Tuesday, June 14, 2011

बंटवारे का विधेयक


गठबंधन की राजनीति ने सेकुलरवाद को भी प्रभावित किया है। उसकी परम्परागत परिभाषा यूपीए इसलिए बदल रहा है क्योंकि उसमें वोट की राजनीति नहीं हो सकती थी। एकदलीय शासन के दौर में कांग्रेस कुछ प्रतीकों से काम चला लेती थी। अब उसे भाजपा के बहुसंख्यकवाद का मुकाबला करना पड़ रहा है। जो राज्य कांग्रेस के गढ़ माने जाते थे, उनमें गुजरात भी एक रहा है। वहां नरेन्द्र मोदी का सेकुलरवाद चल रहा है। उसे गुजरात ने वोट से मंजूर कर लिया है। इस सेकुलरवाद में राष्ट्रवाद है, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा है लेकिन दंगाइयों के साथ सख्ती है। उन्हें हाशिये पर करने में राज्य सरकार कामयाब रही है। दूसरी तरफ, जो पार्टियां खुद को असली सेकुलरवादी मानती हैं, वे मुसलमानों के उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाती रही हैं। ऐसे राजनीतिक वातावरण में जहां वोट से विचारधारा निर्धारित हो रही है, नीतियां बन रही हैं, उनके जवाब में सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) ने अपना विधेयक बनाया है। उसके नाम से ही जाहिर है कि यह विधेयक या प्रारूप दो काम कर रहा है। पहला यह कि यह यूपीए के 2005 के साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने वाले विधेयक को खारिज करता है। उसे ढीलाढा ला और बेकार बता कर नए विधेयक की जरूरत बताता है। प्रारूप इसी का नतीजा है। प्रारूप दूसरा काम यह कर रहा है कि गुजरात और ओडिसा के अंदर पूरे देश के अल्पसंख्यकों, एससी/एसटी के लिए इसने एक कानून प्रस्तावित कर दिया है। इसकी बात अगर मान ली जाती है तो पहले कानून बनेगा और फिर केन्द्र सरकार उसे पूरे देश पर लागू करेगी। इससे सबसे पहला नुकसान राज्य सरकारों के अधिकारों की कटौती के रूप में सामने आएगा। इस प्रारूप को कानूनी जामा पहना दिए जाने पर देश दो हिस्सों में बंट जाएगा। पहले पाले में अल्पसंख्यक होंगे जिन्हें अनुसूचित जाति और जनजाति को अपने पाले मेंविधेयक को अपने पाले में खींचने की सुविधाएं होंगी। जो काम अंग्रेजी साम्राज्य नहीं कर सका, जिसमें र्चच विफल रहा, उन 250 सालों के अधूरे काम को यह कानून एक ही झटके में पूरा कर देगा। दूसरी तरफ बेचारे बहुसंख्यक होंगे जो अपने को कोसते रहेंगे कि क्या इस देश में बहुसंख्यक होना गुनाह है? वे यह सोचने को भी मजबूर होंगे कि जहां दुनिया में हर देश बहुसंख्यक को ही मुख्यधारा मानता है, वहां भारत ने अल्पसंख्यकों को मुख्यधारा बनाने का फैसला कर लिया है। उन्हें यह सोचने के लिए भी विवश होना पड़ेगा कि भूमंडलीकरण के इस दौर में पहले राष्ट्रीयता का विलोप हुआ और अब उन्हें ही साम्प्रदायिक दंगों के लिए दोषी ठहराया जा रहा है।
दंगे का नया अर्थ दिया एनएसी ने
इस तरह, सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने दंगे को एक नया अर्थ दिया है। पहले दो समुदायों के बीच हिंसा को दंगा कहा जाता था और माना जाता था कि दंगाइयों का कोई धर्म नहीं होता। यह विधेयक हमें बताता है कि दंगाई का एक धर्म होता है और वह बहुसंख्यक होता है। यह ठीक है कि विधेयक में शब्दों का चयन बड़ी सावधानी से किया गया है, जैसे समूह। समूह की एक नई परिभाषा दी गई है। विधेयक में समूह वह है जो अल्पसंख्यक है। इस तरह से समूह और गैरसमूह में विधेयक ने देश को बांटा है। यह विधेयक संविधान का मजाक है। संविधान निर्माताओं ने सोचा भी नहीं होगा कि राज्य एक समुदाय के पक्ष या विरोध में काम करेगा। यह विधेयक राज्य को अल्पसंख्यक के पक्ष में खड़ा करता है और बहुसंख्यक के विरोध में काम करने का आदेश देता है। कांग्रेस का चुनावी सोनिया गांधी की अध्यक्षता में बनी सलाहकार परिषद का कार्य बहुसंख्यकों के विरुद्ध मोर्चा खेलने जैसा है। हैरानी की बात यह है कि इस विधेयक का उद्देश्य गायब है। इस विधेयक का क्या उद्देश्य है यह प्रारूप में कहीं बताया नहीं गया है। जो छिपाया गया है, वही इसका उद्देश्य समझा जाना चाहिए।
कांग्रेस का चुनावी औजार
साफ है कि यह विधेयक कांग्रेस की चुनावी राजनीति का औजार है। कांग्रेस भ्रष्टाचार और महाघोटालों में चारों तरफ से घिर गई है। राज्यों में कांग्रेस पार्टी उड़ती जा रही है। आंध्र प्रदेश सही वक्त आने पर उसके हाथ से निकल जाएगा। जगनमोहन रेड्डी की जीत का यही संदेश है। इस राजनीतिक परिस्थिति में सोनिया गांधी की सलाहकार परिषद का यह कदम सिवाय नादानी के और कुछ नहीं है। पुरानी कहावत है किनादान दोस्त से समझदार दुश्मन ज्यादा ठीक होता है।लेकिन यह विधेयक क्या सोनिया गांधी के नादान सलाहकारों की ही कारस्तानी है? इस विधेयक को बनाने वालों ने दावा किया है कि उन्हें सोनिया गांधी की मंजूरी प्राप्त है। उसके बाद ही विधेयक के प्रारूप को सार्वजनिक कर दिया गया है। अगर सोनिया गांधी की मंजूरी नहीं होती तो अब तक कांग्रेस के प्रवक्ता हमें बता चुके होते कि इससे श्रीमती गांधी का कुछ लेना-देना नहीं है। यह सलाहकार परिषद की अपनी कवायद है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि यह विधेयक सोनिया गांधी की राजनीति का तुरुप का पत्ता है।
साम्प्रदायिक दंगों के मायने का दायरा बढ़ाते हुए उनमें निम्नलिखित बिंदुओं को भी शामिल किया गया है :
1. यौन उत्पीड़न 2. घृणा का दुष्प्रचार 3. साम्प्रदायिक स्तर पर संघटित और लक्षित हिंसा 4. विधेयक के अंतर्गत आने वाले साम्प्रदायिक अपराधों को अंजाम देने के लिए किसी भी प्रकार के संसाधन और वित्तीय मदद 5. भारतीय दंड संहिता-1860 की कुछ मुख्य धाराओं 153, 153 बी, 295 और 298 समेत अन्य कई धाराओं को सम्मिलित करना 6. सरकारी सेवकों द्वारा किए जाने वाले उत्पीड़नद मन इसके प्रावधानों को लागू करने के लिएसाम्प्रदायिक अशांत क्षेत्रघोषित करने की कोई आवश्यकता नहीं होगी परिस्थितियों की जरूरत के मुताबिक केंद्र को अनुच्छेद 355 के तहत राज्यों में हस्तक्षेप का अधिकार होगा अनुसूचित जाति/अनुसू चित जनजाति के दंगापीड़ित होने की स्थिति में प्रस्तावित प्रावधान मौजूदा अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति उत्पीड़न अधिनियम के साथ-साथ लागू होंगे साम्प्रदायिक दंगों को रोकने के तरीकों पर एक अलग अध्याय में विचार किया गया है साम्प्रदायिक सद्भाव बनाने, दंगों से पीड़ितों को न्याय दिलाने और उनका पुनर्वास करने के लिए राष्ट्रीय प्राधिकरण और राज्य प्राधिकरणों का गठन किया जाएगा और इन्हें एक दिवानी अदालत से अतिरिक्त अधिकार प्राप्त होंगे

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