लेखक भाकपा और माकपा के विलय संबंधी विचार की सार्थकता पर संदेह जता रहे हैं…
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का विलय क्या भारतीय राजनीति में डूबते साम्यवाद को त्राण दिला पाएगा? क्या वामपंथी विचारधारा वर्तमान समय में भारत का कोई कल्याण कर सकती है? क्या साम्यवादी दर्शन आज की बदलती परिस्थितियों में प्रासंगिक है? वस्तुत: पश्चिम बंगाल में चौंतीस सालों के अनवरत राज में बने लाल दुर्ग के ध्वस्त होने के बाद से मार्क्सवादी पार्टी सकते में है। केरल में माकपा नीत एलडीएफ चार सीटों के अंतर के कारण सत्ता से बेदखल हो गई। स्वाभाविक है कि वामपंथी विचारधारा को लेकर इस तरह का आत्ममंथन चल रहा है और इसी मंथन से दोनों दलों के एक बार फिर से एक होने का सुझाव भी आया है। भारत में आर्थिक और सामाजिक स्तर पर जो विरूपताएं हैं उसका सबसे बड़ा कारण साम्यवादी चिंतन ही है। वर्ष 1800 में विश्व व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 20 प्रतिशत थी। ब्रितानी शोषण के चलते 1947 तक यह आंकड़ा दो प्रतिशत पर आ गया। भारतीय अर्थव्यवस्था को नेहरू के समाजवादी ढर्रे पर चलाने के प्रयास के कारण 1991 तक विश्व व्यापार में भारत का प्रतिशत 0.4 (अर्थात नगण्य) तक आ पहुंचा। अंतरराष्ट्रीय देनदारियों के लिए हमें अपना स्वर्ण भंडार गिरवी रखना पड़ा और भारत, जो किसी समय सोने की चिडि़या कहलाता था को प्रत्येक आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं के लिए जमाखोरी व कालाबाजारी से जूझना पड़ा। वामपंथियों के विकृत सामाजिक दर्शन के कारण जहां हिंदू समाज को जातियों में विभाजित करने का कुप्रयास किया गया, वहीं मजहब के नाम पर मुसलमानों का एकीकरण किया गया, जिसकी परिणति भारत के रक्तरंजित विभाजन व अलग पाकिस्तान में हुई। कम्युनिस्ट आंदोलन की सर्वाधिक अंतर्घाती भूमिका और अक्षम्य अपराध अलगाववादी ताकतों को प्रोत्साहन देना है। धर्म को जनता की अफीम पुकारने वाले कम्युनिस्टों ने जिन्ना को वे सारे तर्क-कुतर्क उपलब्ध कराए, जो एक अलग मजहबी राष्ट्र के लिए जरूरी थे। कम्युनिस्टों का यह आत्मघाती आचरण अनवरत जारी है। आज भी मुसलमानों के कट्टरवादी धड़े को कम्युनिस्टों का त्वरित समर्थन सहज प्राप्त हो रहा है। गुजरात दंगों के बहाने नरेंद्र मोदी, गुजरात और देश को कलंकित करने की मुहिम में लगी तीस्ता सीतलवाड, अरुंधति राय, मेधा पाटकर जैसी स्वयंभू सामाजिक कार्यकर्ता वामपंथी आभा से ही ग्रस्त हैं। केरल में मुस्लिम बहुल जिले-मल्लपुरम का सृजन कराने वाले मार्क्सवादियों को केरल के विधानसभा चुनाव में पराजय का स्वाद इसलिए भी चखना पड़ा, क्योंकि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री अच्युतानंद द्वारा की जा रही इस्लामी कट्टरवाद की आलोचना के साथ खुद को जोड़ नहीं पाया। भारत में साम्यवाद का इतिहास इस बात का गवाह है कि बीसवीं सदी के भारतीय इतिहास के महत्वपूर्ण क्षणों में कम्युनिस्टों ने भारी गलतियां कीं। कम्युनिस्टों ने भारत की अखंडता की बजाए उसे टुकड़ों में बांटे रखने की हर संभव कोशिश की। इसी कारण केएम अशरफ और हिरेन मुखर्जी जैसे कामरेडों ने भारत को राज्यों का संघ बनाने का सिद्धांत उछाला था। उन्होंने 15 अगस्त, 1947 को आजादी मिल जाने के बावजूद भारत के स्वतंत्र अस्तित्व को नकारा और 1948 में भारतीय सेना के खिलाफ हैदराबाद के रजकरों को अपनी पूरी मदद दी। सैद्धांतिक तौर पर भारतपरस्ती और चीनपरस्ती के कारण माकपा दो फाड़ भले हुई हो, किंतु दोनों का इतिहास भारतीय संस्कृति के खिलाफ उनकी वैमनस्यता का गवाह है। माओ त्से तुंग के जन्मदिवस 26 दिसंबर, 1926 को शुरू हुए भारतीय कम्युनिस्ट दल का नाम कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया रखा गया। यदि उन्हें अपने राष्ट्र पर गर्व होता तो वे इसका नाम इंडियन कम्युनिस्ट पार्टी भी रख सकते थे। आजादी के बाद लोकतंत्र का हिस्सा बनना कम्युनिस्टों का स्वांग मात्र है। 1954 में कम्युनिस्ट नेता पी.राममूर्ति ने एक राष्ट्रीय मोर्चे के गठन की सलाह दी, जो पं. नेहरू की सरकार की प्रगतिवादी नीतियों को अपना समर्थन देती। सोवियत संघ और चीन समर्थक कम्युनिस्ट खेमे में से सोवियत प्रेमी कम्युनिस्ट नेहरू सरकार के नजदीक आने लगे। 1964 में मोहन कुमारमंगलम ने औपचारिक रूप से कम्युनिस्टों के कांग्रेस में शामिल होने की परंपरा शुरू की। यह अंतर्विरोधों का लाभ उठाते हुए वस्तुत: देश को कमजोर करने की साजिश का हिस्सा था। इंदिरा गांधी की सरकार में कुमारमंगलम जैसे कई मंत्री उनके नजदीकी सलाहकार थे। कम्युनिस्टों की घुसपैठ का प्रभाव पड़ना अवश्यंभावी था। न्यायपालिका और कार्यपालिका को सरकार के प्रति वफादार बनाने का विचार कम्युनिस्टों का ही था, जिसकी अंतिम परिणति आपातकाल के रूप में हुई। कुमार मंगलम, एचआर गोखले जैसे बुद्धिजीवी प्रतिबद्ध न्यायपालिका के साथ प्रतिबद्ध नौकरशाही की भी पुरजोर वकालत करते थे। (लेखक भाजपा के राज्यसभा सदस्य हैं)
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