Wednesday, December 28, 2011

लोकपाल की आड़ में सरकार पर नियंत्रण चाहते हैं उद्योग घराने


संसद में लोकपाल विधेयक पर विचार- विमर्श के बीच संप्रग सरकार के एक मंत्री ने ही इस व्यवस्था पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। अप्रवासी मामलों के मंत्री व्यालार रवि का कहना है कि लोकपाल से सिर्फ उद्योग घरानों को फायदा होगा। एक दिन यह (लोकपाल) उन शक्तिशाली उद्योग घरानों के लिए राजनीतिक नेतृत्व को ब्लैकमेल करने के औजार में तब्दील हो जाएगा,जो कि सरकार पर नियंत्रण करना चाहते हैं। रवि ने आगाह किया कि लोकपाल कानून के प्रतिपालन में सामान्य सिद्धांतों की अनदेखी हुई तो लोकपाल देश को अस्थिर कर सकता है। गौरतलब है कि गत सप्ताह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अग्रणी उद्योगपतियों से भेंट के दौरान आर्थिक नीतियों की आलोचना किए जाने पर खिन्नता और निराशा जताई थी। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने भी पीएचडी चैंबर ऑफ कामर्स के कार्यक्रम में कुछ ऐसे ही विचार व्यक्त किए थे। व्यालार रवि ने सोमवार को एक साक्षात्कार में दावा किया कि देश के गरीबों को कोई शिकायत नहीं है। उद्योग घराने मनमाफिक और फायदेमंद आर्थिक नीतियां न बनने से सरकार से नाखुश हैं। इसीलिए सरकारी नीतियों के पक्षाघात की स्थिति में होने समेत अन्य शिकायतें कर रहे हैं। वे (उद्योग घराने) बहुत शक्तिशाली हैं और भविष्य में सरकार पर नियंत्रण के लिए लोकपाल का दुरुपयोग कर सकते हैं। वह सांसदों और अन्य चुने जनप्रतिनिधियों की शक्तियों को सीमित करने के कुत्सित प्रयास में लगे हैं। उन्होंने अन्ना हजारे पर निशाना साधते हुए कहा कि वह गुप्त उद्देश्यों के साथ आंदोलन चला कर संविधान की सर्वोच्चता को कमतर करने की कोशिश कर रहे हैं, जो कि देश का सबसे बड़ा दस्तावेज है। वह अनुचित मांगों के साथ संसद को कमजोर करने का प्रयास कर रहे हैं। रवि ने कहा, टीम अन्ना द्वारा प्रस्तावित लोकपाल समूचे देश को अस्थिर करेगा। सभी शक्तियों को समाहित करके तैयार सर्व शक्तिशाली निकाय देश के लिए ठीक नहीं। इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती। उन्होंने कहा,मैं भ्रष्टाचार के खिलाफ हूं और यह नहीं कहता कि देश में भ्रष्टाचार नहीं है, लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि इससे (भ्रष्टाचार) निपटने के लिए संविधान के बुनियादी दर्शन व तय प्रक्रिया किनारे कर दी जाए। ऐसा होता है तो यह भी एक समस्या है। रवि ने कहा,वह किसी पर आरोप नहीं लगा रहे, पर कुछ मामलों में परिपक्वता की जरूरत होती है। लोकतंत्र और संतुलन को समझिए। अदालत के एक निर्णय (1975) ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अयोग्य घोषित कर दिया था। यह एक तरह से सैन्य आघात था।

Monday, December 19, 2011

कांग्रेस ने मुसलमानों के साथ विश्वासघात किया


मुस्लिम, क्षत्रिय और वैश्य समाज की रैली में बसपा सुप्रीमो एवं मुख्यमंत्री मायावती ने कांग्रेस पर जमकर तंज कसे। कांग्रेस पर मुसलमानों के साथ विश्र्वासघात करने का आरोप लगाया। मुस्लिम समाज की दुर्दशा के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराते हुए इससे सावधान रहने की नसीहत दी। उन्होंने सच्चर कमेटी की सिफारिशों और अयोध्या में विवादित ढांचा विध्वंश के लिए भी कांग्रेस को कसूरवार ठहराया। रमाबाई मैदान में आयोजित पार्टी की तीसरी बड़ी रैली में बसपा अध्यक्ष के मुख्य निशाने पर कांग्रेस और इसके महामंत्री राहुल गांधी रहे। हालांकि उन्होंने राहुल का नाम तो नहीं लिया, लेकिन उन पर पलटवार करते हुए कहा कि कांग्रेस को बसपा का हाथी सता रहा है। कांग्रेस की दिमागी हालत इतनी खराब हो गई है कि उसे हाथी पैसा खाता हुआ दिखाई पड़ रहा है। पांच वर्ष में प्रदेश की तस्वीर बदल देने के राहुल के बयान की भी उन्होंने खिल्ली उड़ाई। कहा,आजादी के बाद लगातार 40 साल तक सत्ता में रहने पर भी कांग्रेस कुछ नहीं कर पाई तो पांच वर्ष में वह क्या कर लेगी। यह पार्टी लोगों से धोखा कर रही है। इसी कड़ी में विदेशों में जमा कालाधन के मुद्दे को उठाते हुए उन्होंने कांग्रेस को चुनौती दी, कांग्रेस यदि कुछ करना चाहती है तो वह इसकी घोषणा करे कि विदेशी बैंकों में जमा कालाधन वापस लाएगी और उसका पचास प्रतिशत यूपी के विकास पर खर्च किया जाएगा। प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून पर उन्होंने कहा कि इस विधेयक का मकसद केवल मतदाताओं को लुभाना भर है। इस दौरान बसपा मुखिया ने लोगों को सपा व भाजपा का भय भी दिखाया। कहा कि भाजपा सत्ता में आई तो सामंतवादी और सांप्रदायिक ताकतें मजबूत होंगी, जबकि अगर गलती से भी सपा की सरकार बनी तो फिर गुंडाराज कायम हो जाएगा। इसी कड़ी में उन्होंने भाजपा के अपने भाई आनंद व पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव सतीश चंद्र मिश्र के परिवारीजनों पर लगाए गए आरोपों को भी चुनावी करार दिया और कहा, 2007 में सत्ता में आने के बाद पौने पांच साल तक भाजपा को मेरे और पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के परिवार वालों की कंपनियों में कमी दिखाई नहीं पड़ी। उन्होंने कहा कि भाजपा यह काम आयकर विभाग पर छोड़ दे और बचे-खुचे जनाधार की चिंता करे। इस दौरान उन्होंने यह भी गिनाया कि क्षत्रियों और वैश्यों के लिए क्या-क्या किया गया है। क्षत्रियों के लिए उन्होंने सर्वसमाज शब्द का ही इस्तेमाल किया। उन्होंने बताया कि बसपा ने मुस्लिम समाज को हर स्तर पर भागीदारी दी। सांसद-विधायक बनाए, मंत्री बनाए। नसीमुद्दीन सिद्दीकी का जिक्र करते हुए बताया कि इनके पास दर्जन विभाग हैं। छात्र-छात्रा के वजीफे, उर्दू-अरबी-फारसी विश्वविद्याय का जिक्र किया, मदरसों को अनुदान सूची में लेने की बात भी बताई और राज्य हज कमेटी के नये कार्यालय की भी बात की। कहा कि मुस्लिमों के हित बसपा में ही सुरक्षित हैं। साथ ही वैश्य समुदाय को उत्पीड़न से मुक्त दिलाने, वाणिज्य कर के चेकपोस्ट समाप्त करने और वैट का जिक्र उन्हें आकर्षित करने की कोशिश की। क्षत्रियों को भी याद दिलाया कि उनके शासन में उन्हें कितना सम्मान मिला है।

किसान हित में लागू करेंगे एफडीआइ

केंद्र सरकार ने विपक्ष के तगड़े विरोध के बाद भले ही खुदरा व्यापार पर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) का मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया हो लेकिन कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी इसको अब भी हवा देने में लगे हैं। अपने मिशन-2012 को कामयाब बनाने में जुटे राहुल ने शुक्रवार को एफडीआइ का खुला समर्थन किया और इसका विरोध करने वाले विपक्ष को किसान विरोधी करार दिया। यूपी में राहुल भी रथ निकालने वालों की सूची में शामिल हो गए। पूरी तरह वातानुकूलित और सुविधाओं से लैस प्रदेश बदलो रथ पर सवार राहुल तय समय से करीब दो घंटे बाद जब सभा स्थल पहुंचे तो कम भीड़ थी। यहां से केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद की पत्नी लुईस कांग्रेस की प्रत्याशी हैं। भीड़ कम होने के लिए बाद में लुईस ने माफी भी मांगी। आलू उत्पादक पट्टी क्षेत्र में हुई जनसभा में उन्होंने कहा हिंदुस्तान में 60 प्रतिशत सब्जी खराब हो जाती है। हमने रिटेल में एफडीआइ लाने की बात कही ताकि आलू की बर्बादी नहीं हो और किसान अपनी फसल को सही दामों पर बेच सकें लेकिन विपक्षी दलों ने उसे रोक दिया.. संसद की कार्यवाही नहीं चलने दी। उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वे किसान विरोधी हैं। उन्होंने अपना एक अनुभव बताते हुए कहा कि छह साल का बच्चा तक यह जानता है कि उत्तर प्रदेश में उसका भविष्य अंधकारमय है। राहुल ने कहा कि किसानों ने बताया कि उनका आलू मुश्किल से 2 रुपये किलो बिकता है, जिसको चिप्स बनाने वाली बड़ी कंपनियां खरीदकर आधे आलू से बना पैकेट 10 रुपये में बेचती हैं। अगर देश में एफडीआइ आ गया तो इससे किसानों का भला ही होगा, किसी का नुकसान नहीं होगा।

Saturday, December 10, 2011

इंसाफ की मांग है मुस्लिम आरक्षण


मुस्लिम आरक्षण को लेकर उत्तर प्रदेश की राजनीति गरमाई हुई है। सपा, बसपा के बाद कांग्रेस भी चाहती है कि पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण मिले। हाल ही में कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने मुसलमानों को ओबीसी कोटे में आरक्षण की वकालत कर इस बहस को एक बार फिर जिंदा कर दिया है। उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की हालत कोई ज्यादा अच्छी नहीं है। सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं दोनों ही क्षेत्रों में मुसलमानों की नुमाइंदगी कम है। सूबे में 18.5 फीसदी आबादी के बरक्स 7.5 मुसलमान ही फिलवक्त नौकरियों में हैं। मुसलमानों के आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक हालातों का जायजा लेने वाली सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र आयोग ने केंद्र की संप्रग सरकार से सिफारिश की थी कि अल्पसंख्यकों को पिछड़ा समझा जाए और केंद्र तथा सूबाई सरकारों की नौकरियों में उनके लिए 15 फीसदी स्थान चिह्नित किए जाएं। सच्चर आयोग पांच साल पहले और मिश्र आयोग करीब साढ़े तीन साल पहले अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप चुका है, लेकिन बावजूद इसके संप्रग सरकार ने आयोग की सिफारिशें अभी तक लागू नहीं की हैं। मुल्क में मुसलमानों का पिछड़ापन इतना है कि शहरी इलाकों में तकरीबन 38 फीसदी और ग्रामीण इलाकों में 27 फीसदी मुसलमान गरीबी रेखा के नीचे बदतरीन हालत में गुजर-बसर कर रहे हैं। उनके पिछड़ेपन की हालत देखते हुए मिश्र आयोग ने तो पिछड़े वर्ग के 27 फीसदी कोटे में भी अल्पसंख्यकों का कोटा निर्धारित करने की वकालत की है, लेकिन केंद्र सरकार ने इस राह में अभी तलक कोई पहल नहीं की है। आयोग ने अल्पसंख्यकों के आरक्षण से जुड़ी पेचीदगियों से बचने के लिए अपनी रिपोर्ट में आरक्षण की बजाय चिह्नित शब्द का इस्तेमाल किया है और आयोग की यह सिफारिश संविधान के अनुच्छेद 16 (4) के तहत पूरी तरह से वाजिब है। क्योंकि अनुच्छेद-16 हर हिंदुस्तानी को लोक नियोजन में अवसर की समानता की जमानत देता है। फिर समानता का अधिकार हमारे मौलिक अधिकारों में भी शामिल है, लेकिन बावजूद इसके सिफारिश को लागू करने में होने वाली व्यावहारिक कठिनाई को देखते हुए आयोग ने विकल्प के तौर पर दीगर पिछड़े वर्गो के 27 फीसदी कोटे में 8.4 फीसदी सब कोटा अल्पसंख्यकों के लिए चिह्नित करने की सिफारिश की है। हमारा मुल्क जब आजाद हुआ और संविधान निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी, उस वक्त हमारे रहनुमाओं ने एक ऐसे समाज का ख्वाब देखा, जो सामाजिक भेदभाव और गैर-बराबरी से आजाद हो। जहां ऊंच-नीच का फर्क न हो। किसी के साथ नाइंसाफी न हो। इनसे निपटने के लिए संविधान में बाकायदा उपबंध किए गए। जाहिर है, हमारे संविधान में मौजूद मूल अधिकार और नीति निर्देशक तत्व इन्हीं विचारों से अनुप्राणित हैं, लेकिन अफसोसनाक है कि आजादी के 64 साल गुजर जाने के बावजूद हम सामाजिक अन्याय, भेदभाव और असमानता जैसी बुराइयां खत्म नहीं कर पाए। इसके पीछे कोई एक वजह ढूढ़ें तो वह बुनियादी वजह है कि हमारी जेहनियत नहीं बदली। जब तक हमारी जेहनियत में तब्दीली नहीं आएगी, तब तक हम न तो संवैधानिक उपचारों को सही ढंग से अमल में ला पाएंगे और न ही सामाजिक रूप से वंचित समूहों को वाजिब इंसाफ मिल सकेगा। यही प्रमुख वजह है कि वंचित और शोषित जातियों के लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था महसूस की गई। जाहिर है, आरक्षण की व्यवस्था हिंदुस्तानी समाज में व्याप्त असमानता, अस्पृश्यता और भेदभाव को दूर करने और मुख्तलिफ हल्कों में दलित व पिछड़े वर्ग के लोगों की नुमाइंदगी को सुनिश्चित करने के मकसद से की गई ताकि सामाजिक अन्याय को जड़ से खत्म कर भेदभाव रहित और बराबरी के जज्बे पर आधारित एक आदर्श समाज का निर्माण और विकास हो सके। कुल मिलाकर जो मुसलमान बरसों से सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के शिकार रहे हैं, उन्हें आरक्षण की छतरी के तले लाना मौजूदा दौर में इंसाफ की मांग है। अवसरों से वंचित अधिकारविहीन लोगों को सामाजिक विभाजन का डर दिखाकर कब तलक तरक्की के मौकों से रोका जाता रहेगा। वास्तव में यह इंसाफ की लड़ाई है, इसे केवल आरक्षण के लिए संघर्ष के रूप में नहीं देख सकते। दरअसल, आरक्षण लोकतांत्रिक संघर्ष का छोटा-सा हिस्सा है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

आरक्षण या सिर्फ सियासी दांव


आरक्षण राजनीतिक दलों के सियासी खेल का दांव बनकर उभर रहा है। खाली थाली को दल भूख मिटाने का पर्याय मानकर चल रहे हैं। ये हालात इसलिए निर्मित हुए हैं, क्योंकि राजनीतिक दलों ने जनता के बीच ठोस कामकाज के जरिये कारगर परिणाम देने का भरोसा खो दिया है। इसीलिए मायावती मुस्लिमों को आरक्षण देने का शिगूफा तो छोड़ती ही हैं, आर्थिक रूप से कमजोर ब्राह्मणों को भी आरक्षण देने का दांव चलती हैं। मायावती के इस दांव की काट के लिए कांग्रेस भी मुस्लिमों का कोटे में कोटा सुरक्षित करने के आधार पर जल्द आरक्षण देने जा रही है। उसके इस दांव का प्रमुख लक्ष्य उत्तर प्रदेश में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में विजयश्री हासिल करना है। हालांकि कांग्रेस ने 2009 के आम चुनाव में जारी किए अपने घोषणा पत्र में यह वादा किया था कि वह फिर से सत्ता में आई तो सरकारी नौकरियों और शिक्षा के क्षेत्र में अल्पसंख्यकों को आर्थिक एवं शैक्षिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण देगी। कांग्रेस के समक्ष आरक्षण का मसला फिलहाल की स्थिति में गले में फंसी हड्डी की तरह है, क्योंकि यदि वह खासतौर से मुस्लिमों को केंद्र की नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान नहीं लाती तो वह इस समुदाय से कौन-सा मुंह लेकर वोट मांगेगी। दूसरी तरफ उसे आरक्षण की यह सुविधा केवल पिछड़ी जातियों के कोटे में देना संभव है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा खींची गई लक्ष्मण रेखा के मुताबिक आरक्षण की 50 प्रतिशत से ज्यादा सीमा नहीं लांघी जा सकती। लिहाजा, ओबीसी के कोटे में सेंध लगाना भी कांग्रेस को महंगा पड़ेगा? पर मरता क्या न करता की तर्ज पर कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में एकमुश्त 18 फीसदी मुस्लिम वोट ललचा रहे हैं। उत्तर-प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के साथ कांग्रेस भी अब आरक्षण की नाव पर सवार होकर चुनावी वैतरणी पार करना चाहती है, क्योंकि विधानसभा नजदीक आते देख पहले उन्होंने सरकारी नौकरियों में मुस्लिम आरक्षण की मांग उठाई और फिर प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिख सवर्ण जातियों में आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को आरक्षण की मांग उठाकर आरक्षण के मुद्दे को चिंगारी दिखा दी। हालांकि यह चिंगारी सुलगकर ज्वाला बनने वाली नहीं है, क्योंकि सभी जानते हैं कि चुनाव के ठीक पहले उठाई गई ये मांगें एक शिगूफा भर हंै। इससे न तो मुस्लिमों के हित सधने जा रहे और न गरीब सवर्णो के? वैसे भी इस मुद्दे की हवा केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने यह भरोसा देकर निकाल दी कि संप्रग सरकार सरकारी नौकरियों एवं शिक्षा में मुस्लिमों को आरक्षण देने का कानून इसी शीत कालीन सत्र में पेश कर रही है। इस दिशा में सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट के आधार पर वह पहले ही ठोस कदम उठा चुकी है। आरक्षण के ये टोटके छोड़ने की बजाय किसी भी राजनीतिक दल को यह गौर करने की जरूरत है कि आरक्षण का एक समय सामाजिक न्याय से वास्ता जरूर था, लेकिन सभी वर्गो में शिक्षा हासिल करने के बाद जिस तरह से देश में शिक्षित बेरोजगारों की फौज खड़ी हो गई है, उसका कारगर उपाय आरक्षण जैसे चुक चुके औजार से मौजूदा हालात में संभव नहीं है। इस सिलसिले में हम गुर्जर और जाट आंदोलनों का भी हश्र देख चुके हैं। लिहाजा, राजनीतिक दल अब सामाजिक न्याय के सवालों के हल आरक्षण के हथियार से खोजने की बजाए रोजगार के नए अवसरों का सृजन कर निकालें तो बेहतर होगा। अगर वोट की राजनीति से परे अब तक दिए गए आरक्षण लाभ का ईमानदारी से मूल्यांकन किया जाए तो साबित हो जाएगा कि यह लाभ जिन जातियों को मिला है, उन जातियों का समग्र तो क्या आंशिक कायाकल्प भी नहीं हो पाया है। केंद्र सरकार हल्ला न हो, इसलिए जिस कछुआ चाल से मुसलमानों को आरक्षण देने की तैयारी में जुटी है, अगर उस पर अमल होता है तो यह झुनझुना गरीब अल्पसंख्यकों के लिए छलावा ही साबित होगा। केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के प्रगतिशील मंत्री सलमान खुर्शीद को जरूरत है कि मुसलमानों को धार्मिक जड़ता और भाषाई शिक्षा से उबारने के लिए पहले एक राष्ट्रव्यापी मुहिम चलाएं, क्योंकि कुछ मुस्लिमों ने शिक्षा का अधिकार विधेयक से आशंकित होकर शंका जताई थी कि यह कानून मुसलमानों की भाषाई शिक्षा प्रणाली पर कुठाराघात है। हालांकि खुर्शीद ने ऐसी आशंकाओं को पूरी तरह खारिज करते हुए साफ कर दिया था कि मदरसा शिक्षा या अनुच्छेद 29 और 30 की अनदेखी यह कानून नहीं करता। लिहाजा, मुसलमानों को सोचने की जरूरत है कि टेक्नोलॉजी के युग में मदरसा शिक्षा से बड़े हित हासिल होने वाले नहीं हैं। वंचित समुदाय वह चाहे अल्पसंख्यक हों या गरीब सवर्ण, उनकी बेहतरी के उचित अवसर देना लाजिमी है, क्योंकि किसी भी बदहाली की सूरत अब अल्पसंख्यक अथवा जातिवादी चश्मे से नहीं सुधारी जा सकती? खाद्य की उपलब्धता से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी जितने भी ठोस मानवीय सरोकार हैं, उन्हें हासिल करना मौजूदा दौर में केवल पूंजी और शिक्षा से ही संभव है। ऐसे में आरक्षण के सरोकारों के जो वास्तविक हकदार हैं, वे अपरिहार्य योग्यता के दायरे में न आ पाने के कारण उपेक्षित ही रहेंगे। अलबत्ता, आरक्षण का सारा लाभ वे बटोर ले जाएंगे जो आर्थिक रूप से पहले से ही सक्षम हैं और जिनके बच्चे पब्लिक स्कूलों से पढ़े हैं। इसलिए इस संदर्भ में मुसलमानों और भाषायी अल्पसंख्यकों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की वकालत करने वाली रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट के भी बुनियादी मायने नहीं हैं। मौजूदा वक्त में मुसलमान, सिख, पारसी, ईसाई और बौद्ध ही अल्पसंख्यक के दायरे में आते हैं। जबकि जैन, बहाई और कुछ दूसरे धर्म-समुदाय भी अल्पसंख्यक दर्जा हासिल करना चाहते हैं। लेकिन जैन समुदाय केंद्र द्वारा अधिसूचित सूची में नहीं है। इसमें भाषाई अल्पसंख्यकों को अधिसूचित किया गया है, धार्मिक अल्पसंख्यकों को नहीं। सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के मुताबिक जैन समुदाय को भी अल्पसंख्यक माना गया है, लेकिन इन्हें अधिसूचित करने का अधिकार राज्यों को है, केंद्र को नहीं। इन्हीं वजहों से आतंकवाद के चलते अपनी ही पुश्तैनी जमीन से बेदखल किए गए कश्मीरी पंडित अल्पसंख्यक के दायरे में नहीं आ पा रहे हैं। वैसे भी रंगनाथ मिश्र आयोग का गठन जांच आयोग के तहत नहीं हुआ है। दरअसल, इस रपट का मकसद केवल इतना था कि धार्मिक व भाषाई अल्पसंख्यकों के बीच आर्थिक व सामाजिक रूप से कमजोर व पिछडे़ तबकों की पहचान कर अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण सहित अन्य जरूरी कल्याणकारी उपाय सुझाये जाएं, जिससे उनका सामाजिक स्तर सम्मानजनक स्थिति हासिल कर ले। इस नजरिये से सरकारी नौकरियों में अल्पसंख्यकों का औसत अनुपात बेहद कम है। गोया, संविधान में सामाजिक और शैक्षिक शब्दों के साथ पिछड़ा शब्द की शर्त का उल्लेख किए बिना इन्हें पिछड़ा मानकर अल्पसंख्यक समुदायों को 15 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए। इसमें से 10 फीसदी केवल मुसलमानों को और पांच फीसदी गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को दिए जाने का प्रावधान तय हो। शैक्षिक संस्थाओं के लिए भी आरक्षण की यही व्यवस्था प्रस्तावित है। यदि इन प्रावधानों के क्रियान्वयन में कोई परेशानी आती है तो पिछड़े वर्ग को आरक्षण की जो 27 प्रतिशत की सुविधा हासिल है, उसमें कटौती कर 8.4 प्रतिशत की दावेदारी अल्पसंख्यकों की तय हो। वैसे भी केरल में 12 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल में 10, तमिलनाडु 3.5, कर्नाटक 4, बिहार 3 और आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा 4 फीसदी मुस्लिमों को आरक्षण पिछड़ा वर्ग के कोटे के आधार पर ही दिया गया है। केरल में तो आजादी के पहले से यह व्यवस्था लागू है। लिहाजा, इस प्रावधान के तहत छह प्रतिशत मुसलमान और 2.4 प्रतिशत अन्य अल्पसंख्यक समुदायों को आरक्षण की सुविधा दी जा सकती है। लेकिन यहां गौरतलब यह भी है कि इन प्रदेशों में ओबीसी के कोटे में अल्पसंख्यक कोटा निर्धारित करना इसलिए आसान हुआ, क्योंकि यहां पिछड़ी जातियों की आबादी कम होने के कारण आरक्षित कोटा पूरा नहीं होता। यहां संकट यह है कि पिछड़ों के आरक्षित हितों में कटौती कर अल्पसंख्यकों के हित साधना आसान नहीं है। इस रिपोर्ट का क्रियान्वयन विस्फोटक भी हो सकता है, क्योंकि पिछड़ों के लिए जब मंडल आयोग की सिफारिशें मानते हुए 27 फीसदी आरक्षण को वैधानिक दर्जा दिया गया था, तब हालात अराजक और हिंसक हुए थे। इस लिहाज से आरक्षण के परिप्रेक्ष्य में कोटे में कोटा की स्थिति उत्पन्न होती है तो सांप्रदायिक वैमनस्य बढ़ना तय है। इसलिए धर्म-समुदायों से जुड़ी गरीबी को अल्पसंख्यक और जातीय आईने से देखना बारूद को तीली दिखाना होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Friday, December 9, 2011

क्यों नहीं चला राहुल का जादू


राहुल गांधी के राष्ट्रीय राजनीति में औपचारिक प्रवेश को सात साल बीत गए हैं। 2004 में अमेठी से लोकसभा का चुनाव जीतकर उन्होंने ठसके से राजनीतिक यात्रा का पहला कदम रखा था। तीन साल बाद जब उन्हें पार्टी का महासचिव नियुक्त किया गया, वह कांग्रेस के हाई कमांड बन गए। इन वर्षो में राहुल गांधी राजनीति में अपना स्थान तलाशने में लगे रहे किंतु उन्हें सीमित सफलता ही मिल पाई। अपने पिता राजीव गांधी के विपरीत, जिन्हें राजनीति में पदार्पण के समय मिस्टर क्लीन कहा जाता था, राहुल गांधी अपनी छाप नहीं छोड़ पा रहे हैं। यद्यपि राहुल गांधी नियमित रूप से रोड शो और राजनीतिक यात्राएं करते रहे हैं, किंतु उन्हें उतना राजनीतिक लाभांश नहीं मिला, जितनी वह मेहनत कर रहे हैं। राहुल गांधी का जादू न चलने के बहुत से कारण हैं। उदाहरण के लिए, वर्तमान राजनीतिक वातावरण कांग्रेस पार्टी के लिए बेहद प्रतिकूल है और इस वजह से राहुल की सफलता की संभावनाएं कम हो रही हैं। किंतु बाहरी वातावरण के अलावा, जिसके लिए वह जिम्मेदार नहीं हैं, राहुल गांधी के व्यक्तित्व का भी सीमित सफलता में योगदान है। इसी तरह दो और कारक राहुल की सफलता में बाधक बने हुए हैं- दृढ़ निश्चय और साहस की कमी। हम राहुल गांधी के पिछले सात साल के आचरण पर नजर डालकर यह देख सकते हैं कि वह दृढ़ निश्चय, गंभीरता और साहस जैसे गुणों पर कितने खरे उतरते हैं। ये गुण ही राजनेताओं को लोगों के दिलों में उतारते हैं। कुछ साल पहले राहुल गांधी ने यह घोषणा करके संजीदगी और सच्चाई के साथ खिलवाड़ किया था कि अगर 1992 में उनके परिवार का कोई सदस्य प्रधानमंत्री होता तो अयोध्या में विवादित ढांचा ध्वस्त न होता। गौरतलब है कि राहुल गांधी के पिता राजीव गांधी के कार्यकाल में ही राम जन्मभूमि के कपाट खुले थे। वह भी उनके पिता ही थे, जिन्होंने नवंबर 1989 में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले गृहमंत्री बूटा सिंह को अयोध्या में राममंदिर के शिलान्यास में भाग लेने भेजा था। हिंदुओं को खुश करने के लिए यह सब करने के बाद राहुल गांधी हमें विश्वास दिलाना चाहते हैं कि अगर 1992 में राजीव गांधी प्रधानमंत्री होते तो विवादित ढांचा ध्वस्त नहीं होता। इसके बाद, पिछले साल से मनमोहन सरकार पर लग रहे भ्रष्टाचार के आरोपों के संदर्भ में राहुल की प्रतिक्रिया या कहें कि उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया न आना, उनकी गंभीरता और साहस पर सवाल उठाता है। अगस्त 2010 में राष्ट्रमंडल घोटाला उजागर हुआ, इसके पश्चात आदर्श सोसायटी, 2जी स्पेक्ट्रम आदि घोटालों की झड़ी लग गई। लाखो करोड़ों के घोटालों को देखकर जनता दंग रह गई कि जनसेवक किस तरह देश को लूटकर अपना खजाना भर रहे हैं। अन्ना हजारे के आंदोलन में जनता का गुस्सा प्रतिध्वनित हुआ। जब यह सब चल रहा था, तब हमारे युवा आइकन और कांग्रेस पार्टी के उत्तराधिकारी राजनीतिक परिदृश्य से गायब हो गए। राहुल गांधी को लगा होगा कि अगर वह भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलते हैं तो यह उनकी सरकार के विरुद्ध जाएगा और इससे संप्रग के द्रमुक जैसे सहयोगी भी नाराज हो सकते हैं। इसके अलावा उन्हें यह भी लगता होगा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने पर बोफोर्स आदि मुद्दों पर असहज करने वाले सवाल उठ सकते हैं। अगर राहुल गांधी साफ प्रशासन देने की इच्छा रखते तो उन्हें इन घोटालों के खिलाफ बोलने का साहस दिखाना चाहिए था। जाहिर है, शुरू में इससे प्रधानमंत्री और गठबंधन को परेशानी जरूर होती, लेकिन इसके कारण वह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के सबसे बड़े नेता और यूथ आइकन बन जाते। अंतत: इसका लाभ कांग्रेस को मिलता। लेकिन साहस और विश्वास के अभाव के कारण उन्होंने यह मौका गंवा दिया। अब भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बॉस अन्ना हजारे बन चुके हैं। संजीदगी और साहस के अभाव के साथ-साथ जब कभी उनका भाषण या बयान लिखित नहीं होता, वह कुछ न कुछ गड़बड़ कर बैठते हैं। हाल ही में उन्होंने दिल्ली में युवक कांग्रेस सम्मेलन में दावा किया कि सबसे अधिक भ्रष्टाचार हमारे राजनीतिक ढांचे में है। इससे उनका क्या अभिप्राय है? इस राजनीतिक ढांचे को बदलने की उनके पास क्या योजना है? क्या यह अनर्गल प्रलाप नहीं है? इस तरह का बचकानापन बार-बार सामने आता है। कुछ साल पहले उन्होंने एक पत्रकार से कहा कि वह 25 साल का होते ही प्रधानमंत्री बन सकते थे, किंतु इसलिए नहीं बने क्योंकि वह अपने वरिष्ठजनों पर हुक्म चलाना नहीं चाहते थे। हाल ही में एक बार फिर लिखित बयान के अभाव में उन्होंने खुद को मुश्किल में डाल लिया। फूलपुर में उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश के लोग कब तक महाराष्ट्र में जाकर भीख मांगते रहेंगे। इसी प्रकार लोकपाल के मुद्दे पर पहले से तैयार रिपोर्ट पढ़ने के बाद जब वह संसद से बाहर निकले तो मीडिया से कह बैठे कि उन्होंने पूरा खेल पलट दिया। क्या खुद अपने बारे में ऐसे दावे करना विचित्र नहीं है? इसके अलावा राहुल गांधी के मन में संसद के प्रति आदर का भाव भी नहीं है। यद्यपि वह युवा सांसद हैं फिर भी जैसे उन्हें लगता है कि वह संसद से भी ऊपर हैं। इस संस्थान के प्रति राहुल गांधी का अनादर इससे झलकता है कि उन्होंने उत्तर प्रदेश की पांच दिन की यात्रा 22 नवंबर से शुरू की, जिस दिन शीतकालीन सत्र शुरू हुआ था। अंतत: चापलूसी के बारे में भी कुछ शब्द। इसमें कोई दो राय नहीं कि 1998 में सोनिया गांधी द्वारा कांग्रेस की कमान संभालने के बाद से पार्टी में चापलूसी की परंपरा कमजोर पड़ी है। सातवें दशक में जब इंदिरा गांधी की तूती बोलती थी, कांग्रेस में चापलूसी चरम पर थी। कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने तो घोषणा ही कर दी थी, इंदिरा भारत है और भारत इंदिरा। अब समय बदल चुका है, तो भी कांग्रेस में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो नेहरू-गांधी परिवार की चापलूसी में कोई कसर छोड़ते हों। हालिया युवक कांग्रेस सम्मेलन में कांग्रेस वर्किग कमेटी के एक सदस्य ने राहुल गांधी को महानतम युवक आंदोलन चलाने पर महिमामंडित किया। उनका कहना था कि इस तरह का आंदोलन तो कभी चीन और रूस तक में देखने को नहीं मिला। यह उम्मीद ही की जा सकती है कि इस तरह की तारीफ के बाद भी राहुल गांधी के पैर दृढ़ता से जमीन पर जमे रहें और वह हवा में न उड़ने लगें। इससे तो उनकी राजनीतिक शक्ति और कम ही होगी। (लेखक संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं) 

महंगाई रोको वरना गद्दी छोड़ो लोकसभा में एक सुर से बोला पूरा विपक्ष

लोकसभा में विपक्ष के साथ-साथ सरकार को समर्थन दे रहे दलों ने भी महंगाई के मुद्दे पर केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा किया। विपक्ष ने कहा कि विदेशों की नकल करने के कारण सरकार में बैठे लोग महंगाई कम करने में असफल रहे हैं। सत्ता छोड़े सरकार: सुषमा- लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने सदन में महंगाई पर चर्चा के दौरान आरोप लगाया कि सरकार की गलत नीतियों और भ्रष्टाचार के कारण महंगाई बढ़ी है। सरकार के मंत्री हताशा और निराशा की बात करते हैं। यदि महंगाई पर अंकुश लगाने के मामले में सरकार हाथ खड़े करती है तो उसे सत्ता से हट जाना चाहिए। सुषमा ने सदन में मौजूद वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी से कहा कि संप्रग सरकार महंगाई को लेकर आंकड़ेबाजी करती है लेकिन महंगाई के बोझ से त्राहि-त्राहि कर रही आम जनता का पेट आंकड़ों से नहीं भरता। मुखर्जी द्वारा छह साल के राजग शासनकाल की बात याद दिलाए जाने पर सुषमा ने पलटवार करते हुए दावा किया कि राजग शासनकाल में छह साल तक कीमतें स्थिर रही थीं और बाजार में उत्पाद होते थे। उन्होंने कटाक्ष किया,‘ हमारे वित्त मंत्री फीसदी में बजट नहीं देते थे। हिन्दुस्तान की अर्थव्यवस्था को हार्वर्ड और आक्सफोर्ड वाले नहीं समझ सकते। सुषमा ने कहा कि सुधार तभी सफल माने जा सकते हैं जब उनसे गरीब आदमी की आमदनी सुधरे। उन्होंने कटाक्ष किया कि अमेरिका के सामने छवि सुधारने से सुधार नहीं होता। संसद की अवमानना की है सरकार ने : भाकपा के गुरूदास दासगुप्ता ने लोकसभा में महंगाई पर नियम-193 के तहत चर्चा की शुरूआत करते हुए कहा कि संप्रग सरकार ने संसद की अवहेलना की है क्योंकि महंगाई पर पूर्व में सदन में पारित प्रस्ताव को वह लागू नहीं करा पायी है। उन्होंने कहा कि सरकार कभी कहती है कि विकास बढ़ता है तो महंगाई बढ़ती है, कभी कहती है कि लोग ज्यादा खा रहे हैं तो कभी कहती है कि मांग और आपूर्ति में अंतर है। दासगुप्ता ने कहा कि सरकार वायदा कारोबार पर रोक नहीं लगा पायी है जबकि महंगाई रोकने के लिए यह भी एक उपाय है। कई राज्यों में सार्वजनिक वितरण पण्राली काम नहीं कर रही है। सपा के रेवती रमण सिंह ने कहा कि 15वीं लोकसभा में महंगाई पर अनेक बार चर्चा हो चुकी है लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। उन्होंने कहा कि सरकार में प्रधानमं़त्री समेत कई अर्थशास्त्री हैं लेकिन दामों पर कोई नियंतण्रनहीं है। बसपा के दारा सिंह चौहान ने कहा कि वित्त मंत्री का यह बयान गरीबों के साथ भद्दा मजाक है कि फरवरी में महंगाई कम हो जाएगी। जदयू के शरद यादव ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और गृह मंत्री पी चिदंबरम को निशाना बनाते हुए कहा कि विदेशी सोच वाली इस तिगड़ी के सत्ता में रहते महंगाई काबू नहीं हो सकती है। उन्होंने हालांकि यह भी कहा कि सालों साल से महंगाई पर संसद में चर्चा हो रही है लेकिन यह बढ़ती ही जा रही है। माकपा के बासुदेव आचार्य ने कहा कि इस सरकार द्वारा अपनाई जा रही कथित नव उदारवादी आर्थिक नीति के रहते महंगाई बढ़ती ही रहेगी। राकांपा की सुप्रिया सुले ने कहा कि महंगाई जैसी बड़ी समस्या से निपटने के लिए दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सभी सांसदों को ठोस प्रयास करने की आवश्यकता है। अन्नाद्रमुक के थम्बीदुरई ने देश में व्यापक पैमाने पर नकली नोट के प्रसार का मुद्दा उठाया और इसे महंगाई की एक प्रमुख वजह बताया। राजद के रघुवंश प्रसाद सिंह ने सरकार से जानना चाहा कि वायदा कारोबार पर वह रोक क्यों नहीं लगा पा रही है।

Thursday, December 8, 2011

यूपी में छोटे दलों की संख्या पहुंची डेढ़ सौ


प्रदेश में 2012 में होने वाले विधानसभा चुनाव में ताल ठोंकने के लिए पंजीकृत सियासी दलों की आमद बढ़ती ही जा रही है। सूबे में करीब डेढ़ सौ छोटे दल सियासी अखाड़े में कूदने को तैयार हैं, जबकि कई सूरमाओं की दल बनाने की अर्जी केंद्रीय निर्वाचन आयोग के अनुमोदन का इंतजार कर रही है। विधानसभा चुनाव में यह किनको नुकसान पहुंचाएंगे अभी कहना मुश्किल है, लेकिन 2007 के चुनाव में कुछ छोटे दलों ने ही कई दर्जन सीटों पर बड़ों का समीकरण बिगाड़ दिया था। आजादी के बाद यूपी विधानसभा के पहले चुनाव में 12 राष्ट्रीय और दो प्रांतीय दल मैदान में उतरे। तब कोई पंजीकृत दल नहीं था, लेकिन 2012 में होने वाले चुनाव के लिए पंजीकृत दलों की संख्या डेढ़ सौ से अधिक हो गई है। 2007 में यूपी में 112 दलों ने किस्मत आजमाई। सूबे के मुख्य निर्वाचन अधिकारी उमेश सिन्हा के मुताबिक इस बार देश में 1178 पंजीकृत दल हैं। 1969 के विधानसभा चुनाव में भारतीय क्रांति दल, आर्य सभा, यूपी किसान मजदूर पार्टी समेत कुल 17 पंजीकृत दलों ने शिरकत की थी। तबसे यह सिलसिला थमा नहीं। बीच-बीच में इनकी संख्या घटती बढ़ती रही। 1974 में 16, 1977 में सात, 1980 में सात, 1985 में दो, 1989 में 26, 1991 में 23, 1993 में 25, 1996 में 23, 2002 में 75 और 2007 में 112 पंजीकृत दलों ने उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव लड़ा। इनमें अंबेडकर क्रांति दल, आदर्श लोकदल, आल इंडिया माइनारिटीज फ्रंट, भारतीय नागरिक पार्टी, बम पार्टी, जनसत्ता पार्टी, माडरेट पार्टी व विकास पार्टी जैसे कई दल हैं, जिन्हें 2007 में एक प्रतिशत भी मत हासिल नहीं हुए। सूबे का कोई कोना नहीं होगा, जहां के छोटे दल सियासी अखाड़े में न उतर गए हों। इनके कई रंग सामने आए हैं। बुंदेलखंड में सिने अभिनेता राजा बुंदेला बुंदेलखंड कांग्रेस, तो पूर्वी उत्तर प्रदेश में सामाजिक कार्यकर्ता जटाशंकर स्वराज, डा. संजय चौहान जनवादी, मुख्तार अंसारी के बड़े भाई पूर्व सांसद अफजाल अंसारी कौमी एकता दल तथा जातिराज किताब लिखकर हंगामा खड़ा करने वाले नौकरशाह लक्ष्मीकांत शुक्ल मेधा पार्टी से इस बार चुनावी मैदान में होंगे। पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह जनक्रांति पार्टी (राष्ट्रीय), सांसद अमर सिंह राष्ट्रीय लोकमंच व लोकसभा चुनाव में ताकत दिखा चुके डाक्टर अयूब पीस पार्टी के जरिए चुनावी बिगुल बजा चुके हैं। इसके अलावा पहले भी पार्टी बनाकर चुनाव लड़ चुके कई पूर्व नौकरशाह, दबंग और दागी, कारोबारी तथा इलाकाई नेता भी पंजीकृत दलों के जरिए फिर जनता के दरवाजे पर हैं। सियासी दलों की वृद्धि वोटों के बिखराव का सबसे बड़ा सबब बनेगी। 2007 के चुनाव में पंजीकृत दलों में लोकतांत्रिक कांग्रेस को एक, भारतीय जनशक्ति को एक, जनमोर्चा को एक, राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी को एक और उत्तर प्रदेश यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट को एक सीट मिली। पंजीकृत दलों में सर्वाधिक वोट पाने वाले अपना दल और फिर भारतीय समाज पार्टी को एक भी सीट नसीब नहीं हुई, जबकि पूर्वी उत्तर प्रदेश में कई सीटों पर बड़े दलों को समेट कर पीछे कर दिया। जनमोर्चा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कई लोगों की राह में रोड़ा बन गया। राजनीति में अपराधियों, कारोबारियों व नौकरशाहों की बढ़ती सक्रियता ने यह स्थिति पैदा की है। राजनीतिक विश्लेषक सुशील वर्मा कहते हैं कि यह राजनीति के व्यवसायी करण का नतीजा है। क्रिमिनल से लेकर कारोबारी तक को पता है कि यहां सुरक्षा, समृद्धि और शोहरत तीनों है। इसलिए सबकी रुझान यहीं हैं। हालांकि छोटे दलों के कई नेताओं का कहना है कि इससे लोकतंत्र को मजबूती मिलेगी और सियासी मंचों तक आम आदमी की पहंुच बनेगी।