Wednesday, June 15, 2011

भटकी हुई रणनीति


लेखक भ्रष्टाचार के खिलाफ सिविल सोसायटी के आंदोलन के प्रति केंद्र के रवैये में खामी देख रहे हैं...
अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के अनशन-आंदोलन के चलते केंद्र सरकार भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ कमर कसती अवश्य दिख रही है, लेकिन उसके द्वारा उठाए गए कदमों से अभी न तो अन्ना संतुष्ट दिख रहे हैं, न बाबा और न ही आम जनता। यही कारण है कि जहां बाबा रामदेव अनशन जारी रखे हुए हैं वहीं अन्ना हजारे भी इस अल्टीमेटम पर कायम है कि यदि 15 अगस्त तक लोकपाल विधेयक पारित नहीं हुआ तो वह 16 अगस्त से फिर अनशन पर बैठेंगे। अब केंद्र सरकार यह भी संकेत दे रही है कि वह इन दोनों अनशनकारियों के दबाव में नहीं आएगी। बाबा रामदेव द्वारा संचालित ट्रस्टों की जांच कराने के साथ ही केंद्र सरकार यह भी संकेत दे रही है कि वह अन्ना हजारे और उनके साथियों के प्रति कठोर रवैया अपनाएगी। केंद्र सरकार से यह गुहार लगाई जा रही है कि वह बाबा रामदेव का अनशन समाप्त कराए, लेकिन वह मौन साधे हुए है। नि:संदेह भारतीय संविधान इसकी इजाजत नहीं देता कि सिविल सोयायटी सरकार को अपने मनमाफिक कानून बनाने के लिए बाध्य करे। यह काम तो संसद का है। यह बात बाबा रामदेव ओर अन्ना हजारे, दोनों ही समझते हैं, लेकिन इस समय वे केंद्र सरकार पर दबाव बनाए रखना चाहते हैं। शायद दोनों यह मानकर चल रहे हैं कि पहले की भांति या तो सोनिया गांधी या फिर मनमोहन सिंह कोई ऐसा आश्र्वासन देने के लिए तैयार हो जाएंगे जिससे पलटना उनके लिए आसान न हो और यदि वे ऐसा करेंगे तो उनकी साख पर बन आएगी। अन्ना हजारे ने इस वर्ष अप्रैल में जब पहली बार दिल्ली में जंतर-मंतर पर अनशन किया था तो सोनिया गांधी ने एक हद तक उनका समर्थन किया था। अब वह चुप्पी साधे हुए हैं तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह आक्रामक रूख प्रदर्शित किए हुए हैं। प्रधानमंत्री के अनुसार रामलीला मैदान में मध्य रात्रि को दिल्ली पुलिस की ओर से रामदेव और उनके समर्थकों के खिलाफ कार्रवाई जरूरी हो गई थी, जबकि इसी कार्रवाई के चलते केंद्र सरकार आम जनता और विपक्षी दलों के निशाने पर है। सच तो यह है कि केंद्र सरकार के लिए इस कार्रवाई को जायज ठहराना महंगा पड़ रहा है, लेकिन वह अपने रवैये पर अड़ी है। बेहतर हो कि वह अडि़यल रवैया छोड़कर इस पर विचार करे कि अन्ना हजारे या रामदेव को अनशन करने की जरूरत क्यों पड़ी? अन्ना हजारे का पिछला अनशन जब समाप्त हुआ था तब केंद्र सरकार की किरकिरी जरूर हुई थी, लेकिन आम जनता को इससे संतुष्टि मिली थी कि सरकार सिविल सोसायटी से मिलकर लोकपाल विधेयक का मसौदा बनाने के लिए तैयारहो गई। जब बाबा रामदेव ने काले धन के मुद्दे पर अनशन करने की ठानी तो केंद्र सरकार ने उन्हें मनाने के लिए चार वरिष्ठ मंत्रियों को एयरपोर्ट भेज दिया। सरकार चाहती तो उन्हें इतना महत्व दिए बगैर उनसे वार्ता कर सकती थी। बाद में इसी सरकार ने रामदेव और उनके समर्थकों को रामलीला मैदान से खदेड़ने के लिए रात में पुलिस भेज दी। वैसे बाबा रामदेव का अनशनतमाम देशवासियों के गले नहीं उतर रहा है। अगर उनके समर्थकों और अनुयायियों को छोड़ दिया जाए तो तमाम लोग ऐसे हैं जो उन्हें केवल योगाचार्य के रूप में देखते हैं। वे यह सवाल उठा रहे हैं कि आखिर एक योगगुरु भ्रष्टाचार के विरुद्ध अनशन क्यों कर रहा है? कुछ लोग उनकी अकूत संपदा का भी राज जानना चाहते हैं। जहां रामदेव की साख सवालों के घेरे में आ गई है वहीं गांधीवादी समाजेसवी अन्ना हजारे की छवि साफ-सुथरी है। सरल-सादगीपूर्ण जीवन बिताने के कारण जब वह भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन पर बैठे तो जो हुजूम उनके समर्थन में आया उसमें सभी तबके के लोगों के अलावा बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी वर्ग भी था। बाबा रामदेव के समर्थकों में भी बुद्धिजीवी हैं, लेकिन उनके ज्यादातार समर्थक उनके वे अनुयायी हैं जो उनकी विशेष जीवनशैली से प्रभावित हैं। चूंकि वह संन्यासी हंै लिहाजा तमाम हिंदू संत भी उनके साथ है। भाजपा और संघ के नेता भी उनका समर्थन कर रहे हैं। अब तो संघ और भाजपा के नेता बाबा रामदेव के समर्थन में खुलकर सामने भी आ गए हैं। बाबा की संघ और भाजपा नेताओं से करीबी के चलते सरकार को यह प्रचारित करने में आसानी हो रही है कि उनके अनशन-आंदोलन के पीछे आरएसएस का हाथ है। कांग्रेस की नजर में बाबा अनशन के जरिये संघ-भाजपा की राजनीति कर रहे हैं। अशोक सिंघल और सुषमा स्वराज जिस तरह बाबा रामदेव से मिलने हरिद्वार गए और वहां जाकर उन्होंने उनकी वकालत की उससे इसमें संदेह नहीं रह गया कि उनके अनशन-आंदोलन के पीछे संघ और भाजपा का हाथ है। जनता के बीच यह भी संदेश गया है कि बाबा रामदेव भ्रष्टाचार विरोधी अपने अनशन के जरिये कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करना चाहते हैं। वैसे केवल कांग्रेसी ही भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं है और न ही सिर्फ कांग्रेस भ्रष्टाचार की अनदेखी कर रही है। यही काम भाजपा नेता भी कर रहे हैं और वे भी भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हैं। भाजपा बाबा रामदेव का साथ तो खुलकर दे रही है, लेकिन वह अन्ना हजारे का समर्थन नहीं कर रही है। चूंकि अन्ना हजारे का आंदोलन गैर राजनीतिक है इसलिए आम जनता के बीच उनकी साख अधिक है। केंद्र सरकार बाबा रामदेव के दबाव से तो मुक्त होती दिख रही है, लेकिन वह अन्ना हजारे के दबाव का सामना शायद ही कर पाए। अन्ना हजारे द्वारा सरकार पर जो दबाव बनाया जा रहा है उसे गैर जरूरी नहीं कहा जा सकता। यह अन्ना हजारे के दबाव का ही नतीजा है कि सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ सक्रिय दिख रही है। इस पर बहस हो सकती है कि 15 अगस्त तक लोकपाल विधेयक पारित करने के लिए अल्टीमेटम देना कितना सही है, लेकिन इससे इंकार नहीं कि केंद्र सरकार पर मजबूत लोकपाल के निर्माण के लिए दबाव बनाना जरूरी है। यदि केंद्र सरकार अपने अहं की खातिर अन्ना की अनदेखी करती है और उनके खिलाफ बाबा रामदेव की तरह आक्रामक रवैया अपनाती है तो न उसका भला होने वाला है और न ही देश का। इस मामले में उसे दंभ भरे रवैये का प्रदर्शन करने से बचना चाहिए। उसे यह अहसास हो जाए तो अच्छा है कि रामदेव के भक्तों को जिस तरह रामलीला मैदान से खदेड़ा गया वह शर्मनाक था। इस समय केंद्र के जो रणनीतिकार उसे सिविल सोसायटी से कड़ाई बरतने और रामदेव की अनदेखी करने का सुझाव दे रहे हैं वे गलती कर रहे हैं। ऐसा करने से आम जनता को सही संदेश नहीं जाएगा। केंद्र का अहंकारी रवैया विपक्षी दलों को आग में घी डालने का मौका देगा। केंद्र का दमनकारी रवैया उसकी लुटिया डुबो सकता है। उसे यह बात समझ लेनी चाहिए कि भ्रष्टाचार इस समय देश की विकराल समस्या है। कुछ ही दिनों में संसद का मानसून सत्र शुरू होने जा रहा है। सरकार को इस सत्र में तमाम काम निपटाने हैं। ऐसे में बेहतर होगा कि वह कम से कम अन्ना हजारे के साथ जो बातचीत चल रही है उसे पटरी पर बनाए रखे, जिससे आम जनता को यह आभास हो कि वह भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए वास्तव में गंभीर है।


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