Thursday, December 30, 2010

मीठा-मीठा गप, कड़वा-कड़वा थू

आत्मावलोकन में ईमानदारी कांग्रेस के लिएफायदेमंद होती, लेकिन पार्टी ने यह अवसर खो दिया है।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपनी स्थापना के 125 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में जो किताब जारी की है, वह इतिहास को अपने हिसाब से पेशकरने का विलक्षण उदाहरण है। कांग्रेस ऐंड द मेकिंग ऑफ द नेशन नाम की इस किताब का सबसे चौंकाने वाला हिस्सा वह है, जिसमें आपातकाल के दौरान ज्यादतियों के लिए संजय गांधी को जिम्मेदार ठहराते हुए उनसे पल्ला झाड़ लिया गया है। यह स्थापित सत्य है कि आपातकाल के दौरान संजय गांधी के कुछ फैसलों ने आम जनता को कांग्रेस के खिलाफ कर दिया था। लेकिन अब तक कांग्रेस संजय गांधी के बारे में चुप्पी साधे हुई थी। सीधी-सी बात है कि चूंकि गांधी परिवार का हिस्सा होते हुए भी संजय गांधी के परिवारजन कांग्रेस का हिस्सा नहीं हैं, इसलिए कांग्रेस के लिए उन्हें निशाना बनाना आसान है। अगर ऐसा नहीं है, तो यह भी देखना होगा कि आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी सर्वेसर्वा थीं, संजय गांधी उन्हीं की छाया में थे। क्या यह माना जा सकता है कि उस दौरान सामान्य राजनीतिक प्रक्रिया के ठप हो जाने, मौलिक अधिकारों के स्थगित होने और न्यायपालिका की शक्ति घट जाने के पीछे उनकी कोई भूमिका नहीं थी? कुछ ऐसी ही स्थापना आजाद भारत के सबसे बड़े जननेता जयप्रकाश नारायण के बारे में है। उनकी ईमानदारी और नि:स्वार्थ भावना की प्रशंसा करते हुए भी यह किताब कहती है कि उनकी विचारधारा अस्पष्ट थी! मानो यही कम न हो, आगे कहा गया है कि जेपी आंदोलन संविधानेतर और अलोकतांत्रिक था! सचाई यह है कि हर सत्ता अपने विरोधियों को इसी नजर से देखती है और उनके कृत्यों को अलोकतांत्रिक बताती है। हालांकि राजीव गांधी और पीवी नरसिंह राव के मूल्यांकन में पूरी ईमानदारी बरती गई है, और यही इस किताब की उपलब्धि है। संगठन में अपेक्षित सुधार न कर पाने को जहां राजीव गांधी की विफलता बताया गया है, वहीं नरसिंह राव की उपलब्धियों को पार्टी ने पहली बार स्वीकारा है। नेहरू-गांधी परिवार के बाहर का होने के बावजूद पांच साल सरकार चला लेने के लिए उनकी प्रशंसा की गई है, तो आर्थिक नीतियों के प्रणेता के तौर पर भी उन्हें याद किया गया है। हालांकि यहां भी बाबरी विध्वंस का ठीकरा तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार और भाजपा नेताओं के सिर फोड़ा गया है, केंद्र में सरकार होने के कारण कांग्रेस की भूमिका पर चुप्पी है। इसी तरह उत्तर प्रदेश चुनाव में राहुल गांधी की मेहनत को किताब में जगह दी गई है, लेकिन बिहार चुनाव में पार्टी की दुर्दशा की अनदेखी कर दी गई है। आत्मावलोकन में ईमानदारी अंतत: पार्टी के लिए ही फायदेमंद होती, लेकिन पक्षपातपूर्ण इरादे ने एक महत्वपूर्ण अवसर खो दिया है।

विनायक: नायक या खलनायक

छत्तीसगढ़ की एक अदालत ने मानवाधिकार कार्यकर्ता और पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज के उपाध्यक्ष विनायक सेन को राजद्रोह के मामले में उम्र कैद की सजा सुनाई है। विनायक सेन को यह सजा नक्सलियों के साथ संबंध रखने और उनको सहयोग देने के आरोप साबित होने के बाद सुनाई गई है। अदालत द्वारा विनायक सेन को उम्रकैद की सजा सुनाए जाने के बाद देशभर के चुनिंदा वामपंथी लेखक, बुद्धिजीवी आंदोलित हो उठे हैं। इन्हें लगता है कि न्यायपालिका ने विनायक सेन को सजा सुनाकर बेहद गलत किया है और उसने राज्य की दमनकारी नीतियों का साथ दिया है। उन्हें यह भी लगता है कि यह विरोध की आवाज को कुचलने की एक साजिश है। विनायक सेन को हुए सजा के खिलाफ वामपंथी छात्र संगठन से जुड़े विद्यार्थी और नक्सलियों के हमदर्द दर्जनों बुद्धिजीवी दिल्ली के जंतर-मंतर पर इकट्ठा हुए और जमकर नारेबाजी की। बेहद उत्तेजक और घृणा से लबरेज भाषण दिए गए। जंतर-मंतर पर जिस तरह के भाषण दिए जा रहे थे वह बेहद आपत्तिजनक थे। वहां बार-बार यह दुहाई दी जा रही थी कि राज्य सत्ता विरोध की आवाज को दबा देती है और अघोषित आपातकाल का दौर चल रहा है। वहां मौजूद एक वामपंथी विचारक ने शंकर गुहा नियोगी और सफदर हाशमी की हत्या को सरकार-पूंजीपति गठजोड़ का नतीजा बताया। उनका तर्क था जब भी राज्य सत्ता के खिलाफ कोई आवाज अपना सिर उठाने लगती है तो सत्ता उसे खामोश करने का हर संभव प्रयास करता है । शंकर गुहा नियोगी और सफदर हाशमी की हत्या तो इन वामंपंथी लेखकों-विचारकों को याद रहती है, उसके खिलाफ डंडा-झंडा लेकर साल दर साल धरना प्रदर्शन और विचार गोष्ठियां भी आयोजित होती हैं, लेकिन उसी साहिबाबाद में नवंबर में पैंतालीस साल के युवा मैनेजर की मजदूरों द्वारा पीट-पीट कर हत्या किए जाने के खिलाफ इन वामपंथियों ने एक भी शब्द नहीं बोला। मजदूरों द्वारा मैनेजर की सरेआम पीट-पीटकर नृशंस तरीके से हत्या पर इनमें से किसी ने भी मुंह खोलना गंवारा नहीं समझा। कोई धरना प्रदर्शन या बयान तक जारी नहीं हुआ, क्योंकि मैनेजर तो पूंजीपतियों का नुमाइंदा होता है लिहाजा उसकी हत्या को गलत करार नहीं दिया जा सकता है। परंतु हमारे देश के वामपंथी यह भूल जाते हैं कि गांधी के इस देश में हत्या और हिंसा को किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता है। शंकर गुहा नियोगी या सफदर हाशमी की हत्या की जिसकी पुरजोर निंदा की जानी चाहिए और दोषियों को किसी भी कीमत पर नहीं बख्शा जाना चाहिए, लेकिन उतने ही पुरजोर तरीके से फैक्ट्री के मैनेजर की हत्या का भी विरोध होना चाहिए और उसके मुजरिमों को भी उतनी ही सजा मिलनी चाहिए जितनी नियोगी और सफदर के हत्यारे को। दो अलग-अलग हत्या के लिए दो अलग-अलग मापदंड नहीं अपनाए जा सकते। ठीक उसी तरह से अगर विनायक सेन के कृत्य राजद्रोह की श्रेणी में आते हैं तो उन्हें इसकी सजा मिलनी ही चाहिए और अगर निचली अदालत से कुछ गलत हुआ है तो वह हाईकोर्ट या फिर सुप्रीम कोर्ट से निरस्त हो जाएगा। अदालतें सुबूत और गवाहों के आधार पर फैसला करती हैं। आप अदालतों के फैसले की आलोचना तो कर सकते हैं, लेकिन उन फैसलों को वापस लेने के लिए धरना प्रदर्शन करना घोर निंदनीय है। भारतीय संविधान में न्याय की एक प्रक्रिया है और यदि निचली अदालत से किसी को सजा मिलती है तो उसके बाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का विकल्प खुला हुआ है। अगर निचली अदालत में कुछ गलत हुआ है तो ऊपर की अदालत उसको हमेशा सुधारती रही है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जहां निचली अदालत से मुजरिम बरी करार दिए गए हैं, लेकिन ऊपरी अदालत ने उनको कसूरवार ठहराते हुए सजा मुकर्रर की है। दिल्ली के चर्चित मट्टू हत्याकांड में आरोपी संतोष सिंह को निचली अदालत ने बरी कर दिया, लेकिन उसे ऊपरी अदालत से जमानत मिली। ठीक इसी तरह से निचली अदालत से दोषी करार दिए जाने के बाद भी कई मामलों में ऊपर की अदालत ने मुजरिमों को बरी किया है। लोकतंत्र में संविधान के मुताबिक एक तय प्रक्रिया है तथा संविधान और लोकतंत्र में आस्था रखने वाले सभी जिम्मेदार नागरिकों से उस तय संवैधानिक प्रक्रिया का पालन करने की अपेक्षा की जाती है। विनायक सेन के मामले में भी उनके परिवार वालों ने हाईकोर्ट जाने का ऐलान कर दिया है, लेकिन बावजूद इसके यह वामपंथी नेता और बुद्धिजीवी अदालत पर दबाव बनाने के मकसद से धरना-प्रदर्शन और बयानबाजी कर रहे हैं। दरअसल इन वामपंथियों के साथ बड़ी दिक्कत यह है कि अगर कोई भी संस्था उनके मन मुताबिक चले तो वह संस्था आदर्श है, लेकिन अगर उनके सिद्धांतों और चाहत के खिलाफ कुछ काम हो गया तो वह संस्था सीधे-सीधे सवालों के घेरे में आ जाती है। अदालतों के मामले में भी ऐसा ही हुआ है जो फैसले इनके मन मुताबिक होते हैं उसमें न्याय प्रणाली में इनका विश्र्वास गहरा जाता है, लेकिन जहां भी उनके अनुरूप फैसले नहीं होते हैं वहीं न्यायप्रणाली संदिग्ध हो जाती है। रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद विवाद के पहले यही वामपंथी नेता कहा करते थे कि कोर्ट को फैसला करने दीजिए वहां से जो तय हो जाए वह सबको मान्य होना चाहिए, जब इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला उनके मनमुताबिक नहीं आया तो अदालत की मंशा संदिग्ध हो गई। इस देश में इस तरह के दोहरे मानदंड नहीं चल सकते। अगर हम वामपंथ के इतिहास को देखें तो उनकी भारतीय गणतंत्र और संविधान में आस्था हमेशा से शक के दायरे में रही है। जब भारत को आजादी मिली तो उसे शर्म करार देते हुए उसे महज गोरे बुर्जुआ के हाथों से काले बुर्जुआ के बीच शक्ति हस्तांतरण बताया गया था। यह भी ऐतिहासितक तथ्य है कि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया यानी सीपीआई ने फरवरी 1948 में नवजात राष्ट्र भारत के खिलाफ हथियारबंद विद्रोह शुरू किया था और उस पर काबू पाने में तकरीबन तीन साल लग गए थे और वह भी रूस के शासक स्टालिन के हस्तक्षेप के बाद ही संभव हो पाया था। 1950 में सीपीआई ने संसदीय व्यवस्था में आस्था जताते हुए आम चुनाव में हिस्सा लिया, लेकिन साठ के दशक के शुरुआत में पार्टी दो फाड़ हो गई और सीपीएम का गठन हुआ। सीपीएम हमेशा से रूस के साथ-साथ चीन को भी अपना रहनुमा मानता आया है। तकरीबन एक दशक बाद सीपीएम भी टूटा और माओवादी के नाम से एक नया धड़ा सामने आया। सीपीएम तो सिस्टम में बना रहा, लेकिन माओवादियों ने सशस्त्र क्रांति के जरिये भारतीय गणतंत्र को उखाड़ फेंकने का ऐलान कर दिया। विचारधारा के अलावा भी वह हर चीज के लिए चीन का मुंह देखते थे। माओवाद में यकीन रखने वालों का एक नारा उस समय काफी मशहूर हुआ था कि चीन के चेयरमैन हमारे चेयरमैन। माओवादी नक्सली अब भी सशस्त्र क्रांति के माध्यम से भारतीय गणतंत्र को उखाड़ फेंकने की मंशा पाले बैठे हैं। क्या इस विचारधारा को समर्थन देना राजद्रोह नहीं है? नक्सलियों के हमदर्द हमेशा से यह तर्क देते हैं कि वो हिंसा का विरोध करते हैं, लेकिन साथ ही वह यह जोड़ना नहीं भूलते कि हिंसा के पीछे राज्य की दमनकारी नीतियां हैं। देश में हो रही हिंसा का खुलकर विरोध करने के बजाय नक्सलियों को हर तरह से समर्थन देना कितना जायज है इस पर राष्ट्रव्यापी बहस होनी चाहिए। एंटोनी पैरेल ने ठीक कहा है कि भारत के मा‌र्क्सवादी पहले भी और अब भी भारत को मा‌र्क्सवाद के तर्ज पर बदलना चाहते हैं, लेकिन वह मा‌र्क्सवाद में भारतीयता के हिसाब से बदलाव नहीं चाहते हैं। एंटोनी के इस कथन से यह साफ हो जाता है कि यही भारत में मा‌र्क्स के चेलों की सबसे बड़ी कमजोरी है । विनायक सेन अगर बेकसूर हैं तो अदालत से वह बरी हो जाएंगे, लेकिन अगर कसूरवार हैं तो उन्हें सजा अवश्य मिलेगी। भारत के तमाम बुद्धिजीवियों को अगर देश के संविधान और कानून में आस्था है तो उनको धैर्य रखना चाहिए और अंतिम फैसले का इंतजार करना चाहिए। इसलिए न्यायिक प्रक्रिया पर सवाल खड़े करने अथवा किसी तरह दबाव बनाने की राजनीति से बाज आना चाहिए और इसके लिए किए जा रहे धरने-प्रदर्शन को तत्काल बंद कर दिया जाए। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )

भाजपा ने 2010 को घोटाला वर्ष घोषित किया

साल 2010 को केंद्र सरकार व कांग्रेस का भ्रष्टाचार वर्ष घोषित करते हुए भाजपा ने सरकार पर इस साल 2 लाख 50 हजार करोड़ रुपए के घोटालों का आरोप लगाते हुए इसका हिसाब मांगा है। भाजपा प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन ने कहा पूरे साल सरकार भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के बजाए उसके लिए आजादी देने में लगी रही। प्रधानमंत्री से लेकर मंत्री इन घोटालों पर पर्दा डालने और उनसे देश को गुमराह करने में लगे रहे। शाहनवाज हुसैन ने कहा कि संप्रग सरकार के दोनों कार्यकाल में इस साल जितने घोटाले सामने आए, उतने कभी नहीं आए। इससे देश को 2.50 लाख करोड़ रुपए की चपत लगी, जो देश की सालाना योजना का 67 फीसदी है। यह देश का दुर्भाग्य है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह लगातार ऐसे भ्रष्ट मंत्रियों वाले मंत्रिमंडल की अध्यक्षता करते रहे और घोटालों पर पर्दा डालते रहे। उन्होंने कहा 2जी स्पेक्ट्रम, राष्ट्रमंडल खेल व आदर्श सोसायटी मामलों में सरकार जेपीसी की मांग से भागती रही। भाजपा प्रवक्ता ने कहा कि प्रधानमंत्री यह तो कहते रहे कि उनके पास छिपाने को कुछ भी नहीं है, लेकिन जेपीसी से डरे रहे। भाजपा ने कांग्रेस व संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी पर भी सवाल दागते हुए कहा कि वे देश को बताएं कि यह 2.50 लाख करोड़ रुपया कहां गया और देश के खजाने में यह कैसे लौटेगा?

Tuesday, December 28, 2010

चार साल में एक बिंदु पर ही काम हुआ

उत्तराखंड सरकार से समर्थन वापसी के बाद पत्रकारों से मुखातिब उक्रांद अध्यक्ष त्रिवेंद्र सिंह पंवार ने विस्तार से दल की नाराजगी का खुलासा किया। उन्होंने कहा कि दल ने भाजपा सरकार को नौ बिंदुओं पर सशर्त समर्थन दिया था। नौ में एक बिंदु भू-अध्यादेश पर आंशिक रूप से काम हुआ, वह भी उक्रांद कोटे के कैबिनेट मंत्री के प्रयासों से संभव हो सका। भाजपा सरकार से समर्थन वापसी के अपने तर्क के समर्थन में पंवार ने नौ बिंदु गिनाए। उन्होंने कहा कि समर्थन का पहला बिंदु गैरसैंण राजधानी को लेकर था। भाजपा ने विश्वास दिलाया था कि गैरसैंण को राज्य की राजधानी बनाने के लिए जनहित में कार्य किया जाएगा, लेकिन यह मुद्दा दरकिनार किया गया। दूसरा बिंदु विकल्पधारियों की वापसी को लेकर था। समर्थन देते समय राज्य में 18000 विकल्पधारी थे। उक्रांद के दबाव के बावजूद सिर्फ 6000 विकल्पधारियों को ही वापस भेजा जा सका। अभी हजारों विकल्पधारी राज्य में मौजूद हैं, उनकी वापसी के लिए कदम नहीं उठाए जा रहे। तीसरा बिंदु राज्य में अनुच्छेद 371 लागू करने को लेकर था। इस बिंदु के तहत भू-कानून में कुछ संशोधन हो पाया। जिससे राज्य में भूमि की अनियंत्रित खरीद-फरोख्त पर कुछ हद तक रोक लग सकी, लेकिन हिमाचल प्रदेश की तरह धारा 371 राज्य में लागू नहीं हो पाई। भू कानून लागू करने में जिस सीमा तक भी सफलता मिली, वह उक्रांद कोटे के मंत्री की कोशिशों की वजह से संभव हुआ। चौथा बिंदु पर्वतीय क्षेत्र में रोजगार नीति को लेकर था। राज्य सरकार इस मामले में पूरी तरह फेल हुई है। पांचवां बिंदु पहाड़ में उद्योगों की स्थापना को लेकर है। इस मामले में भी सरकार फेल साबित हुई है। छठा बिंदु परिसीमन में पहाड़ के साथ हुए अन्याय को लेकर है, जिसमें पहाड़ की छह विधानसभा सीटें कम कर दी गईं थी। सरकार ने इस मामले में भी कदम नहीं उठाया। सातवां बिंदु परिसंपत्तियों के बंटवारे का है। दस साल बाद भी उत्तराखंड की परिसंपत्तियां बंधक बनी हुई हैं। सरकार इन्हें वापस लाने का प्रयास करती हुई दिखाई नहीं दे रही है। आठवां बिंदु मूल निवासी को स्थायी निवास प्रमाण पत्र की अनिवार्यता से मुक्त रखने को लेकर था, इसमें भी सरकार ने प्रयास नहीं किए। नौवां बिंदु आंदोलनकारियों के चिन्हीकरण की समय सीमा 1989 करने के लिए था। सरकार ने यह मांग स्वीकार तो की, लेकिन इस क्षेत्र में काम कुछ नहीं हुआ। पंवार का कहना है कि सरकार जनहित के कार्य करने में पूरी तरह विफल रही।