वास मत हासिल करने के लिए कहा। मुख्यमंत्री ने उनकी सिफारिश पर अमल किया और विश्वास मत जीत लिया। 2011 की शुरुआत में भारद्वाज फिर अपने रंग में आ गए। येद्दयुरप्पा पर लगे कुछ आरोपों ने भारद्वाज को विपक्षी नेता की तरह आचरण करने का अवसर प्रदान कर दिया। चूंकि भारद्वाज ने विधायकों के निष्कासन पर आपत्ति जताई थी इसलिए 26 विधायकों के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से वह अपना पक्ष सही सिद्ध हुआ मान सकते हैं, लेकिन यह साफ है कि राज्यपाल ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को एकदम गलत तरीके से समझा और राज्य में एक बार फिर राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर अपने अधिकारों का अतिक्रमण किया। जिस तरह पिछली बार केंद्र सरकार ने उनकी सिफारिश पर अमल करने का कोई तुक नहीं पाया था उसी तरह इस बार भी भारद्वाज की सिफारिश खारिज हो गई। हैरत की बात है कि भारद्वाज एक बार फिर पलटी मारने में तनिक भी नहीं सकुचाए। इससे अधिक हास्यास्पद और क्या होगा कि मंगलवार को कर्नाटक में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश करने वाले राज्यपाल ने गुरुवार को एक सार्वजनिक समारोह में कहा कि येद्दयुरप्पा को भारी समर्थन हासिल है। केंद्र सरकार को गौर करना चाहिए कि भारद्वाज संविधान और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को क्षति पहुंचा रहे हैं। जहां तक कांग्रेस का संबंध है तो उसे भारद्वाज सरीखे एक पक्षपाती नेता को राज्यपाल बनाए रखने की भारी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ सकती है, जो सर्वथा उचित तरीके से निर्वाचित एक मुख्यमंत्री को अस्थिर करने में लगे हैं। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

No comments:

Post a Comment