Wednesday, June 1, 2011

राजनीति के बवंडर में बाबा



लेखक राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण बाबा रामदेव के प्रस्तावित अनशन की सफलता पर संदेह प्रकट कर रहे हैं...
अन्ना हजारे के बाद अब बाबा रामदेव भ्रष्टाचार के खिलाफ चार जून से अनशन पर बैठेंगे। बाबा रामदेव एक साथ दो लड़ाइयां लड़ रहे हैं। एक भ्रष्टाचार के खिलाफ और दूसरी अन्ना हजारे के करीबियों के खिलाफ। रामदेव को लग रहा है कि उनकी शुरू की हुई लड़ाई का श्रेय कोई और लूट रहा है। शिकायत तो उन्हें अन्ना हजारे से भी है। दिल का दर्द रह-रहकर जबान पर आ रहा है। बाबा का दावा है कि अन्ना हजारे को महाराष्ट्र के बाहर जानता कौन था? उत्तर भारत में उन्हें जनमानस में लाने वाले वही तो हैं। और अन्ना ने रालेगण सिद्धि से दिल्ली आते-आते बाबा को हाशिए पर धकेल दिया। यह अनशन भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम के साथ ही हाशिए से मुख्यधारा में लौटने की कोशिश ही नहीं, यह दिखाने का प्रयास भी है कि अन्ना से बड़ा जनसमर्थन बाबा के साथ है। रामदेव को लोग योग गुरु के रूप में जानते हैं। जब तक वह योग गुरु की भूमिका में थे, लालूप्रसाद यादव से लेकर नरेंद्र मोदी तक किसी को उनके साथ खड़े होने में एतराज नहीं था। जैसे ही उन्होंने राजनीतिक महत्वाकांक्षा दिखाई सारे रिश्ते बदल गए। पहला हल्ला बोला लालू प्रसाद यादव ने और बाबा को उनकी जाति याद दिलाई। कोई आशंका से खिलाफ हो गया तो कोई उम्मीद से साथ हो गया। बाबा के अभियान से किसी को कोई मतलब नहीं है। सबके अपने-अपने हित हैं। जिसका हित सध रहा है वह बाबा के साथ, नहीं तो दे रहा है घुमा के। सबकी नजर बाबा के समर्थकों पर है। किसी को इससे मतलब नहीं कि बाबा जो मुद्दे उठा रहे हैं वे कितने वाजिब या गैर वाजिब हैं। बाबा भी कुछ भ्रम में हैं। उन्हें लग रहा है कि जो साथ आना चाहते हैं और जो विरोध कर रहे हैं, दोनों उनके उठाए मुद्दों पर मिल रहे जनसमर्थन की ताकत से डरे हुए हैं। उन्हें नहीं पता कि हमारे राजनीतिक दलों का मूलमंत्र है कि जो सिद्धांत पर अड़ा वह चुनाव में गिरा। यकीन न हो तो प्रकाश करात से पूछ लीजिए। सो बाबाजी सिद्धांत आप अपने पास रखिए, सहेजकर। राजनीतिक दलों का सबसे बड़ा सिद्धांत वोट का सौदा है। अन्ना हजारे दिला दें तो उनकी जय और बाबा दिला दें तो उनकी भी जय। और अगर विरोधी को वोट दिला रहे हैं तो अभी खोलते हैं तुम्हारा कच्चा-चिट्ठा। आरोप सही हैं या गलत यह तो बाद में साबित होगा। पहले तो नंगों की कतार में खड़े होकर चिल्लाओ की देखो भाई हमने कपड़े पहन रखे हैं। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के साथ राजनीतिक दल जो कर रहे हैं उसे देखकर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की एक रचना याद आ रही है। इसमें उन्होंने लिखा है कि एक दिन भगवान कृष्ण बिहार में चुनाव लड़ने आ गए। बिहार पहुंच कर कृष्ण ने कुछ नेताओं से कहा कि वे चुनाव लड़ रहे हैं, सुनिए उन्हें क्या जवाब मिला। हां-हां, आप क्यों न लडि़एगा। आप भगवान हैं। आपका नाम है। आपकी आरती होती है। आपकी फोटो बिकती है। आप नहीं लड़ेंगे तो कौन लड़ेगा, आप तो यादव हैं न? कृष्ण ने कहा, मैं ईश्वर हूं। मेरी कोई जाति नहीं है। उन्होंने कहा, इधर भगवान होने से काम नहीं चलेगा। आपको कोई वोट नहीं देगा। जात नहीं रखिएगा, तो कैसे जीतिएगा? कृष्ण इस जातिवाद से तंग आ गए। कहने लगे, ये सब पिछड़े लोग हैं। चलो विश्वविद्यालय चलें। हमें प्रबुद्ध लोगों का समर्थन लेकर इस जातिवाद की जड़ें काट देनी चाहिए। विश्वविद्यालय में राजनीति के प्रोफेसर से वे बातें कर रहे थे। प्रोफेसर ने साफ कह दिया, मैं कायस्थ होने के नाते कायस्थों का ही समर्थन करूंगा। कृष्ण ने कहा, आप विद्वान होकर भी इतने संकीर्ण हैं? प्रोफेसर ने समझाया, देखिए न, विद्या से मनुष्य अपने सच्चे रूप को पहचानता है। हमने विद्या प्राप्त की, तो हम पहचान गए कि हम कायस्थ हैं। उधर कृष्ण के राजनीति में उतरने की बात खूब फैल गई थी और राजनीतिक दल सतर्क हो गए थे। जनसंघ का ख्याल था कि गोपाल होने के कारण बहुत करके कृष्ण अपना साथ देंगे, पर अगर विरोध हुआ तो उसकी तैयारी कर लेनी चाहिए। उन्होंने कथावाचकों को बैठा दिया था कि पोथियां देखकर कृष्ण की पोलें खोजो। गड़बड़ करेंगे तो चरित्रहनन कर देंगे। चरित्रहनन शुरू हो गया था। एक सज्जन ने कहा, इनकी डब्ल्यू का मामला बड़ा गड़बड़ है। भगाई हुई है। रुक्मिणी नाम है। बड़ा दंगा हुआ था जब उन्होंने रुक्मिणी को भगाया था। पोथी में सब लिखा है। जो किसी की लड़की को भगा लाया, वह अगर शासन में आ गया, तो हमारी बहू-बेटियों की इज्जत का क्या होगा? बाबा रामदेव को पता नहीं है कि हम जब राजनीति पर आते हैं तो भगवान को भी नहीं छोड़ते। भ्रष्टाचार के खिलाफ बाबा की मुहिम राजनीति के गलियारे में फंस गई है। अन्ना हजारे उनसे आगे सिर्फ इसलिए निकल गए हैं कि उन्होंने अपने लंबे सार्वजनिक जीवन में कभी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का संकेत नहीं दिया। इस मुद्दे पर बाबा रामदेव के साथ खड़े होने वालों की संख्या चाहे जितनी हो जाए पर उसकी धमक अन्ना हजारे के अभियान जैसी नहीं होगी, क्योंकि उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने उन्हें एक खेमे में खड़ा कर दिया है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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