Wednesday, June 29, 2011

ईवीएम की पारदर्शिता


इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम की कार्यकुशलता और पारदर्शिता को लेकर कुछ समय से गंभीर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनावों के बाद आरोप लगे थे कि कुछ सत्तारूढ़ पार्टियों को लाभ पहुंचाने के लिए ईवीएम से छेड़छाड़ की गई। इस विवाद के बीच कुछ देसी और विदेशी रिसर्चरों ने यह सिद्ध करने की कोशिश की कि इन मशीनों को हैक करके नतीजों को बदला जा सकता है। कुछ लोगों का तो यह भी कहना था कि दुनिया के कई देशों ने इलेक्ट्रॉनिक मशीनों का प्रयोग बंद कर दिया है। दूसरी तरफ आयोग यह मानने को तैयार नहीं है कि इन मशीनों के साथ किसी तरह की कोई छेड़छाड़ की जा सकती है। इन विवादों ने उसे इन मशीनों की पारदर्शिता में सुधार के बारे में सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। मतदाता द्वारा डाले गए वोट को प्रमाणित करने के लिए उसने एक नई टेक्नोलॉजी के परीक्षण का फैसला किया है। इस तकनीक के तहत इलेक्ट्रॉनिक मशीन पर वोटिंग के बाद एक प्रिंट भी निकलेगा। राजनीतिक दलों ने इन मशीनों पर संतोष व्यक्त किया, लेकिन कईदलों ने सिस्टम को और ज्यादा पारदर्शी बनाने के लिए वीवीपीएटी यानी वोट वेरीफाएबल पेपर आडिट ट्रेल लागू करने का सुझाव दिया था। आयोग ने इस मामले को ईवीएम से संबंधित टेक्निकल एक्सपर्ट कमेटी को सौंपा। कमेटी ने विभिन्न राजनीतिक दलों, सिविल सोसायटी के संगठनों और ईवीएम से संबंधित मसलों पर आयोग के साथ कार्य करने वाले लोगों के साथ विस्तृत विचार-विमर्श किया। कमेटी के निर्देश पर भारत इलेक्टॉनिक लिमिटेड और इलेक्ट्रॉनिक्स कारपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड ने वीवीपीएटी का एक प्रोटोटाइप बनाया। कमेटी ने इस सिस्टम को वास्तविक चुनावी परिस्थतियों में परखने की सिफारिश की है। आगामी 24 जुलाई को देश में एक अनोखा चुनाव होने जा रहा है, जो एकदम नकली होगा, लेकिन सारी प्रक्रियाएं और तामझाम वास्तविक चुनाव जैसे होंगे। इस चुनाव के लिए देश के पांच जिले चुने गए हैं। ये हैं पूर्वी दिल्ली, जैसलमेर (राजस्थान), लेह (जम्मू और कश्मीर), तिरुवनंतपुरम (केरल) और चेरापूंजी (मेघालय)। वीवीपीएटी सिस्टम की खास बात यह है कि इसमें अपनी पसंद के उम्मीदवार के नाम का बटन दबाने के बाद प्रिंटर से एक मतपत्र भी निकलेगा, जिसमें सीरियल नंबर, उम्मीदवार का नाम और उसका चिह्न अंकित होगा। चुनाव में दो तरह के सिस्टम आजमाए जाएंगे। एक सिस्टम में प्रिंटर को पूरी तरह से सीलबंद रखा गया है। इसमें मतदाता प्रिंटर की पारदर्शी खिड़की से छपे हुए मतपत्र को देखकर उसकी पुष्टि करेगा। उसे पांच सेकंड दिए जाएंगे। इसके पश्चात मतपत्र अपने आप कटकर सीलबंद डिब्बे में जमा हो जाएगा। दूसरे सिस्टम में प्रिंटर खुला रहेगा। छपा हुआ मतपत्र प्रिंटर के आगे रखी एक ट्रे में गिरेगा जिसे मतदाता उठाएगा व उसकी पुष्टि करेगा और वापस मोड़कर उसे एक सीलबंद डिब्बे में डाल देगा। तकनीकी अड़चनों से बचने के लिए हर सिस्टम में दो-दो प्रिंटर लगाए जाएंगे। मतगणना के दौरान ईवीएम द्वारा रिकॉर्ड किए गए मतों के अलावा प्रिंटर से निकले मतों की भी पूरी गणना की जाएगी। वैसे तो इन चुनावों में असली चुनावों जैसी प्रक्रिया अपनाई जाएगी, लेकिन मतदाताओं के मामले में छूट दी जाएगी। इसमें स्थानीय वोटरों के अलावा बाहरी लोग भी वोट दे सकते हैं। चुनाव के बाद वोटरों, चुनाव अधिकारियों और राजनीतिक दलों से फीडबैक लिया जाएगा। एक बड़ा सवाल यह है कि क्या इस नए सिस्टम से ईवीएम की पारदर्शिता बढे़गी? नए सिस्टम का डिमांस्ट्रेशन देखने के बाद वोटिंग की प्रक्रिया ऊपरी तौर पर ज्यादा साफ-सुथरी जरूर नजर आती है, लेकिन प्रिंटर से निकलने वाले वोटों की गिनती से परिणाम घोषित करने में विलंब होगा। यह एक तरह से मतगणना की पुरानी पद्धति की तरफ लौटने जैसा होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

सियासत की भेंट चढ़ीं रेल परियोजनाएं


जनता से सीधा जुड़ा रेल सेवा का मामला राज्य और केंद्र सरकारों के बीच अहम् का मुद्दा बनकर रह गया है। इसकी मुख्य वजह इन योजनाओं को लेकर राज्य में जारी सियासत है। स्थिति यह है कि योजनाओं को मंजूरी नहीं मिलने पर राज्य सरकार केंद्र पर उपेक्षा करने का आरोप लगा रही है तो केंद्र राज्य की ओर से सही पैरवी नहीं होने का तर्क देकर इस महत्वपूर्ण मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाले है। नतीजतन पहाड़ी राज्य में पर रेल सेवा विस्तार की योजना परवान नहीं चढ़ पा रही और जनता की उम्मीदें फाइलों में कैद होकर रह गई हैं। स्थिति यह है कि सूबे में रेल सेवा के पहाड़ों में चढ़ने और मैदानी क्षेत्रों में पांव पसारने की मुहिम रिवर्स गियर में है। नई रेल लाइनों के साथ ही अन्य परिवहन को सुचारू करने को रेलवे ओवर ब्रिज के प्रस्ताव भी रेल मंत्रालय के ठंडे बस्ते में हैं। नतीजतन, सालों से राज्य में न तो नई रेल लाइन बिछी और न ही कोई नई ट्रेन ही नसीब हुई। जितनी तेजी से यहां आबादी बढ़ रही है, उसी तरह रेल सेवाओं के विस्तार की मांग भी बढ़ी है। आलम यह है कि करीब आधा दर्जन रेल लाइन निर्माण योजनाओं के प्रस्ताव केंद्र के पास अरसे से अटके हैं। सूबे में 16 रोड ओवर ब्रिज (आरओबी) बनाने की योजना वर्ष 2006 में बनी, लेकिन यह शुरू कब होगी, इसे बताने वाला कोई नहीं। हां महकमे के अफसरान सर्वे और निरीक्षण में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते। नई ट्रेन शुरू होने का मसला सियासी बयानबाजी तक सिमट गया है। हालत यह है कि मुजफ्फरनगर-रुड़की रेललाइन, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग, टनकपुर-बागेश्र्वर, देहरादून-विकासनगर,,कालसी और सहारनपुर-मोहंड रेल लाइन निर्माण की योजना अर्से से केंद्र की मंजूरी की वाट जोह रही हैं। कमोवेश यही स्थिति लक्सर-देहरादून रेल लाइन के विद्युतीकरण की योजना का है जिसे केंद्र से हरी झंडी नहीं मिल रही। यही नहीं सूबे में प्रस्तावित 16 रोड ओवर ब्रिज (आरओबी) निर्माण योजना को अभी तक बजट आवंटन नहीं हो सका है। दिल्ली से रामनगर व दिल्ली से काठगोदाम के बीच शताब्दी एक्सप्रेस शुरू कराने की योजना भी सरकारी फाइलों के मकड़जाल में उलझी है। राज्य में डाक विभाग के माध्यम से यात्री आरक्षण सुविधा (पीआरएस) योजना शुरू करने की योजना तीन साल से मंत्रालय में मंजूरी का इंतजार कर रही है। इसकी वजह राज्य के जनप्रतिनिधियों की इन योजनाओं के प्रति दिलचस्पी न होना है। इस संबंध में राज्य के प्रमुख सचिव परिवहन एस रामास्वामी का कहना है कि लंबित योजनाओं को शुरू कराने के लिए राज्य सरकार की ओर से केंद्र को लगातार आग्रह किया जा रहा है। रेल मंत्रालय में संबंधित अफसरों के साथ वार्ता जारी है। विभाग की कोशिश लोगों को बेहतर सुविधाएं मुहैया कराने की है। उनका कहना है कि केंद्र सरकार को लंबित योजनाओं की समीक्षा कर इन्हें मंजूरी प्रदान करनी चाहिए.

दीदी और भतीजे से होगी यूपी में जंग


करीब छह साल के वनवास के बाद भाजपा में लौटीं उमा ने माना कि उनका भाजपा से बाहर कोई वजूद नहीं है। वे राम और रोटी की लड़ाई भाजपा में रहकर ही बेहतर तरीके से लड़ सकती हैं। न्यूज 24 की अनुराधा प्रसाद के साथ उनके साप्ताहिक कार्यक्रम आमने-सामने में उन्होंने स्वीकार किया कि मध्य प्रदेश के पिछले विधान सभा चुनावों के नतीजों ने उनकी आंखें खोल दीं। उन्हें तब लगा कि भाजपा से बाहर रहकर अपने लिए जगह बनाने के संबंध में सोचना उनका अहंकार था। साक्षात्कार के अंश : उमा जी, एक दौर में आप बहुत ही जिद्दी मानी जाती थीं। जो फैसला कर लिया, उससे हटती नहीं थीं। क्या भाजपा से बाहर रहकर आपको जन्नत की हकीकत समझ आ गई? कुछेक पल सोचकर वे बताने लगीं कि अटल जी और आडवाणी जी ने उन्हें बहुत Fेह दिया। वे जब मात्र आठ साल की थीं तो उनके पास कार थी। वे बहुत ही कम उम्र में दुनिया भर में जाने लगीं। अटल जी की सरकार में मंत्री रहते हुए वे जब किसी बात को लेकर अड़ जाती थीं तो प्रधानमंत्री उन्हें स्वयं अपने घर भोजन के लिए ले जाते थे। इन सब बातों का उनके व्यक्तित्व पर असर तो पड़ा। तो आप उत्तर प्रदेश की चुनावी रणभूमि में दिग्विजय सिंह के साथ दो-दो हाथ करने के लिए तैयार हैं? पहले की तुलना में काफी शांत दिख रहीं उमा भारती कहने लगीं, बेशक। इस वक्त तो मेरा सारा फोकस उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव पर है। मैं वहां की भीषण गरीबी और दीनता से दुखी हूं। वहां पर दिग्विजय सिंह के साथ जोरदार मुकाबला होगा। उनका वहां पर भी वही हश्र होगा जो उनका मैंने पहले मध्य प्रदेश और बिहार में किया था। पर हम एक-दूसरे पर हमला करते वक्त मर्यादाओं में ही रहेंगे। उमा जी, आप अपने और दिग्विजय सिंह को लेकर तो कह रही हैं कि आप दोनों मर्यादाओं में रहेंगे, पर आपके राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की तो जुबान खूब फिसलती..? गडकरी का बचाव करते हुए वे कहने लगीं, मुझे तो उनका एक भी बयान आपत्तिजनक नहीं लगा है। मुझे एक बात समझ नहीं आती कि कांग्रेसी महात्मा गांधी और इंदिरा गांधी के लिए कुछ भी सुन सकते हैं, पर वे सोनिया पर किसी भी टिप्पणी करने वाले पर क्यों पिल पड़ते हैं। आपका यूपी में दुश्मन नंबर एक कौन है? उत्तर प्रदेश के विगत बीस सालों के राजनीतिक इतिहास के पन्नों को खोलते हुए वे बताने लगीं कि वहां पर असली मुकाबला तो भाजपा और बसपा के बीच ही होगा। कांग्रेस और मुलायम कहीं नहीं हैं। फिर कहने लगीं, उत्तर प्रदेश में मुकाबला मेरा, दीदी (मायावती) और भतीजे (राहुल गांधी) के बीच ही होगा.

84 के दंगों को भूल जाएं सिख


केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम ने सिखों से अपील की है कि वे 1984 के दंगों की कड़वी यादों को भूल जाएं। उन्होंने कहा, देश इस दुखद घटना से आगे बढ़ गया है। वह वक्त आ गया है जब हमें माफी दी जाए और एक नए भारत का निर्माण करने के लिए हम आगे बढ़ें, जहां नागरिकों के लिए धर्म पर विचार किए बिना समान स्थान हो। चिदंबरम ने शनिवार को यहां आयोजित एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए यह बात कही। दरअसल, 142 सिखों का नाम काली सूची से हटाए जाने में चिदंबरम की भूमिका को लेकर उन्हें सम्मानित करने के लिए इस कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। चिदंबरम ने 1984 की दुखद घटना को याद करते हुए कहा, देश वहां से आगे निकल चुका है और काली सूची से बड़ी संख्या में सिखों का नाम हटाने का छोटा सा काम बाकी रह गया था, जिसे हाल में सरकार ने पूरा कर लिया है। गृहमंत्री ने कहा, जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे,उस वक्त हम आगे बढ़े थे, हम इसके बाद भी आगे बढ़े। हम उस वक्त आगे बढ़े जब मनमोहन सिंह ने अपने भाषण में माफ करने की अपील की, सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद से हम आगे बढ़े हैं। चिदंबरम ने संसद में सिंह के भाषण का हवाला दिया, जब उन्होंने इस घटना को लेकर सिख समुदाय से माफी मांगी थी। उन्होंने कहा, एक छोटा सा कदम रह गया था,यह कदम काली सूची से बड़ी संख्या में लोगों के नाम हटाए जाने का था। मैं इस बात को लेकर खुश हूं कि 142 लोगों को काली सूची से हटाए जाने की छोटी सी भूमिका मैंने अदा की। सरकार ने एक अहम फैसले में अपनी काली सूची से 142 वांछित आतंकवादियों और उनके सहयोगियों का नाम हटा दिया, जिनमें विभिन्न सिख उग्रवादी संगठन प्रमुख भी शामिल हैं। चिदंबरम ने इस बात का जिक्र किया कि सरकार सिख समुदाय की हर शिकायत को दूर करने की हर संभव कोशिश करेगी। उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान में हिंसा के बाद वहां से भारत लौटे सिखों की मदद करने के लिए सरकार जल्द ही आदेश जारी करेगी। उन्होंने कहा कि दुनिया भर में कहीं भी रहने वाले सिख के लिए भारत घर है। इसलिए जब कभी कहीं से सिख अपने घर (भारत) लौटते हैं, हमारा यह कर्तव्य है कि हम उनका भारत में स्वागत करें। चिदंबरम ने ननकाना साहिब जाने में सिखों को पेश आने वाली समस्याओं का जिक्र करते हुए कहा कि इसका भी समाधान किया जाएगा। उन्होंने कहा, मैं जानता हूं कि कभी-कभी वीजा प्राप्त करने में दिक्कत होती है। इस समस्या का भी समाधान किया जाएगा। राष्ट्र के प्रति सिख समुदाय के योगदान की सराहना करते हुए गृहमंत्री ने सरकार की ओर से इस समुदाय को हरेक तरह की सहायता दिए जाने का भरोसा दिलाया। प्रणब से दुश्मनी की बात कपोल कल्पना पी.चिदंबरम ने उनके और वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के बीच गृहयुद्ध (दुश्मनी) की बात को अति कपोल कल्पना करार दिया है। साथ ही मुखर्जी के दफ्तर में जासूसी की बात को सिरे से खारिज करते हुए कहा है कि वहां ऐसा कुछ हुआ ही नहीं। चिदंबरम ने एक टीवी चैनल से कहा, मेरे और उनके (प्रणब) बीच उम्र में दस साल का अंतर है। वह बड़े, बुद्धिमान व वरिष्ठ हैं। वह कई मंत्रिमंडलीय समूहों के अध्यक्ष हैं और मैं हर समूह का सदस्य हूं। हम प्रतिदिन एक दूसरे से बात करते हैं और लगातार संपर्क में रहते हैं। यह केवल अति उतावलापन और कपोल कल्पना है। वह भाजपा के इस आरोप का जवाब दे रहे थे कि वित्त मंत्री-गृहमंत्री के बीच गृहयुद्ध चल रहा है। चिदंबरम ने कहा, उनके (भाजपा नेताओं) पास अति सक्रिय मस्तिष्क व कल्पना की उड़ान है। मैं सोचता हूं कि दरसल वे अपनी पार्टी में दोनों सदनों के नेताओं के बीच प्रतिदिन के युद्ध के साए में जीते हैं, इसलिए वे प्रेत ढूढते हैं जो है ही नहीं.

वादाखिलाफी की पराकाष्ठा


सरकार ने सिविल सोसाइटी से टकराव का जो रास्ता चुना है, वह सरकार और देश दोनों के लिए बहुत घातक होगा। दमन की राजनीति से किसी का भला नहीं होगा। एक के बाद एक कई घोटालों के कारण केंद्र सरकार पहले से ही सवालों के घेरे में है। बाबा रामदेव की मुहिम से निपटने के लिए दमन और बदले की कार्रवाई का सहारा लेकर सरकार अपनी साख को ही क्षति पहुंचा रही है। काले धन और भ्रष्टाचार के मामले में कार्रवाई को लेकर सरकार की नीति और नीयत पर सवाल इसलिए उठते हैं, क्योंकि कई मामलों में सरकार ने भ्रष्टाचारियों और दागी अधिकारियों का बचाव किया है। 2जी मामले में पूरी सरकार पहले राजा का बचाव करती रही, बाद में सर्वोच्च न्यायालय की पहल पर राजा को जेल जाना पड़ा। यह वही कपिल सिब्बल हैं, जिन्होंने कहा था कि 2जी स्पेक्ट्रम मामले में कोई घपला और घोटाला नहीं हुआ है। मुख्य सतर्कता आयुक्त पीजे थॉमस की नियुक्ति को जिस तरह से केंद्रीय गृहमंत्री और प्रधानमंत्री कार्यालय सही ठहराने की कोशिश में लगा हुआ था, उससे भी उसकी नीयत का पता चलता है। बाद में अदालत के आदेश पर ही पीजे थॉमस को अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी और तब जाकर प्रधानमंत्री ने अपनी गलती मानी। हसन अली के मामले में भी सरकार ने कार्रवाई तब शुरू की, जब अदालत की फटकार पड़ी। पर अब वह फिर भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ शुरू हुई जंग को सांप्रदायिक तत्वों की साजिश बताकर कुचलना चाहती है। इसलिए उसने अन्ना हजारे के अनशन को भी जंतर-मंतर पर नहीं होने दिया और अब उसे भी सांप्रदायिक सिद्ध करने की कोशिश कर रही है। लेकिन अन्ना हजारे और उनकी टीम लोकपाल बिल के तहत जो मांग कर रही है, उसमें से एक मांग के बारे में खुद गृहमंत्री पी चिदंबरम ने माना था कि प्रधानमंत्री के भ्रष्टाचार के मामलों की जांच का अधिकार लोकपाल का होना चाहिए। उन्होंने लोकपाल विधेयक के सरकारी मसौदे में प्रधानमंत्री को राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे कई मामलों में दी गई छूट को भी ज्यादा बताया था। चिदंबरम अपने ये विचार गृह मंत्रालय की ओर से आधिकारिक तौर पर सरकार के सामने रख चुके हैं। अब वह इससे मुकर रहे हैं। इसलिए आज अगर नागरिक समाज को लोकपाल के लिए आंदोलन और अनशन करना पड़ रहा है तो इसके लिए राजनीतिक दल जिम्मेदार हैं, जो संसद की सर्वोच्चता और पवित्रता की थोथी दुहाई दे रहे हैं। पिछले 42 साल में लोकपाल विधेयक का कानून का रूप न ले पाना यह बताता है कि राजनीतिक दलों ने संसद की शक्तियों को सही तरीके से इस्तेमाल करने के स्थान पर उसका दुरुपयोग किया। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पहली बार केंद्र की सत्ता संभालते समय लोकपाल विधेयक लाने का वचन दिया था। दरअसल, लोकपाल विधेयक के मामले में बार-बार की वादाखिलाफी का ही परिणाम है कि आम जनता यह महसूस कर रही है कि राजनीतिक दल लोकपाल का निर्माण करना ही नहीं चाहते। यदि अन्ना हजारे और उनके साथियों की मानें तो केंद्र सरकार अब भी एक सक्षम लोकपाल व्यवस्था के निर्माण में अड़ंगे डाल रही है। काला धन और भ्रष्टाचार एक ऐसा मुद्दा है, जो आज भारतीय जनमानस को आंदोलित कर रहा है। अन्ना हजारे और स्वामी रामदेव तो उसकी अभिव्यक्ति के माध्यम बन चुके हैं। उनकी आवाज को दबाया नहीं जा सकता है। सरकार जिस टकराव के रास्ते पर जा रही है, उससे उसकी अधिनायकवाद की प्रवृत्ति का संकेत मिल रहा है। लोकतंत्र में जनता ने यदि आप को चुनकर भेजा है और आप सत्ता में हैं तो लोगों के लिए रोटी-पानी का इंतजाम कीजिए। भ्रष्टाचारियों और कालेधन के खातेदारों को जेल भेजिए। यदि लोगों की बात लोकतांत्रिक तरीके से नहीं सुनी जाती है और दमन के सहारे दबाने की कोशिश की जाएगी तो समाज में ऐसी अव्यवस्था और अराजकता फैल सकती है, जिसका इलाज किसी के पास नहीं होगा। आतंकवादी और नक्सली हिंसा के दौर से गुजर रहे इस देश के लिए यह जरूरी है कि सरकार जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों और आन्दोलन का दमन न करके उनकी बात को सुने। भ्रष्टाचारियों एवं काले धन के खातेदारों के खिलाफ ऐसी कार्रवाई करे, जिससे जनता का सरकार पर विश्वास और भरोसा बढ़े। पर जब भी विदेश में जमा काले धन पर चर्चा होती है तो सरकार कानूनी पेचीदगियां और अपनी असमर्थता की बात करने लगती है। इससे यही संदेश जाता है कि सरकार अपराधियों को बचा रही है।


लोकपाल को लटकाने की नई कवायद


लोकपाल बिल पर सरकार चौतरफा दबाव में आ गई है। अन्ना हजारे ने ताल ठोंक दिया है कि अगर सरकार लोकपाल बिल पर सकारात्मक रुख नहीं अपनाती है तो चाहे गोली खानी पड़े या लाठी, 16 अगस्त से वे अनशन पर जरूर जाएंगे। विपक्षी दल भी सरकार को खूब आड़े हाथों ले रहे हैं। सरकार भले ही अन्ना की धमकी को हवा में उड़ाने की कोशिश कर रही हो, लेकिन सच यह है कि वह अंदर से डरी हुई है। वह नहीं चाहती है कि अन्ना दोबारा अनशन पर जाएं और देश में सरकार के खिलाफ माहौल बनें। इसलिए उसने साफ कर दिया है कि अन्ना को अनशन करने की अनुमति नहीं दी जाएगी, लेकिन अन्ना सरकार के तेवर से खौफ खाने वाले नहीं हैं। ऐसे में सरकार अब सर्वदलीय बैठक बुलाकर अपने ऊपर पड़ रहे दबाव को कम करना चाहती है। अन्ना टीम को साधने के लिए सरकार पहले ही साम, दाम, दंड और भेद की नीति अपना चुकी है। लेकिन नाकामी हाथ लगने के बाद अब वह राजनीतिक दलों के सिरों को जोड़कर अपने बचाव में एक नई पैंतरेबाजी कर रही है। सरकार को आभास हो चला है कि बाबा रामदेव के सत्याग्रह को नृशंसतापूर्वक कुचलने के बाद अगर वह एक बार फिर ऐसा हथकंडा अपनाती है तो देश में जनआक्रोश भड़कते देर नहीं लगेगी। ऐसे में सरकार आत्मघाती कदम उठाने के बजाए विपक्षी दलों को अपने पाले में खड़ा कर नागरिक समाज के नुमाइंदों को हाशिए पर धकेल देना चाहती है, लेकिन सरकार को अपनी इस ओछी मुहिम में शायद ही सफलता मिले। सर्वदलीय बैठक में विपक्षी दल आंख बंदकर सरकार की दलीलों पर हां-हूं करने के बजाए कई तरह के सवाल पूछ सकते हैं, जो सरकार को चुभ सकते हैं। मसलन, जब लोकपाल बिल मसौदा समिति का गठन किया गया, उस वक्त सरकार ने उनसे रायशुमारी करना क्यों नहीं जरूरी समझा? मसौदा समिति में विपक्षी दलों के सदस्यों को भी शामिल क्यों नहीं किया गया? इसके अलावा मसौदा समिति में शामिल सरकारी नुमाइंदों के आचरण-व्यवहार को लेकर भी विपक्षी दल सवाल दाग सकते हैं। मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी रामलीला मैदान में सत्याग्रहियों पर हिंसक कार्रवाई और रामदेव के आंदोलन में उसे और आरएसएस को लपेटे जाने पर भी सवाल उठा सकती है। सर्वदलीय बैठक में और भी ऐसे तमाम सवाल उभर सकते हैं, जिनका जवाब देना सरकार के लिए आसान नहीं होगा। लोकपाल पर सरकार के दोमुंहे आचरण को लेकर विपक्षी दल पहले से ही हमलावर हैं। ऐसे में सरकार की मंशा के मुताबिक वे लोकपाल बिल पर अपने पत्ते खोल देंगे, संभव नहीं लगता है। पिछले दिनों प्रणब मुखर्जी द्वारा लोकपाल पर मांगे गए सुझावों को गैर-कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के अलावा राजनीतिक दलों ने न सिर्फ नकार दिया, बल्कि इस कवायद को संसदीय प्रक्रिया के विपरीत भी


इतिहास का काला पन्ना


लेखक आपातकाल को कांग्रेस के लोकतंत्र विरोधी दृष्टिकोण के प्रमाण के रूप में याद कर रहे हैं
देश के अंदर और बाहर हर कोई यह भलीभांति जानता है कि केंद्र सरकार के भीतर जो कुछ चलता है उसे एक संविधानेतर शक्ति केंद्र द्वारा नियंत्रित किया जाता है। यह भी कोई रहस्य नहीं है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी 2004 के लोकसभा चुनाव में संप्रग की जीत के बाद सीधे-साधे मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के पश्चात सुपर संवैधानिक सत्ता बन गई थीं। सरकार पर पकड़ बनाए रखने के लिए वह नियमित तौर पर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करती हैं। चूंकि कांग्रेस में इस प्रकार की संविधानेतर शक्तियों की परंपरा सी रही है, इसलिए कांग्रेस को इसमें किसी सिद्धांत, संविधान के उल्लंघन जैसी कोई बात नजर नहीं आती। नेहरू-गांधी परिवार कांग्रेस के कामकाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पार्टी इस धारणा पर चल रही है कि इस परिवार के सदस्य को सरकारी कामकाज में दखल देने के लिए किसी औपचारिक पद की आवश्यकता नहीं है। आम धारणा के विपरीत, यह प्रक्रिया नेहरू के दिनों में ही शुरू हो गई थी। उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने राजनीति में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी थी और 1950 के दशक के आखिरी वर्षो में नेहरू ने उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष भी बना दिया। इस परिवार के सदस्यों का आक्रामक रूप से संविधानेतर गतिविधियों में दखल 1970 के दशक के मध्य में देखने को मिला। तब युवक कांग्रेस के अध्यक्ष संजय गांधी ने केंद्रीय मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को आदेश देने शुरू कर दिए थे। शासन की यह पद्धति आपातकाल के दौरान तमाम हदें पार कर गईं। अपनी मां प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा प्रेरित संजय गांधी ने संघीय स्तर पर और राज्यों में समानांतर सत्ता केंद्र स्थापित कर लिया था। केंद्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, आइएएस व आइपीएस अधिकारियों के पर कतर दिए गए थे और पूरे भारत में भय का शासन कायम कर दिया गया था। इंदिरा गांधी संजय गांधी के कारनामों से इस कदर अभिभूत थीं कि उन्होंने अपने प्रचंड बहुमत के बल पर 1971-76 के लोकसभा के कार्यकाल को एक साल का विस्तार दे दिया था। यह भयावह दौर तब खत्म हुआ जब लोगों ने चुनाव में कांग्रेस को उखाड़ फेंका। इंदिरा गांधी ने यह चुनाव इन खुफिया रिपोर्टो के बाद कराया था कि जनता उनका समर्थन करेगी। यह कांग्रेस के शासन का इतिहास है, किंतु बहुत से कांग्रेसी दिखावा करते हैं कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं या फिर यह लोगों की स्मृति से लोप हो गया है, किंतु वे लोग जिनका लोकतंत्र में अटल विश्वास है, फिर से ऐसा नहीं होने देना चाहते। आतंक के दिनों को भूलना मुसीबतों को फिर से न्योता देने के समान है। इसलिए लोकतंत्र की खातिर आपातकाल की वर्षगांठ 25 जून पर इसके स्याह दिनों को याद करना जरूरी है। इसी आलोक में कुछ संगठनों व व्यक्तियों पर समानांतर सत्ता खड़ी करने संबंधी केंद्रीय मंत्रियों के आरोपों की भ‌र्त्सना करनी जरूरी हो जाता है। उदाहरण के लिए, भ्रष्टाचार की समस्या का समाधान करने की अनिच्छुक सरकार प्रधानमंत्री और सांसदों को लोकपाल के दायरे में लाने से पैर खींच रही है। यह ऐसा मसला है जो नागरिकों के बड़े तबके को परेशान कर रहा है। नेहरू के दिनों से ही कांग्रेस भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के कदम उठाने से हिचकिचाती रही है। उदाहरण के लिए आजादी के बाद से ही कांग्रेस पार्टी के वफादार सदस्यों को ही राज्यपाल के रूप में नियुक्त करती रही है। इसी प्रकार उसने हमेशा प्रयास किया है कि चुनाव आयुक्त ऐसा व्यक्ति न बन जाए जो स्वतंत्र रूप से फैसले कर सकता हो। आपातकाल के दौरान कांग्रेस खुलेआम स्वतंत्र मीडिया और न्यायपालिका के खिलाफ अभियान चलाती रही है। संविधान में 42वें संशोधन पर संसद में हुई बहस से ही साफ हो जाता है कि कांग्रेस न्यायपालिका, मीडिया और स्वतंत्र विचारों वाले नौकरशाहों के किस कदर खिलाफ है। सीएम स्टीफेन जैसे लोगों ने खुलेआम समर्पित न्यायपालिका की वकालत की थी। यह समर्पण संविधान के प्रति न होकर कांग्रेस के प्रति अभीष्ट था। इसके बाद भी हालात में कोई परिवर्तन नहीं आया। हमेशा यह प्रयास किया जाता रहा है कि पार्टी के समर्थक या फिर दागदार छवि वाले व्यक्ति संवैधानिक पदों पर तैनात कर दिए जाएं। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है चुनाव आयुक्त के रूप में नवीन चावला की तैनाती, जिन्हें शाह जांच आयोग किसी भी सार्वजनिक पद के अयोग्य ठहरा चुका है। इसका दूसरा उदाहरण है कांग्रेस द्वारा मानकों की धज्जियां उड़ाते हुए भ्रष्टाचार के एक आरोपी को केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) के तौर पर तैनात करना। इस परिप्रेक्ष्य में कपिल सिब्बल और पी. चिदंबरम जैसे कुछ केंद्रीय मंत्रियों के प्रवचन सुनना अजीब लगता है, जो 1980 के दशक में मीडिया विरोधी बिल लाने के कर्णधार थे। कुछ दिन पहले उन्होंने संयुक्त रूप से मीडिया को संबोधित करते हुए मजबूत लोकपाल बिल लाने की पक्षधर सिविल सोसाइटी के सदस्यों पर हमला किया कि बाहरी लोगों द्वारा लिए गए फैसलों के आधार पर सरकार चलाना सही नहीं है। मजबूत लोकपाल के खिलाफ एक अन्य दलील यह थी कि सरकार के समानांतर एक और ढांचा खड़ा नहीं किया जा सकता। इन मंत्रियों ने हैरानी जताते हुए कहा कि सरकार अपनी शक्तियों को कम करने का काम कैसे कर सकती है? किंतु क्या मनमोहन सिंह सरकार पिछले सात वर्षो से यही नहीं कर रही है? क्या उसने अपनी शक्तियां संवैधानेतर सत्ता सोनिया गांधी के हाथों में नहीं सौंप दीं? पी. चिदंबरम की दलील तो इससे भी अधिक हास्यास्पद थी कि देश में संविधान है, जिसके मूल ढांचे में बदलाव नहीं किया जा सकता। कांग्रेस के दर्जनों सांसदों व नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रतिपादित संविधान के मूलभूत ढांचे के विचार की संसद के भीतर और बाहर अनेक बार धज्जियां उड़ाई हैं। उन्होंने तो यहां तक कहा है कि उनके पास सुप्रीम कोर्ट के जजों को सबक सिखाने के अपने तरीके हैं। आपातकाल की वर्षगांठ पर हमें उन भयावह संवैधानिक संशोधनों पर भी नजर डालनी चाहिए जो कांग्रेस ने आपातकाल के दौरान किए थे। इनमें प्रधानमंत्री को संविधान से ऊपर स्थापित करना, सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट की शक्तियों को कम करना और राष्ट्रपति को कार्यकारी आदेश के माध्यम से संविधान संशोधन की शक्ति प्रदान करना शामिल था। इन संशोधनों ने संविधान के मूलभूत सिद्धांतों को ही ध्वस्त कर दिया था। कांग्रेस के रवैये में अभी भी कोई परिवर्तन नहीं आया है, इसलिए अधिक सावधान रहने की आवश्यकता है। हमें 25 जून को खुद को यह याद दिलाने के लिए इस्तेमाल करना चाहिए कि कांग्रेस अथवा उसके नेतृत्व वाली सरकार क्या-क्या शरारतें करने में समर्थ है? हमें विरोध से घृणा करने वाली कांग्रेस द्वारा आपातकाल के दौरान मारे गए, सताए गए और जेल में ठूंस दिए गए लाखों लोगों का स्मरण करना चाहिए। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)