Wednesday, June 1, 2011

डरी हुई है हमारी सरकार


अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट खालिस्तान लिबरेशन फोर्स का आतंकवादी देविंदर पाल सिंह भुल्लर की दया याचिका राष्ट्रपति द्वारा खारिज किए जाने के बाद अब कुछ लोगों द्वारा उसकी सजा को आजीवन कारावास में बदलने की मांग की जा रही है। इस संदर्भ में पहली बात यह है कि कानूनी तौर पर इस मांग में कुछ भी गलत नहीं है, क्योंकि ऐसा किया जाना संभव है। परंतु सवाल यह है कि मानवता के दुश्मन ऐसे खूंखार अपराधियों को इतने लंबे समय तक बिना सजा दिए आखिर रखा ही क्यों जाता है? यदि हम देविंदर पाल भुल्लर की ही बात करें तो तकरीबन 20 वर्ष से ज्यादा हो गए उसे जेल में बंद किए, लेकिन उसकी दया याचिका मामले में निर्णय होने में ही कई साल लग गए। मेरा मानना है कि फांसी की सजा पाए अपराधियों के मामले में ज्यादा से ज्यादा चार या छह माह के भीतर अंतिम निर्णय ले लिया जाना चाहिए। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि मौत की सजा पाए व्यक्ति का हर दिन तिल-तिलकर मरने वाली होती है। ऐसे मामलों में न केवल वह व्यक्ति पीडि़त व परेशान होता है, बल्कि उसका समूचा परिवार, सगे-संबंधी व अन्य लोग भी मानसिक यंत्रणा के दौर से गुजरते हैं, जिनका अपराधी के अपराध से कोई लेना-देना भी नहीं होता। इसी तरह अफजल गुरु का मामला भी है, जिस पर अभी तक कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया जा सकता। सरकार भले ही इसके लिए बहाने दे कि फाइल अभी उसके पास नहीं पहुंची है, लेकिन इसके पीछे की सच्चाई से पूरे देश की जनता भलीभांति अवगत है। सरकार जानबूझकर ऐसे मामलों को लटकाकर रखती है ताकि उनका राजनीतिक फायदा लिया जा सके। अभी तक यही कहा जाता है कि न्यायपालिका से न्याय मिलने में काफी वक्त लगता है और इस प्रवृत्ति को जल्द से जल्द दूर करने की आवश्यकता है, लेकिन राष्ट्रद्रोह के मामलों में सजा पाए देशद्रोहियों के मामले लटकाकर रखने से साफ है कि ऐसा प्रशासनिक मशीनरी और राजनीतिक मशीनरी द्वारा भी किया जाता है। इसलिए सुधार की आवश्यकता सभी क्षेत्रों में है ताकि देश के लोगों का विश्वास न केवल न्याय व न्यायपालिका में बना रहे, बल्कि देश के समूचे तंत्र में विश्वास बने। राष्ट्रपति के पास इस तरह के कुल 28 मामले लंबित पड़ें हैं, जिन पर फैसले का इंतजार पूरे देश को है। राजीव गांधी के हत्यारों को भी अभी तक सजा नहीं दी जा सकी है। इसके लिए कुछ लोगों का तर्क है कि जब तक पहले के लोगों को सजा नहीं दे दी जाती तब तक अफजल, देविंदर या दूसरे देशद्रोहियों को भी सजा देना संभव नहीं है। कानूनी रूप से ऐसा कुछ भी जरूरी नहीं है, हां यह अवश्य है कि पारदर्शिता, निष्पक्षता और न्याय के तकाजे के मुताबिक ऐसा किया जाना चाहिए। परंतु इसका यह मतलब नहीं कि क्रमबद्धता के नियम से क्रमश: फांसी दी जाए। इस बारे में सबके अपने तर्क हो सकते हैं। अभी तक मुंबई हमले में पकड़े गए आरोपी कसाब का सजा नहीं दी जा सकी है और उस पर करोड़ों रूपया उसकी सुरक्षा के नाम पर खर्च किया जा चुका है। आखिर इस सबकी क्या जरूरत है? इससे तो देश की जनता का मनोबल और विश्वास टूटता है व देश के कानून व्यवस्था पर से आस्था डिगती है। अब समय आ गया है जबकि सरकार इस पूरे मामले पर गंभीरता से विचार करे और दोषियों को एक निश्चित समयसीमा के भीतर सजा दिलाने के लिए कोई ठोस प्रारूप व दिशानिर्देश तय करे। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि फांसी की सजा पाए अपराधी कई बार इतने लंबे समय तक जेल की सजा काट चुके होते हैं जितना कि आजीवन कारावास की स्थिति में होता है। इसलिए इस व्यावहारिक पहलू को ध्यान में रखा जाए कि न्याय सिर्फ मिले ही नहीं, बल्कि ऐसा होते हुए दूसरे लोगों को भी दिखे ताकि अपराध व ऐसे अपराधियों को साफ संदेश मिले और रोकथाम में मदद मिले। इन देशद्रोहियों को देरी से सजा देने के पीछे सरकार का यह डर भी है कि इससे देश के भीतर हालात बिगड़ सकते हैं और उस पर अंतरराष्ट्रीय दबाव पड़ सकता है। पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका पाकिस्तान के दोषी होने के बावजूद उसे उसी की धरती पर पाक साफ बताने की नीति अपना रहा है। ऐसे में हमें विचार करना होगा कि कब तक हम अमेरिका के इशारे पर काम करते रहेंगे। यदि आतंकवादियों को सजा देने में हम विफल रहते हैं तो उनका आत्मविश्वास मजबूत होगा और इस तरह के हमले बार-बार करने के लिए वह प्रोत्साहित होंगे।

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