चार जून को पुलिस द्वारा आधी रात को दिल्लीᅠसे भगाए जाने के २१ दिन बाद बाबा रामदेव ने दिल्ली आकर फिर भ्रष्टाचार और सरकार के अत्याचार के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखने का ऐलान किया है। यह स्वाभाविक है क्योंकि यदि योग गुरु अपने अनशन योग की विफलता के बाद चुप बैठ जाते तो इससे उनकी रही-सही साख मिट्टी में मिलने का खतरा था। इसलिए रामदेव का यह तेवर चौंकाने वाला नहीं कहा जा सकता। फिर केंद्र सरकार को अस्थिर करने में जुटी ताकतों का समर्थन भी उनका हौसला दोबारा बढ़ा रहा है। उधर लोकपाल विधेयक के मसौदे को लेकर सरकार से गंभीर मतभेद के बाद अण्णा हजारे ने १६ अगस्त से फिर दिल्ली में आमरण अनशन पर बैठने की घोषणा कर दी है।
वैसे रामदेव और अण्णा के समर्थकों को छोड़ भी दें तो लगातार महँगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त आम लोगों के मन में अब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी सरकार के प्रति कोई सहानुभूति नहीं बची है लेकिन मध्यावधि चुनाव भी कोई नहीं चाहता है, यहाँ तक कि विपक्ष भी २०१४ तक देश का माहौल कांग्रेस और यूपीए विरोधी बनाकर चुनाव मैदान में उतरने और जीतने का मंसूबा बनाए हुए है। कांग्रेस और यूपीए सरकार के बीच भीषण अंदरूनी घमासान है। खबरें तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बीच भी मतभेद की आ रही हैं।
देश के भीतर और बाहर कई चुनौतियाँ हैं। खाड़ी क्षेत्र में चल रही अशांति की वजह से कच्चे तेल की कीमतें बेतहाशा बढ़ रही हैं । ओसामा की मौत के बावजूद आतंकवाद की कमर टूटी नहीं है और पाकिस्तान में सक्रिय भारत विरोधी आतंकवादी संगठन खुद को फिर मजबूत करने में जुटे हैं। पाकिस्तान और चीन की पकती खिचड़ी के निशाने पर भी भारत है। नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार, अफगानिस्तान, श्रीलंका में भारतीय हित दाँव पर हैं। देश के भीतर ९० करोड़ लोगों को सस्ता अनाज मुहैया कराने वाले खाद्य सुरक्षा कानून को लेकर रस्साकसी है। आंतरिक सुरक्षा के क्षेत्र में नक्सलवाद हिंसा बड़ी चुनौती है। वहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की परियोजनाओं और खनन संपदा की लूट के विरोध में आदिवासियों और स्थानीय जनता का विरोध भी देश की चिंता का विषय है। सांप्रदायिक ताकतें नए चोले में सक्रिय हो रही हैं। विकास की दर तो बढ़ रही है लेकिन उसका लाभ आम आदमी तक नहीं पहुँच रहा है और सरकारी योजनाओं में होने वाली लूट अब माफिया राज में बदलती जा रही है। ये सारे सवाल हैं जिनका समाधान देश की सरकार और जिम्मेदार राजनीतिक दलों को निकालना चाहिए लेकिन देश लोकतंत्र के नाम पर भीड़तंत्र में बदलता जा रहा है और उसके लिए सरकार, विपक्ष तथा रामदेव व अण्णा जैसे सिविल सोसायटी के स्वयंभू नुमाइंदे जिम्मेदार हैं।
हजारे की साख और ईमानदारी पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगा सकता। उनके समर्पण और प्रतिबद्धता की वजह से ही उनके आमरण अनशन को देशव्यापी समर्थन मिला और सरकार को झुककर लोकपाल विधेयक मसौदा संयुक्त समिति बनानी पड़ी। यह अण्णा आंदोलन की बड़ी सफलता थी लेकिन यहीं से उस आंदोलन में एकाधिकारवाद पनपने की शुरुआत भी हुई। अण्णा की माँग थी कि सरकार जो लोकपाल कानून बनाए उसमें नागरिक समाज के सुझाव और मुद्दे भी शामिल करे। अण्णा टीम ने जन लोकपाल के नाम से एक मसौदा भी बनाया हुआ था और चाहती थी कि सरकार उसे शत-प्रतिशत मान ले। लेकिन बाद में माँग संयुक्त समिति बनाने पर आ गई और संयुक्त समिति का गठन हो गया। सरकार से समझौता होते ही टीम अण्णा ने सात जंतर-मंतर स्थित स्वामी अग्निवेश के निवास सह कार्यालय के बंद कमरे में अपने मनमाफिक पाँच नाम तय कर दिए जिसमें दो पिता पुत्र- शांति भूषण और प्रशांत भूषण शामिल थे । इसके विरोध में कुछ स्वर उठे भी लेकिन भीड़ और जिंदाबाद के शोर में दब गए। जब लोकपाल जैसी महत्वपूर्ण संस्था का गठन हो रहा है तो उसके लिए दो महीने की समय सीमा की जल्दबाजी क्यों? जब प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे में लाने की बात हो रही हो तो व्यापक विचार-विमर्श क्यों जरूरी नहीं समझा गया? अगर मसौदा समिति व्यापक होती तो व्यापक विचार१विमर्श होता और सही मायने में न सरकार की मनमानी चलती न टीम अण्णा का हठ आड़े आता। समझौते के बाद आंदोलनकारियों के एक छोटे से समूह ने यह सवाल किया कि बंद कमरे में नाम किस तरह चुने गए, उसे सार्वजनिक होना चाहिए। संयुक्त समिति की बैठक की वीडियो रिकॉर्डिंग सार्वजनिक करने की माँग करने से पहले टीम अण्णा को इस सवाल पर भी गौर करना चाहिए कि उन्होंने समिति के सदस्यों के चयन में कितनी पारदर्शिता बरती ।
अण्णा टीम सरकार द्वारा तैयार किए गए लोकपाल विधेयक के प्रारूप को पहले से तो बेहतर मानती है लेकिन अपने कुछ मुद्दों को लेकर हजारे को दोबारा अनशन पर बिठाने की तैयारी भी कर रही है जबकि बेहतर यह होगा कि हजारे और उनके साथी अनशन का दबाव बनाने के बजाय राजनीतिक दलों और सांसदों से संपर्क करके अपने मुद्दों पर उन्हें राजी करें। इससे सरकार पर दबाव बनेगा। ४२ साल बाद अगर लोकपाल कानून बन रहा है तो कोशिश यह हो कि उसके लिए सर्वानुमति बनाई जाए, न कि हठयोग करके सर्वानुमति बनने ही न दी जाए। भ्रष्टाचार और राजनीतिक सिद्धांतहीनता बढ़ने के बावजूद संसद के विवेक पर सवाल उठाने का अधिकार किसी को नहीं है। यह न सिर्फ जनादेश का अपमान है बल्कि लोकतंत्र को अराजकता की ओर ले जाने की कोशिश भी मानी जाएगी । टीम अण्णा लोकपाल के मुद्दे पर जनमत संग्रह की माँग भी कर रही है लेकिन उसे समझना चाहिए कि एक बार अगर जनमत संग्रह का पिटारा खुल गया तो न जाने कितने मुद्दे उभर आएँ।
वैसे रामदेव और अण्णा के समर्थकों को छोड़ भी दें तो लगातार महँगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त आम लोगों के मन में अब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी सरकार के प्रति कोई सहानुभूति नहीं बची है लेकिन मध्यावधि चुनाव भी कोई नहीं चाहता है, यहाँ तक कि विपक्ष भी २०१४ तक देश का माहौल कांग्रेस और यूपीए विरोधी बनाकर चुनाव मैदान में उतरने और जीतने का मंसूबा बनाए हुए है। कांग्रेस और यूपीए सरकार के बीच भीषण अंदरूनी घमासान है। खबरें तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बीच भी मतभेद की आ रही हैं।
देश के भीतर और बाहर कई चुनौतियाँ हैं। खाड़ी क्षेत्र में चल रही अशांति की वजह से कच्चे तेल की कीमतें बेतहाशा बढ़ रही हैं । ओसामा की मौत के बावजूद आतंकवाद की कमर टूटी नहीं है और पाकिस्तान में सक्रिय भारत विरोधी आतंकवादी संगठन खुद को फिर मजबूत करने में जुटे हैं। पाकिस्तान और चीन की पकती खिचड़ी के निशाने पर भी भारत है। नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार, अफगानिस्तान, श्रीलंका में भारतीय हित दाँव पर हैं। देश के भीतर ९० करोड़ लोगों को सस्ता अनाज मुहैया कराने वाले खाद्य सुरक्षा कानून को लेकर रस्साकसी है। आंतरिक सुरक्षा के क्षेत्र में नक्सलवाद हिंसा बड़ी चुनौती है। वहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की परियोजनाओं और खनन संपदा की लूट के विरोध में आदिवासियों और स्थानीय जनता का विरोध भी देश की चिंता का विषय है। सांप्रदायिक ताकतें नए चोले में सक्रिय हो रही हैं। विकास की दर तो बढ़ रही है लेकिन उसका लाभ आम आदमी तक नहीं पहुँच रहा है और सरकारी योजनाओं में होने वाली लूट अब माफिया राज में बदलती जा रही है। ये सारे सवाल हैं जिनका समाधान देश की सरकार और जिम्मेदार राजनीतिक दलों को निकालना चाहिए लेकिन देश लोकतंत्र के नाम पर भीड़तंत्र में बदलता जा रहा है और उसके लिए सरकार, विपक्ष तथा रामदेव व अण्णा जैसे सिविल सोसायटी के स्वयंभू नुमाइंदे जिम्मेदार हैं।
हजारे की साख और ईमानदारी पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगा सकता। उनके समर्पण और प्रतिबद्धता की वजह से ही उनके आमरण अनशन को देशव्यापी समर्थन मिला और सरकार को झुककर लोकपाल विधेयक मसौदा संयुक्त समिति बनानी पड़ी। यह अण्णा आंदोलन की बड़ी सफलता थी लेकिन यहीं से उस आंदोलन में एकाधिकारवाद पनपने की शुरुआत भी हुई। अण्णा की माँग थी कि सरकार जो लोकपाल कानून बनाए उसमें नागरिक समाज के सुझाव और मुद्दे भी शामिल करे। अण्णा टीम ने जन लोकपाल के नाम से एक मसौदा भी बनाया हुआ था और चाहती थी कि सरकार उसे शत-प्रतिशत मान ले। लेकिन बाद में माँग संयुक्त समिति बनाने पर आ गई और संयुक्त समिति का गठन हो गया। सरकार से समझौता होते ही टीम अण्णा ने सात जंतर-मंतर स्थित स्वामी अग्निवेश के निवास सह कार्यालय के बंद कमरे में अपने मनमाफिक पाँच नाम तय कर दिए जिसमें दो पिता पुत्र- शांति भूषण और प्रशांत भूषण शामिल थे । इसके विरोध में कुछ स्वर उठे भी लेकिन भीड़ और जिंदाबाद के शोर में दब गए। जब लोकपाल जैसी महत्वपूर्ण संस्था का गठन हो रहा है तो उसके लिए दो महीने की समय सीमा की जल्दबाजी क्यों? जब प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे में लाने की बात हो रही हो तो व्यापक विचार-विमर्श क्यों जरूरी नहीं समझा गया? अगर मसौदा समिति व्यापक होती तो व्यापक विचार१विमर्श होता और सही मायने में न सरकार की मनमानी चलती न टीम अण्णा का हठ आड़े आता। समझौते के बाद आंदोलनकारियों के एक छोटे से समूह ने यह सवाल किया कि बंद कमरे में नाम किस तरह चुने गए, उसे सार्वजनिक होना चाहिए। संयुक्त समिति की बैठक की वीडियो रिकॉर्डिंग सार्वजनिक करने की माँग करने से पहले टीम अण्णा को इस सवाल पर भी गौर करना चाहिए कि उन्होंने समिति के सदस्यों के चयन में कितनी पारदर्शिता बरती ।
अण्णा टीम सरकार द्वारा तैयार किए गए लोकपाल विधेयक के प्रारूप को पहले से तो बेहतर मानती है लेकिन अपने कुछ मुद्दों को लेकर हजारे को दोबारा अनशन पर बिठाने की तैयारी भी कर रही है जबकि बेहतर यह होगा कि हजारे और उनके साथी अनशन का दबाव बनाने के बजाय राजनीतिक दलों और सांसदों से संपर्क करके अपने मुद्दों पर उन्हें राजी करें। इससे सरकार पर दबाव बनेगा। ४२ साल बाद अगर लोकपाल कानून बन रहा है तो कोशिश यह हो कि उसके लिए सर्वानुमति बनाई जाए, न कि हठयोग करके सर्वानुमति बनने ही न दी जाए। भ्रष्टाचार और राजनीतिक सिद्धांतहीनता बढ़ने के बावजूद संसद के विवेक पर सवाल उठाने का अधिकार किसी को नहीं है। यह न सिर्फ जनादेश का अपमान है बल्कि लोकतंत्र को अराजकता की ओर ले जाने की कोशिश भी मानी जाएगी । टीम अण्णा लोकपाल के मुद्दे पर जनमत संग्रह की माँग भी कर रही है लेकिन उसे समझना चाहिए कि एक बार अगर जनमत संग्रह का पिटारा खुल गया तो न जाने कितने मुद्दे उभर आएँ।
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