Wednesday, May 25, 2011

नाकामी-बदनामी के दो बरस


लेखक भ्रष्टाचार और कुशासन के कारण संप्रग सरकार के दो वर्ष पूरे होने के जश्न को निरर्थक मान रहे हैं...
यदि 22 मई को संप्रग सरकार के दो वर्ष पूरे नहीं हो रहे होते तो उसके पास जश्न मनाने के बहाने आम जनता से कुछ भी कहने के लिए नहीं होता। चूंकि सरकार के कार्यकाल के दो वर्ष पूरे हो रहे थे इसलिए जश्न मनाने की औपचारिकता पूरी करनी ही थी। यह जिस तरह पूरी की गई उससे स्वत: स्पष्ट हो जाता है कि जश्न मनाने का काम मजबूरी में किया गया। आखिर इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि कोई सरकार अपने कार्यकाल के दो वर्ष पूरे करे और इस मौके पर उसके नेता केवल डिनर करें। इस अवसर पर सरकार की ओर से 74 पेज की अपनी कथित उपलब्धियों की जो रपट जारी की गई उस पर यदि किसी ने गौर नहीं किया तो उसके लिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। वैसे भी अर्थव्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य, आधारभूत ढांचे, कृषि आदि के क्षेत्र में जो उपलब्धियां गिनाई गईं उनमें छिपी नाकामियां साफ नजर आती हैं। अपनी सरकार के दो वर्ष पूरे होने पर आयोजित समारोह में प्रधानमंत्री के इस कथन से कोई उत्साहित होने वाला नहीं है कि कुछ गलतियां हुई हैं, लेकिन सरकार उन्हें ठीक करने के लिए प्रतिबद्ध है और हताश होने का कोई सवाल नहीं उठता। यह अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री हताश नहीं हैं, लेकिन आम जनता की मनोदशा उनसे सर्वथा भिन्न है और इससे उन्हें न सही सोनिया गांधी को अवश्य अवगत होना चाहिए। संप्रग सरकार के दो वर्ष पूरे होने के अवसर पर आयोजित समारोह में सोनिया गांधी की ओर से भी यह कहा गया कि हम भ्रष्टाचार से लड़ेंगे और इस संदर्भ में जो कह रहे हैं वह करके दिखाएंगे। अब ऐसे वक्तव्य इसलिए दिलासा नहीं दे सकते, क्योंकि कांग्रेस के बुराड़ी महाअधिवेशन में ऐसी ही बातें की गई थीं और फिर भी भ्रष्टाचार से न लड़ने के संकेत दिए जाते रहे। काले धन के मामले में प्रवर्तन निदेशालय अथवा आयकर विभाग जब-जब सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उपस्थित होता है, तब-तब वह उसकी फटकार सुनकर बाहर आता है। काले धन के कुख्यात कारोबारी और सबसे बड़े कर चोर माने जाने वाले हसन अली के खिलाफ हो रही जांच यही बताती है कि कैसे किसी मामले की सही तरह से जांच नहीं की जानी चाहिए। संप्रग सरकार भ्रष्टाचार से लड़ने के चाहे जैसे दावे क्यों न करे, उसकी कार्यप्रणाली और भाव-भंगिमा यही बताती है कि या तो उसमें ऐसा करने की इच्छाशक्ति नहीं या फिर यह काम उसके वश में नहीं। भ्रष्टाचार विरोधी सोनिया गांधी के पांच सूत्रों पर विचार करने के लिए गठित मंत्री समूह अभी विचार-विमर्श करने में ही मशगूल है। प्रधानमंत्री का ताजा बयान यह भी बता रहा है कि सरकार अभी तक यह नहीं तय कर सकी है कि मंत्रियों और वरिष्ठ नौकरशाहों के विशेषाधिकार खत्म किए जाएं या नहीं? संप्रग सरकार के नीति-नियंताओं को यह अहसास होना चाहिए कि सरकार के साथ-साथ खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की प्रतिष्ठा दांव पर लग चुकी है और इसके लिए वही जिम्मेदार हैं, क्योंकि जब सुरेश कलमाड़ी मनमानी कर रहे थे तब उन्हें लिखित और मौखिक रूप से चेताया गया था। ऐसा ही काम ए.राजा की मनमानी के मामले में भी किया गया था, लेकिन उन्होंने उन्हें क्लीनचिट देने का काम किया। वह दागी पीजे थॉमस को भी तब तक क्लीनचिट देते रहे जब तक सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें सीवीसी की कुर्सी से जबरन उतार नहीं दिया। एंट्रिक्स-देवास घोटाला तो खुद प्रधानमंत्री कार्यालय की ही गफलत की देन था। सरकार में बैठे लोग यह स्वीकार नहीं करेंगे, लेकिन वास्तविकता यही है कि भ्रष्ट तत्वों के खिलाफ प्रधानमंत्री की अकर्मण्यता और निष्कि्रयता ने देश में हजारों कलमाड़ी और राजा पैदा कर दिए हैं। यदि प्रधानमंत्री अपने ही कार्यालय पर नियंत्रण नहीं रख पा रहे हैं तो फिर पूरी सरकार को कैसे नियंत्रित करेंगे? इस पर आश्चर्य नहीं कि अपने दूसरे कार्यकाल में वह अपने मंत्रियों पर और मंत्री अपने अमले पर लगाम लगाने में समर्थ नहीं दिख रहे हैं। इसका ताजा उदाहरण है पाकिस्तान को सौंपी गई भगोड़ों की सूची। गृहमंत्री पी. चिदंबरम की मानें तो इस सूची में गफलत के लिए सीबीआइ जिम्मेदार है। उन्होंने इस सूची के लिए अपनी आलोचना के जवाब में यह भी स्पष्ट किया कि सीबीआइ उनके तहत काम नहीं करती। यह शीर्ष एजेंसी प्रधानमंत्री के तहत काम करती है और उसके कुछ अधिकारियों ने तब शेखचिल्लियों को भी मात दे दी जब वे मियाद खत्म हो चुके वारंट को लेकर एक भगोड़े के प्र‌र्त्यपण के लिए डेनमार्क पहुंच गए। ऐसा तभी होता है जब शासन के शीर्ष पर बैठे लोग शासन करने की इच्छा खो देते हैं। ऐसे ही लोग जब मजबूरी में अपनी कथित कामयाबी का जश्न मनाते हैं तो यह कहते हैं कि हताश होने की जरूरत नहीं है, लेकिन जनता की मजबूरी यह है कि वह यह देख रही है कि अभी तक भ्रष्टाचार के खिलाफ जो भी कार्रवाई हुई है वह या तो न्यायपालिका या फिर विपक्ष के दबाव में ही हुई है। (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)

कांग्रेस का असंवैधानिक चरित्र


लेखक कर्नाटक के राज्यपाल हंसराज भारद्वाज के आचरण को वंशवादी कांग्रेसी परंपरा का प्रमाण बता रहे हैं...
कर्नाटक के राज्यपाल हंसराज भारद्वाज के सौजन्य से राज्य की भाजपा सरकार को अस्थिर करने की मुहिम क्या रेखांकित करती है? दक्षिण भारत में कर्नाटक ऐसा एकमात्र राज्य है जहां भाजपा की सरकार बनी है। भाजपा सरकार के गठन के बाद से ही कांग्रेसी राज्यपाल असंवैधानिक तरीके से जननिर्वाचित सरकार गिराने का प्रयास करते रहे हैं। महत्वपूर्ण संवैधानिक पद पर होते हुए भी भारद्वाज का आचरण दलगत राजनीति से ऊपर नहीं उठ पा रहा है। मुख्यमंत्री येद्दयुरप्पा को 223 सदस्यीय विधानसभा में 121 सदस्यों का समर्थन प्राप्त है। पूर्ण बजट पारित करने के लिए विधानसभा सत्र आहूत करना आवश्यक है, किंतु सत्र बुलाने की जगह राज्यपाल ने एक बार फिर केंद्र सरकार से भाजपा सरकार को बर्खास्त करने की संस्तुति भेज दी। हालांकि केंद्र सरकार ने राज्यपाल की सिफारिश को स्वीकार करने से इंकार कर दिया है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता है कि सब कुछ सामान्य हो गया है। जनवरी में राज्यपाल ने मुख्यमंत्री येद्दयुरप्पा के संवैधानिक अधिकारों की अनदेखी करते हुए उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने की अनुमति दी थी। पिछले वर्ष उन्होंने तीन दिनों में दो बार मुख्यमंत्री येद्दयुरप्पा को बहुमत साबित करने को कहा था। स्वाभाविक है कि राज्यपाल अपने बल पर ही जनता द्वारा निर्वाचित और बहुमत प्राप्त सरकार को निरंकुश तरीके से बर्खास्त करने पर आमादा नहीं हैं। उनका आचरण वंशवादी कांग्रेसी चाटुकारों की परंपरा के अनुरूप है, जिनके बीच एक वंश विशेष के प्रति स्वामिभक्ति साबित करने की होड़ लगी रहती है। भाजपा शासित अन्य प्रदेशों के साथ भी कांग्रेसनीत संप्रग सरकार का व्यवहार संघीय व्यवस्था के खिलाफ है। कांग्रेस ने गुजरात दंगों के बहाने गुजरात की भाजपा सरकार को बर्खास्त करने के लिए पर्दे के पीछे से मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ दुष्प्रचार अभियान की कमान संभाल रखी है। तीस्ता सीतलवाड, अरुंधति राय, अरुणा राय, मेधा पाटकर जैसे धरातल पर दिखने वाले मानवाधिकारी वस्तुत: उन भूमिगत सेक्युलरिस्टों के चेहरे हैं जो वोट बैंक की राजनीति के लिए भाजपा सरकार को उखाड़ फेंकना चाहते हैं। नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर बताने वाले सेक्युलरिस्टों को पिछले तीन विधानसभा चुनावों में करारी शिकस्त मिली है। प्रदेश की जनता ने लगातार तीसरी बार शासन की बागडोर नरेंद्र मोदी के हाथों में सौंपी है, जिनके सफल नेतृत्व में प्रदेश का अभूतपूर्व विकास हुआ है। समाज में खुशहाली और संपन्नता आई है, जिसमें हिंदू-मुसलमान बराबर के भागीदार हैं, किंतु कांग्रेसी आकाओं के संकेतों पर मोदी के खिलाफ काल्पनिक गड़े मुदरें को उखाड़ने का कुत्सित अभियान अबाधित चल रहा है। छत्तीसगढ़, हिमाचल, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, झारखंड की भाजपा सरकारों के साथ भी कांग्रेसनीत केंद्र सरकार का रवैया असहयोगात्मक रहा है। राज्य के विकास के लिए दी जाने वाली केंद्रीय सहायता में यह भेदभाव परिलक्षित होता है। कांग्रेस का यह आचरण संघीय ढांचे के प्रतिकूल होने के साथ संविधान की मूल भावना के भी खिलाफ है। कांग्रेस सत्ता के गुरूर में राज्यों के अधिकारों का हनन करती आई है। एसआर बोम्मई बनाम केंद्र सरकार मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि संवैधानिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत राज्यों के मुकाबले केंद्र को ज्यादा शक्तियां व अधिकार प्राप्त हैं, किंतु इसका आशय यह नहीं है कि केंद्र राज्यों को अपना पिछलग्गू माने। राज्यों का स्वतंत्र संवैधानिक अस्तित्व है..राज्यों को प्राप्त सीमाओं व अधिकारों के दायरे में राज्य सर्वोच्च हैं। यह स्थापित सत्य है कि राजनीतिक वैरशोधन के लिए सत्ता के नशे में कांग्रेस अपने संवैधानिक दायित्वों को ताक पर रखती आई है। भाजपानीत राजग सरकार के बाद केंद्रीय सत्ता में लौटते ही संप्रग सरकार ने राजग सरकार द्वारा नियुक्त सभी राज्यपालों को बर्खास्त कर दिया था। वस्तुत: कांग्रेस पूरे देश में केवल अपनी राजनीतिक विचारधारा का वर्चस्व चाहती है। राज्यपालों की बर्खास्तगी आदेश को उचित ठहराने के लिए तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने कहा था, उनकी बर्खास्तगी जरूरी थी, क्योंकि वे हमारी पार्टी की विचारधारा से अलग विचारधारा से संबंध रखते थे। इस कारण उनके लिए केंद्र से तालमेल बिठाना मुश्किल हो सकता था। यह कैसी मानसिकता है? क्या एकदलीय निरंकुशता स्वस्थ लोकतंत्र के हित में है? किंतु कांग्रेसी राज का यही सच है। इंदिरा गांधी के कार्यकाल में उनके विश्वासपात्र कुमार मंगलम ने प्रतिबद्ध न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका, जो केंद्र सरकार के प्रति हर हाल में प्रतिबद्ध हो, की वकालत की थी। इस विचार के कारण तब सर्वोच्च न्यायालय के तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की वरीयता की अनदेखी कर एक कनिष्ठ न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्त किया गया था। कुमार मंगलम, एचआर गोखले जैसे बुद्धिजीवी प्रतिबद्ध न्यायपालिका के साथ प्रतिबद्ध नौकरशाही की भी वकालत करते थे। उनके अनुसार कांग्रेस के दीर्घकालीन अस्तित्व के लिए संवैधानिक निकायों की पार्टी प्रतिबद्धता जरूरी थी। आपातकाल के दौरान संजय गांधी की मंडली का प्रिय नारा एक राष्ट्र, एक पार्टी और एक नेता था। वस्तुत: आपातकाल की घोषणा होने से पूर्व ही सत्ता के अवैध शक्ति प्रयोग और दमन के आधार पर ऐसी व्यवस्था स्थापित करने की पूरी कोशिश की गई थी। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा की मनोवृत्ति को बढ़ावा दिया। चाटुकारों ने यह नारा भी दिया कि जो इंदिराजी के हित में है, वही भारत के हित में है। इसीलिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के बावजूद 1975 में आपातकाल लगाकर उन्होंने निरंकुशता का परिचय दिया। अपनी अधिनायकवादी मनोवृत्ति का प्रदर्शन करते हुए उन्होंने विपक्ष को कालकोठरियों में कैद कर सदन का दोहन किया और कानून में मनोवांछित फेरबदल कर उसे अपने हितों के पोषण के अनुकूल बनाया। पार्टी और सरकार की मुखिया होने केअधिकार से उन्होंने अपनी मर्जी के अनुसार राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पद पर बिठाया या हटाया और अपने मंत्रिमंडल में भी जब-तब मंत्रियों के पदभार बदले। इसीलिए अपने निर्वाचन क्षेत्रों के प्रति अपने दायित्वों को भूलकर पार्टी नेताओं ने इंदिरा गांधी की चाटुकारिता को अधिक वरीयता दी। यह परंपरा बदस्तूर चली आ रही है। भारद्वाज का आचरण उसी मानसिकता से प्रेरित है। (लेखक राज्यसभा के सदस्य हैं)

क्या गुल खिलाएगी यूपी की सियासत!


जमीन अधिग्रहण का विरोध कर रहे भट्टा पारसौल गांव के किसानों पर पुलिस का दमनात्मक रवैया सुर्खियों में है। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने यहां पहुंचकर इस घटना की भयावहता को कमतर करने की सरकारी कोशिशों पर पानी फेर दिया है। पिछले नौ महीनों में यह दूसरी दु:खद घटना है, जहां यमुना एक्सप्रेस वे का विरोध कर रहे किसानों को पुलिस की बर्बरता का शिकार होना पड़ा है। उनका खून बहा है और घर से भागने की त्रासदी झेलनी पड़ी है। राहुल गांधी इन पीड़ित किसानों की आवाज बने हैं। उन्होंने पुलिस-ज्यादतियों को उजागर कर सरकार को कठघरे में खड़ा किया है और वाराणसी में भी पार्टी के राज्य सम्मेलन में उन्होंने किसानों की समस्याओं, गिरती कानून व्यवस्था और विकास के सवाल पर गांव-गांव जाने का ऐलान किया है। उनके इस अभियान का पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी समर्थन किया है। निश्चित रूप से कांग्रेस इन सवालों के जरिये अपनी आक्रामक और जन सरोकारी छवि बनाना चाहती है ताकि प्रदेश में हाशिये पर पड़ी पार्टी को मुख्य राजनीतिक भूमिका में लाया जा सके। इतना ही नहीं, प्रमुख विपक्षी दल सपा और भाजपा भी इन्हीं सवालों को अपने तरीकों से उठा रहे हैं और उनके निशाने पर भी बसपा सरकार ही है। ऐसे में क्या उत्तर प्रदेश का विकास, किसानों के सवाल और गिरती कानून व्यवस्था आगामी विधानसभा चुनाव में मुद्दे बनेंगे? कांग्रेस इन सवालों को लेकर जनांदोलन कर सकेगी? राहुल का मिशन 2012 कारगर होगा? ये सारे सवाल हैं। हमें याद है दादरी परियोजना को लेकर किसान आंदोलित थे और तत्कालीन सरकार उनके निशाने पर थी। उस समय भी जमीन कौड़ियों के भाव दिए जाने को लेकर सरकार आरोपों के घेरे में थी। आज भट्टा पारसौल के किसानों के सवाल भी कुछ वैसे ही हैं और वर्तमान सरकार दमन के जरिये उसे दबाना चाहती है। उनका गुस्सा सुश्री मायावती के खिलाफ चरम पर है। किंतु सरकार दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करने तथा पीड़ितों को न्याय दिलाने की जगह सचाई दबाने में लगी है। इसलिए सरकार के खिलाफ तेजी से माहौल बन रहा है, जिसका प्रतिकूल असर सरकार की छवि पर पड़ रहा है। बुंदेलखंड में कर्ज से परेशान किसान की आत्मदाह की घटना तथा भुखमरी से हुई कई मौतों ने आग में घी डालने का काम किया है। दादरी के किसानों के सवाल पर तत्कालीन मुलायम सरकार के प्रति उपजे आक्रोश के कारण ही 2007 के चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मायावती 70 में से लगभग 38 सीटें जीतने में सफल हुई थीं। सरकार विरोधी हवा के कारण ही उन्हें यह सत्ता मिली थी, उनको सपा से 4 प्रतिशत अधिक मत हासिल हुआ था। इस सफलता में निश्चित रूप से अन्य राजनीतिक समीकरणों की भूमिका रही होगी, किंतु पूर्ववर्त्ती सरकार के प्रति किसानों का गुस्सा ही अहम कारण था। इसीलिए उसे मेरठ, सहारनपुर और मुरादाबाद मंडलों से मुश्किल से आठ सीटें ही हासिल हुई थीं। आज मायावती भी इसी भंवर में फंस गई हैं। उनकी सरकार के काम- काज को लेकर चौतरफा निराशा है। कानून व्यवस्था और विकास के सवाल उसके गले की फांस बने हैं। वह अपने खिलाफ बने इस नकारात्मक माहौल को कैसे बदलती हैं और अपने वोट बैंक को सुरक्षित रखती है; यह यक्ष प्रश्न बना हुआ है। इस पर गौर किया जाना जरूरी है कि इतने बड़े पैमाने पर भूमि के अधिग्रहण की जरूरत क्यों पड़ रही है? एक सरकारी आंकड़े के अनुसार देश में वर्ष 1990-91 और 2007-08 के बीच खेती के रकबे में 21.4 लाख हेक्टेयर की कमी हुई है। उत्तर प्रदेश में भी तेजी से हो रहे शहरीकरण के कारण यह एक गंभीर चुनौती बनती जा रही है। वैसे भी यमुना एक्सप्रेस वे परियोजना को महज एक सड़क बनाने की योजना समझना बड़ी भूल होगी। इस परियोजना के तहत मॉल, व्यावसायिक कॉम्पलेक्स और रिहायशी कालोनियां बनाने के लिए जमीन दी जा रही है। इसके लिए इफरात में जमीन अधिग्रहण की जरूरत है। जाहिर है, निजी क्षेत्र के लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए यह सब किया जा रहा है। किसान उनके लिए जमीन देने को राजी नहीं हैं या इसके बदले में वे उचित मुआवजे की मांग रहे हैं। उनकी मांग पर विचार करने के बदले सरकार उनका दमन करती है। परेशान किसान प्रतिरोध में कानून अपने हाथों में लेने से गुरेज नहीं करते। भट्टा पारसौल की घटना इसी का जीता-जागता उदाहरण है। यद्यपि इस घटना के बाद राजनीतिक दलों ने भूमि अधिग्रहण कानून की समीक्षा और इसमें किसानों के हितों को तरजीह देते हुए व्यापक संशोधन की मांग की है। लेकिन असल मुद्दे को समझे बिना भूमि महज कानूनी संशोधन से टिकाऊ हल नहीं निकलने वाला है। यह सही है कि भट्टा पारसौल की घटना ने सियासत को गरमा दिया है। इस बीच इलाहाबाद हाईकोर्ट का सरकार से घटना की सीबीआई जांच के बारे में मंतव्य मांगना भी सियासी समीकरण को प्रभावित कर रहा है। तो क्या भट्टा पारसौल उत्तर प्रदेश की राजनीति में नई इबारत लिखने में कामयाब होगा? बुनियादी सुविधाओं समेत समग्र विकास और बेहतर कानून व्यवस्था के ये ज्वलंत मुद्दे जातियों के मकड़जाल में उलझी राजनीति को बिहार की तरह नई दिशा में अग्रसर कर पाएंगे? इन सवालों के जवाब के लिए पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के निहितार्थ को समझना होगा। जिनमें क्षेत्रीय गठबंधन की राजनीति ने दलों को सत्ता के शिखर पर पहुंचाने में मजबूत भूमिका निभाई है तो असम में विपक्ष के बिखराव का लाभ कांग्रेस को मिला है और वह तीसरी बार वहां सरकार में है। ये दोनों बिंदु उत्तर प्रदेश की राजनीति के लिए काफी अहम हैं। विपक्षी दलों को सोचना होगा कि अलग- अलग लड़कर क्या वे बसपा को सत्ता में आने का रास्ता साफ करेंगे अथवा असम से नसीहत लेंगे? वहां कांग्रेस भ्रष्टाचार को लेकर भारी मुसीबत में थी किंतु अगप-भाजपा में फूट के कारण वोट बंटे, जिसका फायदा कांग्रेस को मिला। इसके विपरीत केरल, तमिलनाडु, पुडुचेरी और . बंगाल में गठबंधन की सफल राजनीतिक मिसाल हमारे सामने है। उत्तर प्रदेश में सीधा मुकाबला सत्तारूढ़ बसपा और सपा के बीच है। भाजपा और कांग्रेस तीसरे और चौथे स्थान पर हैं। एक अनुमान के अनुसार राज्य में 20 फीसद आबादी अगड़ों की है, जिसमें से करीब 10 फीसद ब्राह्मण और 8 फीसद राजपूत हैं। भाजपा का मुख्य आधार अगड़ी आबादी ही है। दलितों की आबादी करीब 23 फीसद है, जिसके बड़े हिस्से पर बसपा का कब्जा है। आज बसपा जिस दलित-ब्राह्मण वोट बैंक के बल पर सत्ता में है, उसी गठजोड़ के आधार पर कांग्रेस ने सालों-साल राज किया था। नब्बे के दशक में भाजपा की जीत का एक बड़ा कारण सवर्णो के साथ-साथ अति पिछड़ा वोट बैंक पर उसकी गहरी पकड़ थी। पिछड़ों के नेता कल्याण सिंह अब उसके साथ नहीं हैं तो ब्राह्मण भी उससे कट गए हैं। कांग्रेस की कोशिश अगड़ी जातियों में सेंध लगाने के साथ ही साथ मुस्लिम दलित वोट बटोरने की है। राहुल गांधी की पूरी कोशिश खुद को दलित किसानों के हितैषी के रूप में पेश करने की है। दलितों के घर जाना, उनके घर खाना खाना तथा किसानों के बीच जाना कांग्रेस की रणनीति का हिस्सा है। इसके अलावा कांग्रेस मुसलमानों को अपने साथ जोड़ने में लगी है, जो अयोध्या कांड के बाद उससे बिखर गया था। उसे पता है कि प्रदेश में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 18 फीसद है जो 80 सीटों पर निर्णायक भूमिका में हैं और 125 विस सीटों पर उनका वोट प्रतिशत 15 फीसद के आसपास है। ऐसी स्थिति में भाजपा और कांग्रेस एक-दूसरे का वोट काटने में लग गई हैं। इसके विपरीत सपा यादव और मुस्लिम गठजोड़ के साथ सत्ता में रह चुकी है। मुसलमान जो पिछले चुनाव में उससे बिदक गए थे, अब उसके साथ रहे हैं। उधर, जाट नेता चौधरी अजित सिंह ने छोटे दलों को मिलाकर जनक्रांति मोर्चा नामक गठबंधन तैयार किया है। इसमेंपीस पार्टीऔरभारतीय समाज पार्टीजैसे दल शामिल हैं। इन दलों का भले ही जनाधार कम हो लेकिन दूसरे दलों का खेल बनाने-बिगाड़ने में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण होती है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रालोद भाजपा और कांग्रेस को नुकसान करती है तो पीस पार्टी उत्तर प्रदेश में सपा की परेशानी का सबब है। इसी तरह भारतीय समाज पार्टी बसपा का नुकसान करती है। इसीलिए सरकार के खिलाफ निर्णायक परिणाम के लिए धर्मनिरपेक्ष ताकतों को मतों के बिखराव को रोकने के लिए चुनावी रणनीति पर गंभीरता से सोचना चाहिए। यह सच है कि राहुल गांधी की सक्रियता से प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस की सक्रियता बढ़ी है। जनता कांग्रेस के बारे में सोचने लगी है किंतु पिछले ढाई दशक से सत्ता से बाहर रहने के कारण पार्टी का निचले स्तर तक प्रभावी संगठन नहीं हैं जो मतदाताओं को मतदान केंद्रों तक ला सकें। वहीं पार्टी चापलूसों से घिरी हुई है, जनाधारविहीन नेता आगे हैं तो भाई-भतीजावाद पार्टी को और कमजोर बना रहा है। राहुल गांधी की कोशिश भी इस संस्कृति को नहीं तोड़ पा रही है। वैसे अभी पार्टी ने गठबंधन की राजनीति अपनाई और सफल भी हुई। तो क्या राहुल गांधी के मिशन 2012 को पाने के लिए कांग्रेस उप्र में यही दांव आजमाएगी? इधर दो दशक में मतदाताओं ने हर चुनाव में सरकार बदलने की एक परिपाटी कायम की है। इसका कारण सरकारों का जनता की उम्मीदों पर खरा उतरना है। सत्तारूढ़ दल के खिलाफ वोटरों का गुस्सा उत्तर प्रदेश चुनाव में डिसाइडिंग फैक्टर रहा है। आज भी सरकार के कामकाज को लेकर आमजन में निराशा और आक्रोश है। अब विपक्ष इसे कैसे भुनाता है, यह देखना महत्त्वपूर्ण होगा।