Wednesday, February 29, 2012

यूपी को नायक का इंतजार


एक समय था जब उत्तर प्रदेश को चलाने वाले देश को भी चलाया करते थे। इस समय चुनाव उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए हो रहे हैं पर देश चलाने वालो और चलाने की आकांक्षा रखने वालो की नजर उत्तर प्रदेश के नतीजों पर है। देश के दोनों राष्ट्रीय दलों को राज्य में किसकी सरकार बनेगी इससे ज्यादा चिंता इस बात की है कि आगामी लोकसभा चुनाव के लिहाज से इस चुनाव के नतीजे को किस तरह अपने पक्ष में मोड़ा जाए। यही वजह है कि मतदान के सारे चरण पूरे होने से पहले ही राष्ट्रपति शासन की बातें होने लगी हैं। भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस ही नहीं समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और यहां तक कि राष्ट्रीय लोकदल उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे में राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका तलाश रहे हैं। सबसे पहले बात कांग्रेस की करते हैं। पार्टी को पिछले सात साल में उत्तर प्रदेश की आज सबसे ज्यादा जरूरत है। 2014 के लोकसभा चुनाव के नजरिए से ही नहीं, मौजूदा केंद्र सरकार को बनाए रखने के लिए भी। उसे आर्थिक क्षेत्र में उदारीकरण की प्रक्रिया को बढ़ाना हो या कड़े नीतिगत फैसले लेने हों, ममता बनर्जी के नखरों से छुटकारा पाना हो, कुछ ही महीने बाद अपना राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति चुनवाना हो, अन्ना हजारे के आंदोलन से निपटने के लिए ताकत चाहिए हो या राहुल गांधी का सोनिया गांधी के उत्तराधिकारी के रूप में राज्याभिषेक करना हो, इन सब के लिए एक ही चीज चाहिए-उत्तर प्रदेश। इस चुनाव में कांग्रेस ने अपनी सबसे बड़ी पूंजी दांव पर लगा दी है। पर सवाल है कि क्या उधार के हथियारों से कोई जंग जीती जा सकती है? कांग्रेस के पास पिछड़े वर्ग का बड़ा चेहरा बेनी प्रसाद वर्मा हैं। जिनका पूरा राजनीतिक जीवन कांग्रेस विरोध की राजनीति को समर्पित रहा है। वह अपने राजनीतिक जीवन के आखिरी पायदान पर खड़े हैं। यही हाल कांग्रेस के मुसलिम चेहरे रशीद मसूद और दलित चेहरे पन्ना लाल पूनिया का है। इस चुनाव ने राहुल गांधी को चुनावी राजनीति की मुख्यधारा में ला दिया है। पर राहुल गांधी उत्तर प्रदेश के मर्ज की दवा नहीं हैं। उनकी रणनीति कुछ हद तक टीम अन्ना की तरह है जो समस्या तो बता रही है पर उसकी हल नहीं बता रही। राहुल गांधी की बात मानकर उत्तर प्रदेश का मतदाता सपा, बसपा और भाजपा को सत्ता से बाहर कर दे तो किसे सौंपे राजपाट। रीता बहुगुणा जोशी को जो समाजवादी पार्टी के रास्ते कांग्रेस में आई हैं या प्रमोद तिवारी को जो दो दशक से राज्य में कांग्रेस विधायक दल के नेता पद पर विराजमान रहने के बावजूद अपने चुनाव क्षेत्र से बाहर लगभग अपरिचित ही हैं। कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सत्ता में आ गई तो भी राहुल गांधी तो दिल्ली में बैठेंगे। रिमोट से पार्टी संगठन चल सकता है सरकार नहीं चलती। इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी बसपा के अलावा अकेली पार्टी है, जिसे पिछले दो दशकों में प्रदेश के मतदाताओं ने पूर्ण बहुमत दिया। कांग्रेस के पास नेता नहीं तो भाजपा नेताओं की बहुतायत की मार झेल रही है। कोई अपने को मुख्यमंत्री से कम नहीं समझता। कार्यकर्ता पालकी उठाने को तैयार है। मतदाता ने वरमाला डालने के लिए किसी को अभी चुना नहीं है। पर एक ही पार्टी में इतने दूल्हे देखकर हैरान है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को उत्तर प्रदेश से उतना ही चाहिए जिससे उनका अध्यक्ष पद लोकसभा चुनाव तक के लिए बढ़ जाए। सारा जोर इस बात पर है कि कांग्रेस से आगे रहें। पिछले कुछ चुनावों की तुलना में भाजपा के लिए यह सबसे अच्छा मौका था। प्रदेश का सवर्ण मतदाता उसके पास लौट रहा है। अति पिछड़ा उससे नाराज नहीं है। मुसलिम वोट पक्के तौर पर बंट रहा है। बसपा, सरकार से मतदाता की नाराजगी से परेशान है तो समाजवादी पार्टी को अपनी पिछली सरकार के आंतकराज की सफाई देनी पड़ रही है। कांग्रेस की 2009 के लोकसभा चुनाव की हवा थम गई है। पर प्रदेश भाजपा के नेता आस्तीन में छुरा लिए एकदूसरे के पीछे मौके की तलाश में घूम रहे हैं। राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता। इसका उदाहरण है समाजवादी पार्टी। 2007 के चुनाव का खलनायक इस चुनाव के नायक के तौर पर उभरता हुआ नजर आ रहा है। पार्टी की छवि बदलने में अखिलेश यादव की भूमिका सबसे अहम है। राहुल गांधी और अखिलेश यादव के चुनाव अभियान में एक मौलिक अंतर है। राहुल गांधी उत्तर प्रदेश का मर्ज बता रहे हैं इलाज और डॉक्टर नहीं। अखिलेश मर्ज के साथ दवा और डॉक्टर भी बता रहे हैं। राहुल गांधी उस इलाज का मजाक उड़ा रहे हैं। कांग्रेस को चुनाव के बाद समाजवादी पार्टी की जरूरत पड़ेगी। सपा हो सकता है कांग्रेस के बिना काम चला ले। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की उपलब्धि अखिलेश यादव हैं। प्रदेश को एक नया नेता मिला है। बहुजन समाज पार्टी को 2007 में मतदाता ने बड़ी उम्मीद से सत्ता सौंपी थी। वह मतदाता की अपेक्षा पर खरी नहीं उतरी। हाथी ने केंद्र की योजनाओं का पैसा खाया हो या नहीं पर पर सर्वजन की उम्मीद को जरूर खा गया। यह पहला मौका था जब गैर दलित बसपा के साथ केवल चुनाव जीतने के लिए नहीं पर दलित नेतृत्व को स्वीकार करने और सत्ता में भागीदारी के लिए गया था। मायावती ने इसे गैर दलितों की मजबूरी समझ लिया। उत्तर प्रदेश चुनाव की बात हो और भाई साहब यानी चौधरी अजित सिंह की बात न हो ऐसा संभव नहीं। उत्तर प्रदेश की राजनीति में अजित सिंह ऐसा लड्डू हैं इसे जिसने खाया वह पछताया। कांग्रेस दूसरी बार खा रही है। जाट मतदाता चौधरी साहब के साथ हैं पर सवाल है कि क्या उनके कहने से जाट कांग्रेस को वोट देंगे? उनकी लालबत्ती इसी पर निर्भर है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं) 12श्चश्रल्ल2@Aंॠ1ंल्ल.Yश्रे

मायावती ने सपा, कांग्रेस व भाजपा पर साधा निशाना

कई वर्षो तक एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस सरकार ने गरीबों को और गरीब बनाया और बसपा में पांच वर्ष के कार्यकाल में विकास की गंगा बहाई है। राहुल जिन्हें भिखारी बता रहे हैं, कांग्रेस के शासन में वही लोग रोजगार की तलाश में उत्तर प्रदेश से पलायन कर दूसरे राज्यों में जाकर बसे थे। यह बातें मुख्यमंत्री मायावती ने यहां बुधवार को पार्टी प्रत्याशियों के समर्थन में आठ विधानसभा क्षेत्रों की संयुक्त जनसभा में कही। उन्होंने सपा, भाजपा व कांग्रेस को आड़े हाथों लिया। कहा, बसपा सरकार को पूर्व सरकारों की गलत आर्थिक नीतियां विरासत में मिलीं। इसके चलते वर्ष 2007 में सरकार बनने पर सबसे पहले अत्यंत पिछड़े क्षेत्रों में विकास कराया गया। मायावती ने कहा कि यदि प्रदेश में सपा की सरकार बनी तो गुंडाराज कायम हो जाएगा। शाम ढलते ही महिलाओं का घर से निकलना तक दूभर होगा। 

महंगाई और भ्रष्टाचार पर पीएम जनता को जवाब दें


भाजपा के वरिष्ठ नेता वेंकैया नायडू ने बुधवार को कहा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को आगामी तीन मार्च को गोवा विधानसभा चुनाव से पहले अपने चुनावी अभियान के दौरान जनता को यह जवाब देना होगा कि वह क्यों मंहाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी पर अंकुश नहीं लगा पाए। उन्होंने संवाददाताओं से कहा कि प्रधानमंत्री को हमें बताना होगा कि उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ क्या कदम उठाए हैं। वह क्यों महंगाई पर काबू नहीं पा पाए तथा देश में बेरोजगारी के मुद्दे के हल के लिए उन्होंने क्या किया। नायडू ने कहा कि तीन राष्ट्रीय मुद्दे भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और महंगाई गोवा चुनावों के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। भाजपा के पूर्व अध्यक्ष ने कहा कि राज्य की दिगम्बर कामत नीत सरकार ने स्थिरता प्रदान की। 

मणिपुर में 67 मतदान केंद्रों पर चार को पुनर्मतदान


मणिपुर विधानसभा चुनाव में कथित अनियमितताओं की खबरों के बीच चुनाव आयोग ने बुधवार को राज्य में नौ विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र के 67 मतदान केंद्रों पर चार मार्च को पुनर्मतदान कराने का आदेश दिया है। मणिपुर में विधानसभा की 60 सीटों के लिए 28 जनवरी को मतदान हुआ था। चुनाव आयोग ने कुछ मतदान केंद्रों पर पुनर्मतदान कराने के निर्वाचन अधिकारियों की रिपोर्ट पर गौर करने के बाद पुनर्मतदान कराने का आदेश दिया है। कांग्रेस शासित राज्य मणिपुर में भाजपा, एनसीपी, सीपीआई, जदयू मणिपुर पीपुल्स पार्टी सहित अनेक प्रमुख विपक्षी दलों ने मतदान में कथित गड़बड़ी की चुनाव आयोग से शिकायत की थी। 

वादाखिलाफी की तो पांच साल तक पछताना पड़ेगा


समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने बसपा सरकार निशाना साधते हुए कहा कि ऐसी भ्रष्ट सरकार पहले कभी नहीं देखी। सभा में लोगों से सवाल किया, इस बार सपा की सरकार बनवा रहे हो? जवाब हां में मिलने पर वादा किया कि सरकार बनने पर प्रदेश की तकदीर और तस्वीर दोनों बदल देंगे। यह भी कहा, मैं वादा खिलाफी नहीं करता, वादा खिलाफी की तो पांच साल पछताना पड़ेगा। सपा मुखिया बुधवार को रामपुर के स्वार में जनसभा को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि सूबे में सपा की सरकार बनने पर किसानों के कर्ज माफ किए जाएंगे। हर हाल में 18 घंटे बिजली मिलेगी। बेरोजगारों को रोजगार दिलाया जाएगा। घोटालेबाजों की जांच कराके सलाखों के पीछे पहुंचाया जाएगा। चुनावी सभा में सपा के राष्ट्रीय महासचिव मोहम्मद आजम खां ने बसपा व कांग्रेस के प्रति हमलावर तेवर रखने के साथ-साथ राष्ट्रीय लोकमंच को भी निशाने पर लिया। बाटला हाउस कांड की चर्चा करते हुए कहा कि होनहार तालिबे इल्मों को आतंकवादी बता कर मौत के घाट उतार दिया गया था।

मुस्लिम करेंगे आखिरी चरण का फैसला

यूपी का आखिरी द्वार यानी सातवें चरण के चुनाव का फैसला रुहेलखंड के मुसलमान वोटरों के हाथ होगा। मुस्लिम को अपने पाले में करने के लिए सपा और कांग्रेस के बीच सबसे दिलचस्प जंग इसी इलाके की 60 सीटों पर होनी है। लोकसभा चुनाव की तरह ही इस दफा भी मुस्लिम मतों की प्रत्याशा में जहां कांग्रेस ने इलाके में पूरी ताकत झोंक रखी है, वहीं सपा भी अपने विश्वसनीय वोटबैंक को इस दफा छिटकने न देने के लिए सारे घोड़े छोड़े हुए है। मुस्लिम मतदाताओं में कांग्रेस-सपा की तगड़ी दावेदारी का फायदा उठाने के लिए भाजपा की सारी उम्मीदें हिंदू मतदाताओं के धु्रवीकरण की तरफ जुटी हैं। मायावती के लिए पिछली बार की सफलता दोहराने को पुराना समीकरण साधना फिलहाल बहुत मुश्किल दिख रहा है। 3 मार्च को होने वाले आखिरी चरण के चुनाव में 31 सीटें ऐसी हैं, जहां 30 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम मतदाता हैं। 16 सीटों में 20 से 29 फीसदी तक मुस्लिम मतदाता हैं। ऐसे में 60 में से 46 सीटों पर सीधे तौर पर नतीजों की चाभी मुस्लिमों के रुख पर होगी। गत लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने मुस्लिम मतों के दम पर ही इलाके में चमत्कारिक प्रदर्शन किया था। 2007 के विस चुनाव में कांग्रेस इलाके में 8.3 फीसदी मत लेकर एक सीट पर ही जीत सकी थी। 2009 के लोस चुनाव में कांग्रेस ने विधासभावार 21.1 मत हासिल किए और इस लिहाज से उसकी 15 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त थी। खास बात है कि लोकसभा चुनाव के हिसाब से रालोद को भी 4.3 प्रतिशत मत और पांच विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिली। इस दफा कांग्रेस-रालोद गठजोड़ के तौर पर मैदान में है और वही प्रदर्शन दोहराने की प्रत्याशा में राहुल गांधी ने यहां सबसे ज्यादा मुस्लिम क्षेत्रों में ही फोकस किया है। रामपुर में बेगम नूरबानो तो शाहजहांपुर में केंद्रीय मंत्री जितिन प्रसाद की भी परीक्षा होगी। राहुल को मुस्लिम क्षेत्रों में रोड शो में मिले समर्थन से कांग्रेस की उम्मीदें बढ़ी हैं। हालांकि, सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने आजम खान को वापस लाने से लेकर उलेमाओं और दूसरे धार्मिक नेताओं का खूब समर्थन जुटाया है। उनके पुत्र अखिलेश चुनाव के बहुत पहले से भी इस क्षेत्र में जूझते रहे। गत विस चुनाव में सपा 23 फीसदी मतों संग 18 सीटें जीती थी। लोस चुनाव में उसे भी तीन फीसदी वोटों का फायदा हुआ था। इसका नतीजा था कि पार्टी को 22 सीटों पर बढ़त मिली थी। सपा-कांग्रेस जंग का फायदा उठाने के लिए भाजपा इस दफा कोई कसर नहीं छोड़ रही। विस चुनाव में उसे 19.3 फीसदी मतों के साथ 9 सीटें मिली थीं। लोस चुनाव में मात्र एक फीसदी वोट बढ़ने से वह 14 विस सीटों पर नंबर एक पर थी। भाजपा की पूरी कोशिश, पिछले लोस चुनाव के दौरान कांग्रेस के पाले में गया सवर्ण व पिछड़ा वोट अपने पाले में खींचने की है। वैसे भी 1991 से लेकर अब तक भाजपा को सबसे ज्यादा सफलताएं इसी रुहेलखंड क्षेत्र से मिलती रही हैं। गुरुवार से इस इलाके में चुनाव प्रचार थमने से शोर जरूर कम हो जाएगा लेकिन दलों की मशक्कत जारी रहेगी। वोटों की इस गुणाभाग में सबसे ज्यादा चुनौती बसपा के सामने है। 2007 के विस चुनाव में मायावती की दलित-अगड़ा-मुस्लिम केमिस्ट्री ने गुल खिलाया था। 27.8 फीसदी मतों के साथ वह 30 सीटों पर थी, जबकि लोस चुनाव में चार फीसदी मतों के नुकसान भर से ही उसे 26 सीटों का नुकसान हुआ था और वह मात्र चार विस क्षेत्र में ही पहले नंबर पर थी। 

सच कहा है तो कड़वा लगेगा ही


जिस देश में राजनीति छल-छद्म और धोखों पर ही आमादा हो, वहां संवादों का कड़वाहटों में बदल जाना स्वाभाविक है। स्वस्थ संवाद के हालात ऐसे में कैसे बन सकते हैं। टीम अन्ना के साथ जो हुआ, वह सही मायने में धोखे की एक ऐसी पटकथा है, जिसकी बानगी खोजे न मिलेगी। लोकपाल बिल पर जैसा रवैया हमारी समूची राजनीति ने दिखाया, क्या वह कहीं से आदर जगाता है? एक छले गए समूह से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं कि वह सरकारी तंत्र और सांसदों पर बलिहारी हो जाए? केजरीवाल जो सवाल उठा रहे हैं, उसमें नया और अनोखा क्या है? उनकी तल्खी पर मत जाइए, शब्दों पर मत जाइए। बस जो कहा गया है, उसके भाव को समझिए। इतनी तीखी प्रतिक्रिया कब और कैसे कोई व्यक्त करता है, उस मनोभूमि को समझने पर सब कुछ साफ हो जाएगा। टीम अन्ना का इस वक्त हाल हारे हुए सिपाहियों जैसा है। वह राजनीति के छल-बल और दिल्ली की राजनीति के दबावों को झेल नहीं पाई और सुनियोजित निजी हमलों ने इस टीम की विश्सनीयता पर भी सवाल खड़े कर दिए। टीम अन्ना पर कभी न्यौछावर हो रहा मीडिया भी उसकी लानत-मलामत में लग गया। जिस टीम अन्ना को कभी देश का मीडिया सिर पर उठाए घूम रहा था, मुंबई में कम जुटी भीड़ के बाद आंदोलन के खत्म होने की दुहाइयां दी जाने लगीं। आखिर यह सब कैसे हुआ? आज वही टीम अन्ना जब मतदाता जागरण के काम में लगी है तो उसकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। अब देखिए, केजरीवाल ने एक कड़वी बात क्या कह दी, मीडिया उन पर फिदा हो गया। एक वनवास सरीखी उपस्थिति से केजरीवाल फिर चर्चा में आ गए। यह उनके बयान का ही असर है। किंतु आप देखें तो केजरीवाल ने जो कहा, वह आज देश की ज्यादातर जनता की भावना है। आज संसद और विधानसभाएं हमें महत्वहीन दिखने लगी हैं तो इसके कारणों की तह में हमें जाना होगा। आखिर हमारे सांसद और जनप्रतिनिधि ऐसा क्या कर रहे हैं कि जनता की आस्था उनसे और इस बहाने लोकतंत्र से उठती जा रही है। अन्ना और उनके समर्थक हमारे समय के एक महत्वपूर्ण सवाल भ्रष्टाचार के प्रश्न को संबोधित कर रहे थे। उनके उठाए सवालों में कितना वजन है, यह उन्हें मिले व्यापक समर्थन से ही जाहिर है। लेकिन राजनीति ने इस सवाल से टकराने और उसके वाजिब हल तलाशने के बजाए अपनी चालों-कुचालों और षड्यंत्रों से सारे आंदोलन की हवा निकालने की कोशिश की। यह एक ऐसा पाप था, जिसे सारे देश ने देखा। अन्ना से लेकर आंदोलन से जुड़े हर आदमी पर कीचड़ फेंकने की कोशिशें हुई। आप देखें तो यह षड्यंत्र इतने स्तर पर और इतने धिनौने तरीके से हो रहे थे कि राजनीति की प्रकट अनैतिकता इसमें झलक रही थी। ऐसी राजनीति से प्रभावित हुए अन्ना पक्ष से भाषा के संयम की उम्मीद करना तो बेमानी ही है, क्योंकि शब्दों के संयम का पाठ केजरीवाल से पहले हमारी राजनीति को पढ़ने की जरूरत है। आज की राजनीति में नामचीन रहे तमाम नेताओं ने कब और कितनी गलीज भाषा का इस्तेमाल किया है, यह कहने की जरूरत नहीं है। गांधी को शैतान की औलाद, भारत मां को डायन और जाने क्या-क्या असभ्य शब्दावलियां हमारे माननीय सांसदों और नेताओं के मुंह से ही निकली हैं। वे आज केजरीवाल पर बिलबिला रहे हैं, लेकिन इस कड़वाहट के पीछे राजनीति का कलुषित अतीत उन्हें नजर नहीं आता। हमारे लोकतंत्र को अगर माफिया और धनपशुओं ने अपना बंधक बना लिया है तो उसके खिलाफ कड़े शब्दों में प्रतिवाद दर्ज कराया ही जाएगा। भारत आज भ्रष्टाचार की मर्मातक पीड़ा झेल रहा है। ऐसे में जगह-जगह असंतोष हिंसक अभियानों में बदल रहे हैं। लोकतंत्र में प्रतिरोध की चेतना को कुचलकर हम एक तरह की हिंसा को ही आमंत्रित करते हैं। आंदोलनों को कुचलकर सरकारें जन-मन को तोड़ रही है। इसीलिए लोकपाल बिल बनाने की उम्मीद में सरकार के साथ एक मेज पर बैठकर काम करने वाले केजरीवाल की भाषा में इतनी कड़वाहट पैदा हो जाती है, लेकिन सत्ता के केंद्र में बैठी मनीष तिवारी, कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह, बेनी वर्मा, सलमान खुर्शीद जैसों की राजनीति में इतना कसैलापन क्यों है। अगर सत्ता के प्रमुख पदों पर बैठे हमारे दिग्गज नेता सुर्खियां बटोरने के लिए हद से नीचे गिर सकते हैं तो केजरीवाल जैसे व्यक्ति को लांछित करने का कारण क्या है? (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

अरविंद केजरीवाल का आचरण


उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में स्वच्छ छवि वाले उम्मीदवारों को चुनने के लिए जन जागृति अभियान चला रही टीम अन्ना के सदस्य अरविंद केजरीवाल का कहना है कि संसद में हत्यारे और बलात्कारी बैठे हैं। अरविंद का कहना है कि लालू, मुलायम और राजा जैसे लोग संसद में बैठकर देश का कानून बना रहे हैं, इनसे संसद को निजात दिलाने की जरूरत है। अरविंद का यह भी कहना है कि सभी राजनीतिक पार्टियां भ्रष्ट हैं और वे देश को लूटने के लिए जीत दर्ज करना चाहती हैं। अरविंद केजरीवाल का यह कहना तो ठीक है कि संसद से बुरे तत्वों को निकालने के लिए लड़ाई लड़ी जाएगी, लेकिन सवाल उठता है कि आप संवैधानिक संस्थाओं को चुनौती देकर किस तरह की लड़ाई की बात कर रहे हैं? यह बात ठीक है कि संसद में 163 सांसद ऐसे हैं, जिनके खिलाफ आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं और वाकई देश की जनता को ऐसे सांसदों को अपना जनप्रतिनिधि चुनने से पहले सौ बार सोचना चाहिए, लेकिन क्या इस संदर्भ में अरविंद केजरीवाल के इस बयान को सही ठहराया जा सकता है कि संसद ही देश की सबसे बड़ी समस्या बनती जा रही है? इसके पहले भी अरविंद केजरीवाल ने अन्ना हजारे को संसद से ऊपर बताने वाला बयान दे डाला था। क्या कभी भी कोई व्यक्ति फिर चाहे वह अन्ना हजारे जैसी शख्सियत ही क्यों न हो, किसी भी संस्था से ऊपर हो सकता है? देश की संसद हो या राज्यों की विधानसभा या फिर स्थानीय निकाय, जीत कर आने वाले कई सदस्य ऐसे होते हैं, जिन पर आपराधिक मामले दर्ज होते हैं और वाकई ऐसे लोग देश के विकास में बाधक हैं। दागी उम्मीदवार के लोकसभा या विधानसभा पहुंचने पर जनता में नाराजगी हो सकती है कि उसकी नुमाइंदगी करने वाला नेता अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी नहीं निभा रहा है, लेकिन कोई शख्स फिर चाहे वह अन्ना हजारे हों या फिर अरविंद केजरीवाल, अगर लोकतांत्रिक संस्थाओं को ललकारने का काम करेंगे तो जनता उनके साथ खड़ी नजर नहीं आएगी। देश में लोकतंत्र की जड़ें बहुत गहरी हैं और संवैधानिक संस्थाओं को लेकर लोगों की आस्था बरकरार है। ऐसे में इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि देश में लोकतांत्रिक मूल्यों का सम्मान करते हुए व्यवस्था परिवर्तन की बात की जाए। व्यवस्था में परिवर्तन चंद मुट्ठी भर लोगों से नहीं हो सकता और यह तभी संभव है, जब नए मूल्यों को स्वीकार करने के लिए पूरा देश साथ खड़ा हो। इसमें कोई दो मत नहीं कि लोकपाल बिल के जरिए भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे, प्रशांत भूषण और अरविंद केजरीवाल जैसे लोगों ने जब आवाज उठाई तो रोजमर्रा की जिंदगी में भ्रष्टाचार से जूझने वाला आम आदमी इस आंदोलन में उनके साथ खड़ा दिखाई दिया। 1974 में जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में हुए संपूर्ण आंदोलन के बाद देश की नौजवान पीढ़ी के सामने यह अपनी तरह का अनोखा अनुभव था और उन्होंने इस आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा भी लिया। कुल मिलाकर आजादी के बाद भ्रष्टाचार और महंगाई जैसी समस्याओं से जूझे रहे आम आदमी को इस आंदोलन ने एक उम्मीद जगाई थी, लेकिन देखते ही देखते यह आंदोलन मुद्दे से भटककर व्यक्ति विशेष पर सिमटता दिखाई दिया। मैग्सेसे पुरस्कार विजेता राजेंद्र सिंह और गांधीवादी पीवी राजगोपाल जैसे लोगों ने अन्ना के आंदोलन से दूरी बना ली। राजेंद्र सिंह का कहना था कि अन्ना और अरविंद केजरीवाल तानाशाह हैं और यह आंदोलन दलगत राजनीति की गलत दिशा में जा रहा है। राजेंद्र सिंह का यह भी कहना था कि इन दोनों को समझना चाहिए कि लाखों लोग अन्ना और केजरीवाल के लिए नहीं आए थे, वे देश में भ्रष्टाचार रोकने के लिए जमा हुए थे। आंदोलन से मुद्दे गायब होते गए और तथाकथित अन्ना मंडली से जुड़े लोग खुद के चेहरे चमकाने में ज्यादा लगे रहे। ये वे लोग थे, जिन्हें यह पता था कि मीडिया की सुर्खियां बटोरने के लिए किस तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं। अन्ना जैसी शख्सियत की नीयत पर शक नहीं किया जा सकता। रालेगण सिद्धि में उनके योगदान की अनदेखी नहीं की जा सकती। बिजली और पानी की कमी से जूझ रहे इस गांव की उन्होंने तस्वीर बदल दी। अन्ना ने गांव के लोगों को नहर बनाने और गड्ढे खोदकर बारिश का पानी जमा करने के लिए न केवल समझाया, बल्कि खुद भी इस काम में उनके साथ खड़े दिखाई दिए। गांव में सौर ऊर्जा से लेकर गोबर गैस के जरिए बिजली आपूर्ति का इंतजाम किया गया। अन्ना के प्रयासों से रालेगण सिद्धि की तस्वीर बदल गई। महाराष्ट्र में अन्ना के अनशन की वजह से कई बार भ्रष्ट मंत्रियों और अधिकारियों को अपना पद छोड़ना पड़ा। दरअसल, सवाल अन्ना का नहीं, बल्कि उनकी समूची मंडली का है, जिसने जनता और मीडिया का ध्यान खींचने के लिए कहीं न कहीं अन्ना की मौलिकता को भी खत्म करने की कोशिश की। यह ठीक है कि अन्ना हमेशा सफेद खादी के कपड़े पहनते रहे हैं और सिर पर गांधी टोपी पहनते हैं, लेकिन इस आधार पर अन्ना को पूरी तरह गांधीवादी नहीं कहा जा सकता और न ही अन्ना ने इस आंदोलन के पहले खुद को इस तरह कभी पेश किया। हालांकि आंदोलन के वक्त इसे अन्ना मंडली का प्रबंधन कहा जाए या फिर स्वप्रेरित होकर अन्ना हजारे गांधी टोपी पहनकर राजघाट पर जाकर मौन व्रत धारण करके बैठ गए, लेकिन इन बातों ने आम लोगों का ध्यान जरूर खींचा। सवाल यह उठता है कि अन्ना हों या फिर अन्ना मंडली, इन लोगों को देश की जनता को यह बताना होगा कि क्या वाकई उन्हें गांधीवादी मूल्यों पर भरोसा है? जनमत संग्रह के मसले पर जब अन्ना मंडली के सदस्य प्रशांत भूषण की पिटाई की गई तो अन्ना हजारे ने इसकी निंदा करते हुए यह बयान दिया था कि किसी को भी कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार नहीं है, लेकिन केंद्रीय मंत्री शरद पवार को थप्पड़ मारने वाली घटना पर खुद अन्ना हजारे का यह बयान आता है कि क्या एक ही थप्पड़ मारा? यह जरूरी नहीं कि गांधी टोपी पहनने वाला कोई भी शख्स पूरी तरह से गांधीवादी मूल्यों का समर्थक हो, लेकिन जनता अन्ना मंडली से यह जानना चाहती है कि समाज में आंदोलन और क्रांति का तरीका गांधीवादी होगा या फिर कोई दूसरे तरीके से देश में बदलाव की बात की जा रही है। कभी बाबा रामदेव के साथ मिलकर आवाज उठाने वाली टीम अन्ना ने वर्चस्व की लड़ाई के चलते उनसे दूरियां बना ली तो कभी मुंबई में अन्ना के आंदोलन को समर्थन नहीं मिलने के बाद इन लोगों ने एक बार फिर से बाबा रामदेव का समर्थन मांगा। दरअसल, टीम अन्ना के बड़बोलेपन और वर्चस्व की लड़ाई की वजह से देश में भ्रष्टाचार का मसला हाशिए पर आता दिख रहा है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन टीम अन्ना का नहीं, बल्कि देश की जनता का आंदोलन था और इसे जनता का आंदोलन ही बनाए रखना चाहिए था। अन्ना और उनकी मंडली को समझना होगा कि देश की जनता लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करती है। अगर ऐसा नहीं होता तो अब तक नक्सली आंदोलन देश में पूरे चरम पर होता। संवैधानिक और लोकतांत्रिक मर्यादाओं के दायरे में रहकर अगर देश की राजनीति और समाज में सकारात्मक आंदोलन की बात होगी तो एक बार फिर पूरा देश अन्ना के साथ खड़ा दिखाई देगा। (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

छठे चरण में 60% मतदान


उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के छठे चरण में मंगलवार को 60 फीसद से ज्यादा मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। इसके पूर्व वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में छठे चरण में 46.86 फीसद मतदान हुआ था। इस चरण में राज्य के पश्चिमी क्षेत्रों के 13 जिलों की 68 सीटों के लिए मतदान हुआ। मतदान के दौरान छिटपुट घटनाएं भी हुईं। बागपत जिले के बड़ौत विधानसभा क्षेत्र के ढिकाना गांव में मतदान को लेकर राष्ट्रीय लोकदल के समर्थकों ने दलितों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा। आगरा के एत्मादपुर विधानसभा क्षेत्र के खंदौली के गांव शेरखान में बसपा और भाजपा कार्यकर्ताओं की भिड़ंत में कई लोगों को चोटें आई। विवाद की शुरुआत कथित रूप से एक व्यक्ति को पोलिंग कर्मचारियों द्वारा मतदान से रोके जाने से हुई। इस बीच, किसी ने गोली चला दी जिससे एक व्यक्ति घायल हो गया। दोनों पक्षों के बीच हुए पथराव में सेक्टर मजिस्ट्रेट और एक पोलिंग कर्मचारी को चोटें आयीं। डिबाई में सपा प्रत्याशी गुड्डू पंडित के खिलाफ दो मामले दर्ज किए गए हैं। दानपुर ब्लाक की प्रमुख ने उनके खिलाफ मारपीट और अस्पृश्यता अधिनियम के तहत मामला दर्ज कराया है। सहारनपुर के 106 हुसैन मलक बूथ और 108 शाहपुर मतदान केंद्र पर लोगों ने मतदान का बहिष्कार किया। इसका कारण गांव का विकास न होना बताया गया है। राज्य के मुख्य निर्वाचन अधिकारी उमेश सिन्हा ने बताया कि छठे चरण में सायं 5.00 बजे तक 60.08 फीसद मतदान हुआ है।  मतदान शांतिपूर्ण हुआ और कहीं से किसी भी तरह की कोई गंभीर शिकायत नहीं मिली। श्री सिन्हा ने कहा कि गाजियाबाद के 57 मोदीनगर विधानसभा क्षेत्र के पोलिंग सेन्टर 67 एसआर पब्लिक स्कूल, विजय नगर में ईवीएम के माकपोल न किये जाने के कारण दोबारा मतदान कराया जाएगा। छठे चरण में 86 महिला समेत 1103 प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं। यह चरण प्रत्याशियों के लिहाज से सबसे बड़ा था। श्री सिन्हा ने बताया कि इस चरण में मतदाताओं की संख्या दो करोड़ 14 लाख थी। मतदान के लिए 12 हजार 70 पोलिंग सेन्टर और 21 हजार 317 पोलिंग स्टेशन बनाए गए थे। इसमें 30 हजार से ज्यादा ईवीएम का प्रयोग किया गया। उन्होंने बताया कि छठे चरण में सहारनपुर में 64.86 फीसद, प्रबुद्ध नगर- 59.33 , मुजफ्फरनगर- 59.17, मेरठ- 60.86, बागपत- 55.67 , गाजियाबाद - 58.00 , पंचशील नगर- 60.67, गौतमबुद्ध नगर- 55.60, बुलंदशहर- 61.07 , अलीगढ़- 60.00, महामाया नगर- 60.5 , मथुरा- 63.80 और आगरा में 58.82 फीसद मतदान हुआ है। फिलहाल, इसमें आंशिक बढ़ोतरी भी हो सकती है। उन्होंने बताया कि सहारनपुर के चार विधानसभा क्षेत्रों में सर्वाधिक 69 फीसद मतदान हुआ है। इसके अलावा अलीगढ़, बुलन्दशहर, मथुरा, मेरठ, पंचशीलनगर, महामायानगर में 60 फीसद से ज्यादा मतदान हुआ। उन्होंने बताया कि अब तक प्रदेश के 65 जिलों में मतदान हो चुका है। इन सभी जिलों में कुल मतदान प्रतिशत 58.40 है जो आजादी के बाद का सबसे ज्यादा मतदान प्रतिशत है। मुख्य निर्वाचन अधिकारी ने बताया कि छठे चरण में कुल 68 शिकायतें आयी थीं। इनमें 27 ईवीएम की खराबी और शेष मतदाता सूची, फोटो आईकार्ड, वोटर पर्ची आदि के थे। सभी शिकायतों की जांच करायी गयी। इनमें कई शिकायतें फर्जी पायी गयीं। गाजियाबाद में एक्टिविस्ट अरविन्द केजरीवाल के मतदान न डाल पाने के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि मतदाता को भी देखना चाहिए कि उसका नाम मतदाता सूची में है अथवा नहीं। बावजूद इसके वह इस मामले की जांच करायेंगे कि इसमें गलती बीएलओ के स्तर से है अथवा कहीं और से। यह चरण राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष चौ. अजित सिंह और पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के लिए खासतौर पर प्रतिष्ठा से जुडा है क्योंकि दोनों के पुत्र चुनाव मैदान में हैं। श्री चौधरी के सांसद पुत्र जयन्त चौधरी मथुरा की मांट सीट से उम्मीदवार हैं जबकि कल्याण सिंह के पुत्र राजवीर सिंह बुलन्दशहर की डिबाई सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। इसके अलावा ऊर्जा मंत्री रामवीर उपाध्याय सिकन्दराराऊ से, कृषि मंत्री लक्ष्मी नारायण चौधरी छाता से, बसपा के मंत्री ठाकुर जयवीर सिंह बरौली से, सपा के अरिदमन सिंह, पूर्व मंत्री चौधरी बशीर, रालोद प्रदेश अध्यक्ष बाबा हरदेव सिंह, बसपा के धर्मपाल सिंह, रालोद से हाजी याकूब, किठौर सीट से बसपा के लखीराम नागर, वेदराम भाटी, रालोद से कोकब हमीद, डिबाई से सपा से भगवान शर्मा, बसपा के धर्म सिंह सैनी, सपा के किरनपाल कश्यप आदि प्रमुख प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं। मंगलवार को टीम अन्ना के अन्य सदस्य कुमार विास और राष्ट्रीय लोकमंच के अध्यक्ष सांसद अमर सिंह ने गाजियाबाद के साहिबाबाद में वोट डाला जबकि पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने अलीगढ़ में और केन्द्रीय उड्डयन मंत्री चौधरी अजित सिंह ने बागपत में अपना वोट दिया। मतदान के दौरान हुई छिटपुट घटनाओं में मुजफ्फरनगर के जानसठ विधानसभा क्षेत्र के सूजड़ू गांव स्थित मतदान केंद्र पर उस समय हंगामा मच गया जब बसपा सांसद कादिर राणा ने एक युवक पर यह आरोप लगाते हुए थप्पड़ जड़ दिया कि वह मतदाताओं को एक प्रत्याशी विशेष के पक्ष में मतदान करने के लिए दबाव डाल रहा है। व्यवस्था से खफा और पुल, सड़क या स्कूल निर्माण न किए जाने के खिलाफ कई स्थानों पर लोगों ने मतदान का बहिष्कार कर अपने गुस्से का इजहार किया। जानसठ विधानसभा क्षेत्र के ढांसरी में सड़क न बनाए जाने के विरोध में ग्रामीणों ने वोटिंग का बहिष्कार कर दिया। बाद में हालात बिगड़ने पर पुलिस को बल प्रयोग करना पड़ा। मेरठ दक्षिण विधानसभा क्षेत्र के ततीना के ग्रामीणों ने मतदान का सामूहिक बायकॉट किया। गांव वाले मेरठ-मुरादाबाद रेल लाइन पर गांव के निकट मानव रहित फाटक बंद किए जाने से नाराज थे। उन्होंने रेल ट्रैक पर डेरा डाल दिया। बाद में प्रशासन ने बड़ी मुश्किल से उन्हें वहां से हटाया, लेकिन ग्रामीणों ने खुद को मतदान प्रक्रिया से विरत रखा। बेहट (सहारनपुर) से भी बहिष्कार की रिपोर्ट मिली है। बुलंदशहर के शिकारपुर विधानसभा क्षेत्र के पहासू के पड़ागांव के ग्रामीणों ने विकास में पर्याप्त हिस्सेदारी न मिलने पर चुनाव का बहिष्कार किया। नोएडा विधानसभा क्षेत्र के बहलोलपुर पोलिंग बूथ पर क्षेत्रीय सांसद व पुलिस के बीच झड़प हो गई। बाद में समर्थकों के साथ सांसद ने सड़क पर जाम लगा दिया। सूचना मिलने पर डीआईजी ज्योति नारायण दल- बल के साथ मौके पर पहुंचे और समझा-बुझाकर जाम खत्म कराया।

छठवें चरण में वोटर भी बढ़े और मतदान भी


राज्य के मुख्य निर्वाचन अधिकारी उमेश सिन्हा के मुताबिक छठवें चरण के मतदान में 45 फीसद अधिक लोगों ने वोट डाले। पिछले चुनाव में यहां 89.48 लाख मतदाताओं ने वोट डाले थे। इस बार यह संख्या बढ़कर एक करोड़ 39 लाख है। मतदाताओं की संख्या के हिसाब से यह वृद्धि 45 फीसद है। वैसे मतदान प्रतिशत में भी 13.05 प्रतिशत वृद्धि हुई है। गत चुनाव में यहां सिर्फ 46.81 प्रतिशत ही मतदान हुआ था जो इस बार 60.10 फीसद है। मतदान के दौरान 68 शिकायतें आईं जिनमें अधिकांश मतदान सूची में नाम न होने व वोटर पर्ची से जुड़ी शिकायतें थीं। इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन में गड़बड़ी की 28 शिकायतें आईं जिन्हें दूर कराया गया। उन्होंने बताया कि आयोग ने 365 मतदान केंद्रों से मतदान का सीधा प्रसारण किया। इसके अलावा 1015 वीडियो कैमरे व 2353 डिजटल कैमरे लगाए। हर केंद्र पर केंद्रीय पुलिस बल मौजूद रहा। एक लाख पंद्रह हजार कर्मचारियों ने चुनाव संपन्न कराया। विकास कार्य न होने से क्षुब्ध होकर सहारनपुर के बेहट विधानसभा क्षेत्र के दो गांवों हुसैन मलक और शाहपुरा ने मतदान का बहिष्कार किया। यह पूछे जाने पर कि कुछ स्थानों पर मतदाताओं को वोट देने से रोकने के आरोप सामने आए हैं, उन्होंने कहा कि अभी तक आयोग के सामने यह मामला नहीं आया है। कहीं से हिंसा का समाचार भी नहीं प्राप्त हुआ।

किसानों की जमीन नीलाम नहीं होने देगी सपा : मुलायम


सपा सुप्रीमो व सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव बसपा और कांग्रेस पर जमकर बरसे। उन्होंने कहा कि सत्ता में आए तो किसानों की जमीन नीलाम नहीं होने देंगे। वैट की तरह यूपी में विदेशी खुदरा व्यापार नहीं होने देंगे। कैंसर जैसे गंभीर बीमारियों से पीडि़त मरीजों का सरकारी खर्चे से उपचार कराया जाएगा। सपा सुप्रीमो मंगलवार को बरेली और बदायूं में जनसभाओं को संबोधित कर रहे थे। बसपा सरकार पर प्रहार करते हुए उन्होंने कहा कि पांच साल में इस सरकार ने बस पत्थर लगवाने और रुपया गिनने का काम किया। सवाल किया कि मुख्यमंत्री बताएं कि उन्होंने दलितों के लिए क्या किया? दलितों की बेटियों के साथ बलात्कार की 19 सौ घटनाएं हुई, लेकिन किसी के खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई। कहा, बीएसपी के विधायक ही बलात्कारी हैं। बदायूं और बांदा की घटनाएं इसका उदाहरण हैं। अब ऐसी दलित विरोधी सरकार को उखाड़ फेंकने का समय आ गया है। कहा, सत्ता में आने पर किसानों का 50 हजार का कर्ज मांग करेंगे। 4 प्रतिशत पर किसानों को कर्ज मुहैया कराएंगे। किसी किसान की जमीन को नीलाम नहीं होने देंगे। कक्षा 12 तक की पढ़ाई अनिवार्य की जाएगी। कापी-किताबें मुफ्त की जाएंगी। अच्छे नंबर से पास होने वाले छात्र-छात्राओं को 25 हजार रुपये का इनाम दिया जाएगा।

Monday, February 27, 2012

दलितों-पिछड़ों की बदहाली को कांग्रेस, सपा, भाजपा जिम्मेदार

मुख्यमंत्री सुश्री मायावती ने दलित पिछड़ी जाति एवं किसानों की बदहाली के लिए सपा, कांग्रेस भाजपा को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने रालोद के गढ़ में चौधरी अजितंिसंह पर कटाक्ष करते हुए कहा कि लम्बे समय से अपने पूर्वजों के नाम पर श्री सिंह राजनीति करते आये हैं उन्हें विकास से कोई लेना देना नहीं है। उन्होंने कहा कि बसपा ने सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय की नीति के तहत प्रदेश का विकास किया है। बागपत के दिल्ली- सहारनपुर हाईवे पर एक मैदान में जनसभा को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि बसपा प्रदेश की अकेली एक ऐसी पार्टी है जो 403 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। उन्होंने कहा कि चौधरी अजितंिसंह ने कुर्सी के लालच में क्षेत्र के विकास की अनदेखी की है। इसके अलावा उन्होंने कहा कि बसपा दलित पिछड़ों तथा किसानों की हिमायती रही है। सपा कार्यकाल का बकाया गन्ना भुगतान 2 हजार 600 करोड़ रुपए किसानों को दिलाया तथा किसानों को 125 रुपए की जगह 250 रुपए प्रति क्विंटल गन्ने का दाम दिलवाया। एक हजार पांच सौ करोड़ रुपए बिजली बिल माफ कराये तथा भूमि अधिग्रहण मामले में नई नीति बनाकर किसानों को लाभ दिलाया। एक करोड़ बेरोजगार लोगों को रोजगार दिलाया, 25 लाख तक ठेकों में आरक्षण दिलाया गया। बिजली क्षेत्र में ऐतिहासिक फैसला लेने का बसपा ने निर्णय लिया है जिसके तहत 24 घंटे प्रदेश की जनता को बिजली देने का वादा किया है। उन्होंने कहा कि डॉ. अम्बेडकर योजना के तहत अभूतपूर्व विकास किया गया। उन्होंने यह भी कहा कि प्रदेश का चार भागों में विभाजन कर विकास के लिए केन्द्र सरकार को प्रस्ताव भेजा, लेकिन यूपीए की सरकार पूर्वांचल, बुंदेलखंड, पश्चिमी उत्तर प्रदेष तथा अवध प्रदेश बनाना नहीं चाहती है। उन्होंने यूपीए सरकार की गलत आर्थिक नीतियों के कारण महंगाई बढ़ना तथा दलित पिछड़ों, गरीब बेरोजगारों की बदहाली के लिए जिम्मेदार सपा, भाजपा, कांग्रेस को बताया। उन्होंने कहा कि हम कानून द्वारा कानून का राज स्थापित कर सपा, भाजपा आदि राजनीतिक दलों की गुंडई को समाप्त करना चाहते हैं। उन्होंने भ्रष्टाचार पर कहा कि विरोधी पार्टियां भ्रष्टाचार के दलदल में फंसी हुई हैं। एसएनबी चौधरी अजित सिंह ने पूर्वजों के नाम पर की राजनीति, कांग्रेस, सपा व भाजपा ने काला धन जमा किया विदेश में

राकांपा का चुनावी घोषणा पत्र जारी

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) ने तीन मार्च को गोवा में होने वाले विधानसभा के चुनाव के लिए आज अपना चुनावी घोषणापत्र जारी कर दिया। राकांपा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में वादा किया है कि यदि उनकी सरकार आयी तो पार्टी एक अच्छा प्रशासन, स्थिर सरकार, राज्य का विकास, पारदर्शी और भ्रष्टमुक्त सरकार देगी। राकांपा के गोवा प्रदेश इकाई के अध्यक्ष सुरेंद्र सिरसाट, पर्यटन मंत्री नीलकंट हडंकर और पार्टी के अन्य नेताओं के समक्ष पार्टी के महाराष्ट्र के पूर्व विधायक और चमड़ा बोर्ड के अध्यक्ष संदेश कुनवेल्कर ने बृहस्पतिवार को यहां पार्टी का चुनावी घोषणा पत्र जारी किया। चुनावी घोषणा पत्र जारी करने के बाद श्री सिरसाट ने संवाददाताओं को बताया कि राकांपा पूरे देश में मजबूती के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है और तीन राज्यों गोवा, नगालैंड और महाराष्ट्र में अन्य पार्टियों के साथ सरकार में शामिलहै। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने घोषणा पत्र में यह भी कहा है कि गोवा के पर्यावरण पर भी ध्यान दिया जाएगा तथा पार्टी गैर कानूनी खान की खुदाई और कच्चे लोहे को पड़ोसी राज्यों में चोरी छुपे भेजने पर भी प्रतिबंध लगाएगी। पार्टी राज्य में लोकायुक्त लाएगी। स्कूलों में प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा या स्थानीय भाषा दिलाने का वादा किया। गोवा के लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने वाली कृषि क्षेत्र के विकास की योजनाओं को प्राथमिकता दी जाएगी। गोवा में पर्यटन को बढ़ावा और उसके विकास के लिए निजी क्षेत्र की सहभागिता और ढांचागत निर्माण पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। राज्य को वैिक श्रेणी का पर्यटन केंद्र बनाने का भी वादा किया है।

राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं राहुल


उत्तर प्रदेश का चुनावी माहौल चरम पर है। बसपा, सपा, कांग्रेस और भाजपा के बीच सत्ता की जंग अपने पूरे शबाब पर है। लेकिन इस दौर में अगर सबकी नजर किसी नेता पर है तो वे हैं कांग्रेस के युवा नेता राहुल गांधी और सपा के अखिलेश यादव। दोनों युवा नेता अपने-अपने अंदाज में चुनाव प्रचार में डटे हैं और एक-दूसरे के खिलाफ जमकर मोर्चा संभाले हुए हैं। लेकिन आजकल जिसकी ज्यादा चर्चा हो रही है, बेशक वह हैं कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी। उन्हें भारतीय राजनीति का अपरिपक्व युवा चेहरा बताया जा रहा है, लेकिन हाल के दिनों में कई मौकों पर उन्होंने अपनी राजनीतिक परिपक्वता दिखाई है। यह बात और है कि कुछ राजनीतिक विश्लेषक इसे उनका राजनीतिक तिकड़म बता रहे हैं। पिछले दिनों राहुल गांधी ने एक मंच से विपक्षी समाजवादी पार्टी का घोषणा पत्र यह कहते हुए फाड़ दिया था कि यह पार्टी बड़े-बड़े दावे तो करती है, लेकिन सत्ता में आने के बाद सब धरे के धरे रह जाते हैं। राहुल यहीं नहीं रुके, उन्होंने विपक्षी दलों के घोषणा पत्रों का जमकर माखौल भी उड़ाया। राहुल गांधी के इस रुख से सपा सहित तमाम विपक्षी दलों के नेता अवाक रह गए। पर जब मीडिया ने राहुल गांधी द्वारा फाड़े गए पर्चे का क्लोजअप दिखाया, तो उनकी पोल खुल गई। दरअसल, वह सपा का घोषणा पत्र नहीं, बल्कि कांग्रेस पार्टी के उन नेताओं के नामों की लिस्ट थी, जिन्हें मंच पर बोलना था। यहां यह सवाल भी उठता है कि क्या सपा का घोषणा पत्र बताते हुए कांग्रेसी नेताओं के नाम की सूची फाड़कर राहुल ने राज्य में त्रिशंकु विधानसभा की संभावनाओं के बीच कांग्रेस-सपा के भावी गठबंधन पर रोक लगा दी है? दरअसल, तमाम राजनीतिक विश्लेषक यह अनुमान लगा रहे थे कि अगर राज्य में किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला तो पर्याप्त संख्या बल के लिहाज से सपा और कांग्रेस मिलकर सरकार बना सकते हैं। इस भावी गठबंधन के भी दो फायदे होते। पहला तो यह कि 22 सालों से प्रदेश की सत्ता से दूर कांग्रेस की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित होती और दूसरा केंद्र की संप्रग सरकार को सपा के रूप में नया खेवनहार मिल जाता तथा संप्रग सरकार की प्रमुख सहयोगी तृणमूल कांग्रेस से कांग्रेस पल्ला झाड़ने का साहस जुटा लेती। मगर दाद देनी होगी राहुल की इस हिम्मत की कि उन्होंने खुले मंच से यह जताने की कोशिश कर दी कि उनकी पार्टी भले ही विपक्ष में बैठना स्वीकार कर लेगी, मगर चुनाव बाद सपा से कोई गठबंधन नहीं करेगी। शायद राहुल को यह तथ्य अच्छी तरह समझ में आ गया होगा कि कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों के क्षेत्रीय दलों को समर्थन देने से ही राज्य में इनका नामलेवा तक नहीं बचा है और भविष्य में भी अगर यही हाल रहा तो हो सकता है कि अपने बचे-खुचे अस्तित्व से जूझती इन पार्टियों को पुन: अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने में दशकों का समय लगे। खैर, राहुल के इस तेवर ने प्रदेश में चल रहे सियासी गुणा-भाग को और उलझा दिया है। राहुल के पर्चा कांड के बाद मुलायम सिंह ने हमीरपुर की जनसभा में यह कहकर राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ा दीं कि अगर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने के संकेत दिखते हैं तो उनकी पार्टी कांग्रेस के साथ गठबंधन कर सकती है। हालांकि बाद में अपनी गलती का एहसास होते ही वह अपनी बात से पलट गए, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। उनका यह संदेश राज्य की जनता के बीच पहुंच चुका था। मुलायम सिंह के इस रंग-बदलू व्यवहार से निश्चित ही समाजवादी पार्टी को आगामी दो चरणों के चुनाव में नुकसान होने का अंदेशा है। राज्य की जनता को यह समझ आने लगा है कि जब सपा येन-केन प्रकारेण कांग्रेस से गठबंधन को अति-आतुर दिख रही है तो फिर अपने बहुमूल्य वोट का नुकसान क्यों? जानकारों की राय में इससे कांग्रेस, भाजपा और बसपा जैसी विपक्षी पार्टियों का जनाधार बढ़ना तय है। एक ओर जहां युवा तुर्क अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा पूरे प्रदेश में साइकिल की चाल को तेज करने में लगी हुई है तो वहीं मुलायम सिंह अपनी बयानबाजियों से अखिलेश की राह में रोड़ा बन रहे हैं। बहरहाल, नेताओं के हालिया बयानों और विवादों ने यकीनन राज्य में राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ा दी हैं। मगर अंदरखाने क्या खिचड़ी पक रही है, कोई नहीं कह सकता। अब तो विधानसभा चुनाव के बाद ही पूरी तस्वीर साफ हो पाएगी और इसमें प्रदेश की जनता की मन:स्थिति यकीनन बड़ा कारक होगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

राहुल गांधी बनाम अखिलेश यादव


उत्तर प्रदेश चुनाव में जिन दो युवाओं ने सबका ध्यान खींचा है, वे हैं समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव और कांग्रेस पार्टी के महासचिव राहुल गांधी। हालांकि दोनों में समानता है तो केवल इतनी कि दोनों युवा हैं और दोनों को नेतृत्व उनके परिवार की पृष्ठभूमि से मिला है। दोनों की उच्च शिक्षा भी विदेश में हुई। कार्यशली की दृष्टि से देखें तो दोनों ने अपने चुनाव अभियान में सूचना तकनीक का प्रयोग किया है। दोनों अपने वार रूम से लगातार संपर्क में रहते हैं। फेसबुक पर लगातार अपडेट करते रहते हैं। जिस क्षेत्र में चुनावी सभा करनी है, वहां पहले के चुनावों के परिणाम, जनांकिकी, इतिहास, राजनीति के ऐसे लोग जिनका असर आज भी लोगों पर हो और वहां संपर्क करने योग्य नामों की जानकारी तत्क्षण वे प्राप्त करते हैं। अखिलेश फेसबुक, ट्विटर और वर्चुअल व‌र्ल्ड की हर सोशल नेटवर्किग साइट पर मौजूद हैं। अपनी हर सभा के पहले कहा जाता है कि वे इन पर खुद को अपडेट करते हैं। यही हाल राहुल गांधी का है। वैसे राहुल का वार रूम अखिलेश से ज्यादा शक्तिशाली है, जिसकी खोज-खबर वह खुद लेते रहते हैं। राहुल द्वारा चुनाव में हर प्रकार की आधुनिक तकनीक का उपयोग करना स्वाभाविक लगता है। इसके पहले के चुनावों में भी राहुल का सूचना तकनीकों से सुसज्जित वार रूम ऐसे ही सक्रिय था, लेकिन समाजवादी पार्टी के बारे में धारणा इसके विपरीत थी। अमर सिंह के प्रभाव से मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी में फिल्मी कलाकारों, नामी सोशलाइटों, उद्योग एवं व्यापार जगत की हस्तियों सहित हर प्रकार के ग्लैमर को तो स्वीकार किया, लेकिन विचारों के स्तर पर माना जाता है कि उनका कारवां डॉ. राममनोहर लोहिया के खांटी अंग्रेजी विरोध और देसी आचारण तक सीमित रहा। जाहिर है, अखिलेश ने समाजवादी पार्टी के साथ-साथ मुलायम सिंह की भी सोच बदली है। क्रांति यात्रा की तैयारी में सपा की वेबसाइट को अपग्रेड करके लांच करना भी शामिल था। इस समय सपा भी सोशल नेटवर्किग वेबसाइटों पर मौजूद है। यह सपा का अखिलेश संस्करण है। दोनों युवा नेताओं की इस शैली को चुनाव में कितना लाभ मिलता है, यह अलग से मूल्यांकन का विषय है। कह सकते हैं कि अखिलेश ने सूचना तकनीक के प्रयोग और साइबर स्पेस की दुनिया में सपा को भी कांग्रेस के मुकाबले खड़ा किया है। लेकिन राहुल गांधी की बढ़ी दाढ़ी तथा भंगिमा में गुस्सैल युवा दिखने की छवि अखिलेश से अलग है। 14 नवंबर 2011 को फूलपुर से अभियान की शुरुआत करते समय जब उन्होंने युवाओं को ललकारा कि क्यों दूसरे राज्यों में भीख मांगने जाते हो तो इसकी आलोचना भी हुई, पर दरअसल यह एक रणनीति थी, जिसके द्वारा यह प्रदर्शित किया गया था कि कांग्रेस के युवा नेता के अंदर उत्तर प्रदेश की दुर्दशा के कारण गुस्सा वैसे ही है, जैसे कि अन्य युवाओं के अंदर। वह आगे बढ़कर युवाओं के साथ मिलकर प्रदेश को बदलना चाहते हैं। फिर चुनावी सभा में घोषणा पत्रों को कागजी वादों की फेहरिस्त बताते हुए प्रतीक के तौर पर कागज का टुकड़ा फाड़कर राहुल ने यही प्रदर्शित किया कि उनके अंदर उत्तर प्रदेश की दुर्दशा को लेकर उन सारी पार्टियों के खिलाफ गुस्सा है, जिन्होंने सिर्फ वादे किए। जाहिर है, राहुल युवाओं को अपनी ओर खींचना चाहते हैं। 1970-80 के दशक में अमिताभ बच्चन की गुस्सैल युवा की फिल्मी छवि ने भारी संख्या में युवाओं को उनकी ओर खींचा था। राजनीति में यह सफल होगा या नहीं, इसका मूल्यांकन करना अभी जल्दबाजी होगी। अखिलेश भी विरोधियों पर हमला करते हैं, लेकिन उनके चेहरे से गुस्सा नहीं झलकता। वे शांत तरीके से अपनी बात रखते हैं। राहुल की इस भंगिमा पर उनकी टिप्पणी थी कि कांग्रेस के नेता अभी कागज फाड़ रहे हैं, आगे वह मंच से कूदने लगेंगे। वह शांति से कहते हैं कि उत्तर प्रदेश और देश की दुर्दशा के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेवार तो वही दल होगा, जिसने सबसे अधिक समय तक शासन किया। फिर पूछते हैं कि किसने सबसे अधिक राज किया? दोनों की शैली में अंतर साफ दिखता है। इसका कारण भी उत्तर प्रदेश की राजनीति में दोनों की और उनकी पार्टियों की हैसियत है। अखिलेश को प्रदेश में एक सशक्त जानाधार, पार्टी के पक्ष में एक मजबूत सामाजिक समीकरण तथा विधायकों, सांसदों, स्थानीय निकायों में जन प्रतिनिधियों के विशाल समूह के साथ एक सक्रिय और जीवंत पार्टी इकाई मिली है। इसके विपरीत राहुल को कांग्रेस का ऐसा जर्जर और नष्ट ढांचा मिला, जिसका जनाधार विलुप्त था। सामाजिक समीकरण तो न जाने कब का समाप्त हो चुका है। वस्तुत: जब राहुल ने कमान संभाली कांग्रेस मर चुकी थी। साथ ही प्रदेश में ऐसा कोई नेता भी नहीं मिला, जिसे आगे बढ़ाकर राहुल कांग्रेस को पुनजीर्वित करने की कोशिश करें। सब कुछ उनके अपने कंधे पर था और है। अखिलेश के पिता मुलायम सिंह यादव खुद अभी सक्रिय हैं और अन्य ऐसे नेता हैं, जिनका अपने-अपने क्षेत्रों में प्रभाव है। यही अंतर उत्तर प्रदेश में दोनों के बीच विषमता की खाई को रेखांकित करते हैं। आखिलेश जहां है, उन्हें उससे आगे बढ़ना है और इसलिए उन्होंने युवाओं को अपने साथ जोड़ने के लिए सोशल नेटवर्क का सहारा लेकर टैब्लेट, लैपटॉप और इंटरनेट कनेक्शन तक के वादे किए। अगर युवाओं का थोड़ा हिस्सा भी उनके साथ आ जाए तो फिर पिछले चुनाव की कमी की भरपाई हो जाएगी। राहुल के सामने पार्टी इकाई खड़ी करते हुए कांग्रेस को चुनावी सफलता दिलाना चुनौती है। इसके लिए हर वर्ग समूह से भारी संख्या में मतदाताओं को खींचने और ठोस समाजिक समीकरण विकसित करने की जरूरत है। लोकसभा चुनाव में हालांकि राहुल ने कांग्रेस के ग्राफ को काफी ऊंचा उछाल दिया, लेकिन वह एक अस्थाई प्रवृत्ति थी। वैसे उतने से भी राहुल गांधी का उत्तर प्रदेश मिशन पूरा नहीं होता। राहुल और अखिलेश में मूल अंतर यह भी है कि अखिलेश की सीमा उत्तर प्रदेश ही है, जबकि राहुल के लिए यह कांग्रेस को राष्ट्रीय राजनीति में शीर्ष पर लाने और बनाए रखने के मिशन का प्रमुख अंग है। उनकी सोच यह है कि उत्तर प्रदेश में जब तक कांग्रेस शीर्ष पर थी, राष्ट्रीय राजनीति पर भी उसका वर्चस्व था। उत्तर प्रदेश में शिखर से शून्य तक जाने के साथ ही राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस कमजोर हुई। राहुल को उस तरह का स्वाभाविक राजनीतिक प्रशिक्षण भी नहीं मिला, जैसा अखिलेश को मिला है। अखिलेश ने अपने पिता और उनके सहयोगियों की गतिविधियों को निकट से देखा-समझा है। उनके पिता उन्हें राजनीति में लाए और वह आज भी सक्रिय मार्गदर्शक के रूप में मौजूद हैं। उनके कारण अखिलेश का अपने-आप नेताओं और कार्यकर्ताओं से संपर्क बनता गया। दूसरी ओर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद नेहरू परिवार की सुरक्षा व्यवस्था इतनी सख्त हुई कि खुलकर मिलना तक संभव नहीं रहा। जब राहुल विदेश में पढ़ाई कर रहे थे, उनके पिता राजीव गांधी की दुखद हत्या हो गई। उसके बाद सोनिया गांधी ने पूरे साढ़े छह वर्ष तक स्वयं और परिवार को सक्रिय सीधी राजनीति से दूर रखा। फलत: राहुल का न राजनीतिक प्रशिक्षण हुआ और न कार्यकर्ताओं-नेताओं से सीधा संपर्क ही। सोनिया गांधी ने जब दिसंबर 1997 से राजनीति की पारी आरंभ की तो वह मंच पर भाषण देने या फिर कांग्रेस की शीर्ष बैठकों तक सीमित रही। कुल मिलाकर राहुल को सब कुछ खुद करना पड़ा है। उन्हें गरीबी को समझने के लिए गरीब के पास जाना पड़ता है, उसके साथ रात बितानी पड़ती है। कई बार उन्हें स्थानीय भाषा समझने में कठिनाइयां आती हैं, जबकि अखिलेश के साथ ऐसा नहीं है। वैसे विदेशी शिक्षा के बावजूद अखिलेश के भाषणों और बोलने के अंदाज में स्थानीय बोली का प्रभाव साफ नजर आता है। राहुल इससे वंचित हैं। इन अंतरों के बावजूद दोनों ने अपनी-अपनी पार्टी को नए तेवर, नई शैली और संस्कार देने की कोशिश की है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

आधी दुनिया की अधूरी हिस्सेदारी


जहां एक और चुनावों में मतदाताओं की हिस्सेदारी बढ़ाने को लेकर चौतरफा मुहिम छिड़ी है वहीं उसमें महिला प्रत्याशियों की घटती हिस्सेदारी पर सब मौन हैं। अभी चल रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में जिस तरह महिला उम्मीदवारों की कम संख्या दिखी वह उनकी मतदाता के रूप में बेहतरीन सहभागिता के बिल्कुल विपरीत है। इस बार के चुनावों में पंजाब (93/1078) में साढ़े आठ प्रतिशत, उत्तर प्रदेश (482/5877) और उत्तराखंड (63/ 788) में आठ प्रतिशत, मणिपुर (15/279) में पांच प्रतिशत और गोवा (09/215) में केवल चार प्रतिशत महिला उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं। यह चिंता का विषय है। दो कारणों से यह चिंता और भी बढ़ जाती है। प्रथम, इतनी कम महिला प्रत्याशियों में मान्यता प्राप्त दलों के द्वारा उतारी गई महिला प्रत्याशियों की संख्या काफी कम है। ज्यादातर महिलाएं स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में लड़ रही हैं, जिनके जीतने की संभावना नगण्य है। द्वितीय, बीस साल से पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने के बाद भी राजनीतिक दलों के पास महिला उम्मीदवारों का टोटा क्यों है? या तो बीस साल तक लाखों महिलाओं को राजनीतिक अनुभव देने के बावजूद हम स्वीकार करें कि महिलाओं को आरक्षण द्वारा आगे करने का हमारा प्रयोग सफल नहीं रहा या फिर हमें कहना होगा कि हम महिलाओं को राजनीति में आगे करना ही नहीं चाहते। यहां हमें नहीं भूलना चाहिए कि इन सभी पांचों राच्यों में 2007 के विधानसभा चुनावों में मतदाता के रूप में महिलाओं की बड़ी जबरदस्त भागीदारी रही थी। 2012 के विधानसभा चुनावों में भी उनकी मतदाता के रूप में बहुत अच्छी साझेदारी रही है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15 महिलाओं को राच्य द्वारा लिंग भेद के विरुद्ध मौलिक अधिकार देता है और संविधान की उद्देशिका महिलाओं सहित सभी नागरिकों को अवसर की समानता का आश्वासन देती है, पर राजनीति में पुरुषों के बराबर महिलाओं की सहभागिता एक स्वप्न सा होकर रह गई है। यह ठीक है कि महिलाओं की आबादी के हिसाब से उनका आधा प्रतिनिधित्व हो, यह जरूरी नहीं, पर उतनी भी कम नहीं होनी चाहिए जितनी अभी है। राजनीतिक दल महिलाओं के लिए चाहे जितनी भी बड़ी बड़ी बातें करें, लेकिन टिकट देने के वक्त वे उन्हें भूल जाते हैं। क्यों? हमारे लोकतंत्र में राजनीतिक दलों द्वारा सच्चे अर्थो में दलीय-लोकतंत्र नहीं लाया जा सका। गांवों, कस्बों, शहरों व नगरों में राजनीतिक दलों ने संगठन बनाने और कार्य करने की कोई लोकतांत्रिक शैली विकसित नहीं की। सभी दलों में सामंतवादी दलीय व्यवस्था पनपी है और उसी आधार पर ये राजनीतिक दल हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को चलाना चाहते हैं। यह कैसे संभव हो सकता है? यही मूल कारण है कि हमारे लोकतंत्र और राजनीति में अनेक विसंगतियां आ गई हैं। सबसे कठिन चुनौती राजनीतिक दलों के निष्ठावान कार्यकर्ताओं के समक्ष आ गई है. जो कार्यकर्ता दल के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देते हैं उनको अपने ही दल में उस समय पीछे कर दिया जाता है जब संगठन में उनकी पदोन्नति होनी चाहिए या टिकट वितरण में उनको महत्व दिया जाना चाहिए। उस समय अक्सर कोई बाहरी या विरोधी दल से निकाला हुआ राजनीतिज्ञ आकर बाजी मार ले जाता है। इससे न केवल निष्ठावान कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटता है, वरन वे आगे के लिए यह सीख भी ग्रहण करते हैं कि संगठन के लिए काम करने से कुछ नहीं होता, बल्कि ऊपर के प्रभावशाली नेताओं के संपर्क में रहना ज्यादा लाभकारी होता है। इसी कारण चुनावों के समय सभी राजनीतिक दलों को टिकट वितरण में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। उनको चुनावों में कोई ऐसा स्थानीय प्रत्याशी दिखाई नहीं देता जो प्रभावशाली हो और पार्टी को विजय दिलवा सके। अत: वे किसी जिताऊ उम्मीदवार की ओर टकटकी लगा कर देखते हैं जो पैसे और बाहुबल से संपन्न हो। जाहिर है कि महिलाएं इन कसौटियों पर खरी नहीं उतरतीं, इसलिए उनका प्रत्याशियों के रूप में चयन काफी कठिन हो जाता है। किसी भी सामाजिक वर्ग को आगे बढ़ाने के लिए आरक्षण को अपरिहार्य मान लिया गया है। महिलाओं को भी आरक्षण के जरिये राजनीति में आगे करने की बात की जाती है। यही बात इस चुनाव में मुसलमानों के लिए भी की जा रही है। क्या वास्तव में आरक्षण से कोई भी सामाजिक वर्ग पूरा का पूरा आगे बढ़ सकेगा? वास्तव में आरक्षण का सहारा लेकर हम बहुत दूर नहीं जा सकते। सरकारों को यह सोचना पड़ेगा कि आरक्षण को सुशासन और लोक-कल्याण का विकल्प नहीं बनाया जा सकता। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आरक्षण से समाज में जो खेमेबाजी हो रही है वह जातिवाद और अब सांप्रदायिकता को और गहरा ही कर रही है। महिलाओं को राजनीति में आगे करने से पहले हमें उनको समाज में आगे करना पड़ेगा। पिछले पचास-साठ सालों में महिलाओं को लेकर परिस्थितियां बहुत बदली हैं। हमें ग्रामीण महिलाओं और मुस्लिम महिलाओं के बारे में खास तौर से सोचना चाहिए। उनकी शिक्षा के बारे में बहुत गंभीर होने की जरूरत है। हम सामाजिक व्यवस्था से डरकर अपनी महिलाओं को जितना ही घर के अंदर कैद करेंगे, महिला सशक्तीकरण का सफ़र उतना ही लंबा हो जाएगा। हमें इतनी महिलाओं को समाज में उतार देना होगा कि उनकी सामजिक उपस्थिति स्वयं उनमें आत्मविश्वास पैदा कर दे। महिलाओं को राजनीति में लाने का मतलब है कि उन्हें पुरुषों की तरह खट्टे-मीठे अनुभवों से दो-चार होना ही पड़ेगा। वह दिन भारतीय लोकतंत्र में बहुत महत्वपूर्ण होगा जब बिना आरक्षण के महिलाओं सहित समाज के सभी वर्गो की राजनीति में समुचित हिस्सेदारी होगी। (लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं) 12श्चश्रल्ल2@Aंॠ1ंल्ल.Yश्रे