Wednesday, June 15, 2011

भाजपा को मिलेगा बल


सिद्धार्थ शंकर गौतम छह वर्षो से भाजपा से निष्कासन झेल रहीं उमा भारती की आखिरकार पार्टी में वापसी हो ही गई। हालांकि उनकी वापसी के कयास राजनीतिक हलकों में काफी समय से लगाया जा रहा था। पार्टी के ही कुछ नेताओं की वजह से हाईकमान भी पशोपेश में था कि कहीं इससे पार्टी में ही फूट न पड़ जाए पर आखिरकार पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को संघ के आगे झुकना पड़ा और उमा की वापसी सुनिश्चित हो गई। 2003 में मध्य प्रदेश से दिग्विजय सिंह की सत्ता को उखाड़ फेंकने के बाद उमा का राजनीतिक ग्राफ काफी तेजी से ऊपर चढ़ा अपने संक्षिप्त मगर प्रभावपूर्ण शासनकाल में ही उमा ने प्रदेश में अपने कई समर्थक खड़े कर लिए थे, लेकिन जिस तेजी से उमा का प्रभाव बढ़ा उतनी ही तेजी से नीचे भी आया। 2005 में हुबली में तिरंगा यात्रा निकालने के मामले में उनके खिलाफ वारंट जारी हुआ फलस्वरूप उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा, बस यहीं से उनके राजनीतिक जीवन में गिरावट का दौर भी शुरू हो गया। उमा ने भाजपा की आपसी गुटबाजी और शीर्ष नेतृत्व से अपने तल्ख रवैये के चलते भारतीय जनशक्ति पार्टी बनाई। एक समय ऐसा लगा कि उमा अपनी पार्टी के जरिए भाजपा की नाक में दम कर देंगी, लेकिन उनकी पार्टी को मध्य प्रदेश में कोई खास सफलता नहीं मिली। यहां तक की उमा भी अपने गृह जिले टीकमगढ़ से विधानसभा चुनाव हार गईं। फिर भी जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद उमा राजनीतिक जीवन में अपनी प्रासंगिकता बरकरार रखने में सफल रहीं। संघी पृष्ठभूमि का होना उमा के लिए संजीवनी का काम कर गया। उमा का भाजपा नेताओं से भले ही संबंध तल्ख रहे हों मगर संघ के नेताओं से उनके मधुर संबंधों के कारण उनका नागपुर आना-जाना बना रहा। उमा ने भले ही भाजपा से किनारा कर लिया हो मगर करिश्माई व्यक्तित्व तथा उनकी जनस्वीकारिता की कमी भाजपा को हमेशा खलती रही। उनकी भाजपा में वापसी के कई बार गंभीर प्रयास हुए मगर हर बार अक्खड़ छवि उनकी वापसी की राह में रोड़ा बनी। फिर संघ पृष्ठभूमि से संबंध रखने वाले नितिन गडकरी के भाजपा की कमान संभालने के बाद उमा की पार्टी में वापसी की चर्चाएं गर्म हो गईं। मगर भारी विरोध के चलते यह वापसी पुन: मूर्त रूप नहीं ले सकी। उमा की वापसी के कयास लग ही रहे थे कि हाल ही में उन्होंने गंगा शुद्धिकरण के अपने मिशन को खूब भुनाया। उत्तराखंड में भाजपा सरकार के खिलाफ ही उमा धरने पर बैठ गईं। ऐसा लगा मानो इस बार भी उनकी वापसी टल जाएगी मगर लखनऊ में भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी कि बैठक के समय जिस तरह नितिन गडकरी को नागपुर तलब किया गया वह यह बताने के लिए काफी था कि उमा का राजनीतिक वनवास अब खत्म ही होने वाला है और जब उमा की भाजपा में वापसी की औपचारिक घोषणा हुई तो सभी आशंकाएं सच साबित हुईं। संघ और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की सोच है कि 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उमा भारती प्रदेश में मायावती के मुकाबले पार्टी को मजबूती दे सकतीं हैं। अव्वल तो उमा अन्य पिछड़ा वर्ग, लोध जाति से हैं जिसका बुंदेलखंड में अच्छा-खासा प्रतिनिधित्व है। फिर उमा की आक्रामक छवि भी मायावती को टक्कर देती नजर आती है। उत्तर प्रदेश में भाजपा इस समय तीसरे नंबर की पार्टी है और चुनावी मुकाबले में आने के लिए जिस जोश की जरुरत है वह उमा ही पार्टी में फूंक सकती हैं। हालंकि उमा की वापसी को उत्तर प्रदेश के अधिकांश नेता भी पचा नहीं पाएंगे मगर यदि पार्टी को उत्तर प्रदेश का किला फतह करना है तो आपसी गुटबाजी को भुलाकर उमा को स्वीकार करना ही होगा। अन्यथा उनकी वापसी जिस मकसद से हुई है वह कभी परवान नहीं चढ़ पाएगी। उमा को उत्तर प्रदेश में लाकर भाजपा ने अनायास ही एक और संयोग बना दिया है। उमा ने मध्य प्रदेश से दिग्विजय सिंह का बोरिया-बिस्तर समेटा था, अब एक बार फिर दिग्विजय सिंह उत्तर प्रदेश कांग्रेस प्रभारी होने के नाते उनके सामने हैं। कहते हैं इतिहास अपने आपको दोहराता है और यकीन मानिए यदि इस बार भी उमा का जादू चला तो दिग्विजय सिंह के राजनीतिक जीवन पर ही सवालिया निशान लग जाएंगे। उमा भारती का अधिक आक्रामक होना राजनीतिक दृष्टि से तो अच्छा है मगर कई बार उनकी यही आक्रामकता उनके गले की फांस बन चुकी है। यदि उमा इस बार अपने इस स्वभाव से वह पार पा सकीं तो उत्तर प्रदेश में उनके लिए संभावनाओं के द्वार खुल सकते हैं। कुल मिलाकर अब यह देखना दिलचस्प होगा कि उमा पार्टी के मंतव्य को कैसे पूरा करती हैं और उन्हें पार्टी का कितना साथ मिलता है।


No comments:

Post a Comment