Wednesday, June 1, 2011

राजनीति में कुनबापरस्ती


आरके धवन इंदिरा गांधी के समय से गांधी-नेहरू परिवार के अत्यंत करीबी माने जाते रहे हैं। राजीव गांधी के भी वह करीबी रहे, लेकिन सोनिया गांधी के अभ्युदय के बाद उनका दर्जा घटता गया और आजकल कांग्रेस कार्यकारिणी के विशेष आमंत्रित सदस्य भर रह गए हैं। पिछले दिनों उनका एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार प्रकाशित हुआ है, जिसमें उन्होंने राहुल गांधी को अपने पिता के समान रिश्तेदारों और मित्रों को महत्व देने में घातक परिणामों से सचेत किया है। उन्होंने कहा है कि मित्र और रिश्तेदार अपने को संभालने वाले व्यक्ति के समकक्ष समझकर आचरण करते हैं। उन्होंने राजीव गांधी के रिश्ते में भाई लगने वाले अरूण नेहरू, मित्र अरूण सिंह तथा कैप्टन सतीश शर्मा का नाम लेकर कहा है कि इन तीनों में से प्रथम दो को मंत्रिपरिषद में जूनियर मंत्री और शर्मा को राजीव गांधी ने सांसद बनाया। तीनों का व्यवहार ऐसा था, मानों वे ही प्रधानमंत्री हों। इसका अत्यधिक विपरीत प्रभाव वरिष्ठ मंत्रियों और उन कांग्रेसजनों पर पड़ा जो चाहे पद पर रहे हों या हाशिए पर, सदैव कांग्रेस के प्रति निष्ठावान रहे हैं। धवन का यह साक्षात्कार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा पार्टी और सरकार में समन्वय के लिए एक समिति बनाए जाने के बाद आया है। इस समिति में गुलाम नबी आजाद, मुकुल वासनिक, आनंद शर्मा और अहमद पटेल हैं। ऐसा पहली बार हुआ है जब किसी समस्या के समाधान के लिए प्रणब मुखर्जी, एके एंटनी या वीरप्पा मोइली या फिर पी चिदंबरम और कपिल सिब्बल की आवश्यकता नहीं समझी गई। राहुल गांधी का संदर्भ लेकर जो सलाह आरके धवन ने दी है, यदि उसके निहितार्थ की विवेचना की जाए तो यही स्पष्ट होता है कि उन्होंने राहुल गांधी का नाम भले ही लिया हो, लेकिन उनका लक्ष्य सोनिया गांधी हैं। उन्होंने वर्तमान मंत्रिमंडल की समीक्षा करते हुए कहा है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक भले मानुष हैं। वह वास्तव में राजनीतिक नहीं हैं। उनका उद्देश्य देश को अधिक मजबूती की ओर ले जाना है। उन्होंने अपने मंत्रियों को बोलने की पूर्ण स्वतंत्रता दे रखी है। फिर भी कुछ लोग इसलिए नहीं बोलते कि कहीं महत्वपूर्ण पदों को पाने में उनका बोलना बाधक न साबित हो, जबकि वे राजनीति में लंबे समय से हैं। इसके बावजूद मंत्रिमंडल में सामंजस्य का अभाव सार्वजनिक रूप से प्रगट होता रहता है। यद्यपि धवन ने पार्टी और सरकार के बीच किसी प्रकार के विरोधाभास से इंकार किया है, फिर भी यह कहा है कि बहुत से वरिष्ठ लोगों में उनकी वरिष्ठता के अनुरूप प्रतिष्ठा न मिलने के कारण क्षोभ अवश्य है। आरके धवन का यह बयान ऐसे समय आया है जब सोनिया गांधी के इटली सबंध की कुछ अंतराष्ट्रीय सौदों में भूमिका की बात सामने आई है। समाचारों के अनुसार लड़ाकू विमान की अमेरिका से खरीद का करार रद्द कर अब फ्रांस से बात चल रही है और उसमें इटली के कुछ लोगों का नाम बिचौलियों के तौर पर चर्चित हुआ है। इस समाचार का अभी तक खंडन नहीं हुआ है। राहुल गांधी के रिश्तेदार और मित्रमंडली में कौन-कौन हैं, इसकी जानकारी बहुत कम लोगों को होगी, लेकिन जिस प्रकार वे एक अन्य महामंत्री दिग्विजय सिंह का बड़बोलेपन में अनुशरण कर रहे हैं उससे ऐसा लगता है कि धवन का इशारा उसी ओर था। भट्टा पारसौल के मामले ने राहुल गांधी की अभिव्यक्तियों को हास्यास्पद बनाने का ही काम किया है। इससे कांग्रेस की प्रतिष्ठा बढ़ने के बजाय गिरी ही है। आज जो हालात हैं उसमें धवन की सलाह राजनीति के नक्कारखाने में तूती के समान भी असर दिखा सकेगी, इसकी कोई संभावना नहीं है। किसी एक राजनीतिक दल में कुनबापरस्ती हो या मित्र को तरजीह मिलती हो तो स्थिति में सुधार की अपेक्षा की जा सकती है। दुर्भाग्य से इस मामले में सभी दल एक समान हैं। यद्यपि करुणानिधि इसी कारण कुनबे सहित डूब गए हैं फिर भी इस रास्ते पर चलने वालों की चेतना जागृत नहीं हो रही है। चाहे पार्टी का ढांचा खड़ा करना हो या सत्ता संभालने वालों का चयन, सभी दल कांग्रेस के अनुयायी बन गए हैं। आजादी के बाद से प्राय: राज्यों और केंद्र में भी कांग्रेस की ही सत्ता रही है और सत्ताधारी या तो नेहरू-गांधी परिवार का व्यक्ति रहा है या फिर उनका चहेता। प्रयास यही रहा है कि उसकेहाथ में सत्ता न जाने दी जाए जिसके पैर के नीचे जमीन हो। कामराज योजना इसी मनोवृत्ति का परिणाम थी और इंदिरा गांधी ने मोहरों की तरह से मंत्रियों को इस खाने से उस खाने में रखकर किसी राजनेता को भी हैसियत वाला नहीं बनने दिया। आरके धवन इस सभी के अंतरंग जानकार हैं, क्योंकि नेहरू के समय से, जब वह एक कनिष्ठ सहायक के रूप में प्रधानमंत्री कार्यालय में दाखिल हुए थे, निरंतर उनका दखल रहा है। इसलिए उनकी सलाह अनुभव के आधार पर है। कांग्रेस के वरिष्ठजनों और नीचे स्तर तक की नीतियों के कारण जो क्षोभ है वह अगले चुनाव में सफलता न मिलने पर पार्टी को 1977 की स्थिति में ले जा सकता है। (लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं)


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