Monday, November 19, 2012

बाला साहेब की राजनीतिक विरासत



16 नवंबर की दोपहर हिंदी सामना अखबार के मुख्य सामचार का शीर्षक था, महाराष्ट्र बेचैन, देश चिंतित। उसके नीचे खबर थी, उद्धव ठाकरे का शिवसैनिकों से आह्वान शांति रखो, संयम रखो। सामान्यत: किसी नेता के मरणासन्न अवस्था में पहुंचने या बाला साहेब ठाकरे की तरह बीमार पड़ने पर ऐसी खबरें नहीं दिखतीं। शिवसेना का मुखपत्र होने के कारण इसमें अतिशयोक्ति की ुपूरी संभावना है, पर यदि हम इन दोनों समाचारों को मिला दें तो इनमें बाला साहेब का अपना चरित्र, उन्हें लेकर राजनीतिक-सामाजिक वर्र्गो की प्रतिक्रिया और ठाकरे द्वारा उनके तरीकों से निर्मित शिवसेना का चरित्र भी स्पष्ट हो जाता है। ठाकरे की सेहत बिगड़ने के साथ ऐसा लगा मानो मुंबई की सारी सड़कें केवल ठाकरे निवास मातोश्री की ओर ही जा रही हों। राजनेताओं से लेकर अभिनेताओं, कारोबारियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं सभी का लक्ष्य मातोश्री। एक ओर यह स्थिति तो दूसरी ओर प्रशासन में अनहोनी का भय और प्रदेश पुलिस, अर्धसैनिक बल सहित पूरे सुरक्षा महकमे को चौकस कर दिया गया। इन तस्वीरों को मिलाकर निष्कर्ष निकालें। शायद ही कभी ऐसा होता हो जब पूरी उम्र जीने के बाद मरणासन्न अवस्था में पड़े व्यक्ति के समर्थकों से कानून एवं व्यवस्था बिगड़ने का इतना खौफ होता हो कि पता नहीं अभी या उनके गुजरने के बाद ये क्या करेंगे। तमिलनाडु में जयललिता या करुणानिधि या कुछ अन्य नेताओं या अभिनेताओं के समर्थक ऐसी स्थिति में शायद थोड़े ज्यादा भावुक हो जाएं और कुछ हिंसा कर बैठें। मुंबई में बंद जैसा माहौल। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी तक का दो दिवसीय महाराष्ट्र दौरा भी रद कर दिया गया। ऐसे अलग बनी शिव सेना सरकार की ओर से बयान आया कि गृह मंत्रालय प्रदेश पुलिस महानिदेशक से लगातार संपर्क में है और मुंबई के हालात पर नजर रखे हुए है। जैसे ही राज्य की ओर से और टुकडि़यां भेजे जाने की मांग आएगी सैन्य बलों को मौके पर भेज दिया जाएगा। यही बाला साहब ठाकरे और उनकी बनाई शिवसेना तथा अन्य संगठनों में मौलिक अंतर है। उन्होंने अपने संगठन का निर्माण ही कुछ इस तरह किया और उसके सदस्यों के अंदर ऐसी उत्तेजक वृत्ति भरी कि वे ज्यादा स्थिर, संयमित-संतुलित होकर सक्रिय नहीं रह सकते। शिवसैनिकों को तैयार ही इस तरह से किया गया जिसमें उनकी स्थिरता, उनके संयम और संतुलन की सीमाएं अत्यंत सिकुड़ गईं। हालांकि 1966 में शिवसेना की स्थापना से अगले लगभग तीन दशक तक बाला साहेब द्वारा बनाए गए कार्यकर्ताओं की दो पीढ़ी गर्जन-तर्जन की उम्र पार कर चुकी है, इसलिए पहले की तरह उनका सामूहिक रवैया नहीं होता। उद्धव की आवाज और हावभाव में बाला साहेब की हनक भी नहीं, इसलिए उस तरह उद्धत लोग नए सिरे से तैयार नहीं हो रहे। फिर भी करीब साढ़े तीन दशक का उनका पूरा प्रयाण प्रशासन को ऐसा सोचने के लिए विवश करता है। भारतीय राजनीति में बाला साहेब की यह ऐसी देन है जिसकी सामान्यत: आलोचना की जाती है और जिसे बौद्धिक समाज केएक बड़े हिस्से में अच्छी नजर से नहीं देखा जाता, किंतु यही बाला साहेब एवं उनकी शिवसेना की शक्ति थी। यही वह मूल शक्ति है जिसकी बदौलत मुंबई और महाराष्ट्र के बड़े हिस्से में उनकी बिजली कड़कती थी, फिर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह सत्ता में रहें या न रहें। बाला साहेब ने राजनीति एवं बाहरी सार्वजनिक जीवन में खुद के व्यक्तित्व को ऐसा प्रदर्शित किया, जो उनमें आम नेताओं से अलग हर अवसर पर दहाड़ने वाला शेर नजर आए, जो ऐसे लोगों की आवाज को आक्रमक उतुंगता दे जिन्हें लगता हो कि शासन व नेता या अन्य समूह-संस्था उनके, उनकी कौम, क्षेत्र, संस्कृति के साथ अन्याय कर रहे हैं और इन्हें चुनौती की भाषा में प्रत्युत्तर देना जरूरी है। इसमें सामने वाले का सत्ताधारी होना ही जरूरी नहीं है। बाला साहेब ने वामपंथी मजदूर संगठनों के विरुद्ध अभियान चलाया। उन्होंने मराठियों को समझाया कि ये मजूदर संघ और इनके नेता आए दिन बंद, हड़ताल, प्रदर्शनों से मराठा राज्य को नुकसान पहुंचा रहे हैं। फिर इनके नेता बड़ी संख्या में गैर मराठी हैं। इस नाते वामपंथी नेताओं और बुद्धिजीवियों की नजर में वह एक प्रतिक्रियावादी, प्रतिगामी, उद्धत, बुर्जुआ, पूंजीवादी और कुल मिलाकर फासीवादी सोच और कर्म के व्यक्ति थे और उनका सारा क्रियाकलाप भी इसी के ईर्द-गिर्द घूमा करता था। बाला साहेब को सोचने का तरीका यदि आप फासीवाद की वामपंथी परिभाषा के दायरे में और प्रतिक्रियावाद, उद्धत विचारों की उनकी सोच के इर्द-गिर्द विचार करेंगे तो उत्तर हां में आएगा। आखिर मुसोलिनी और हिटलर ने भी वामपंथी समूहों का पुरजोर विरोध किया था और इसके लिए स्थानीय संस्कृति, जाति, भूगोल और मजहब के भाव से उग्र राष्ट्रवाद का मनोभाव पैदा किया था। बाला साहेब का आरंभिक सन्स ऑफ द सॉइल यानी भूमिपुत्र सिद्धांत भी संकुचित उद्धत राष्ट्रीयता नजर आता है, जिसमें मारवाडि़यों, दक्षिण के निवासियों और गुजरातियों के प्रति घृणा का भाव भरा हुआ था। उन्होंने लोगों के बीच यह संदेश दिया कि महाराष्ट्र से बाहर के लोग यहां आपका हक मार रहे हैं, व्यवसाय एवं नौकरियों में आपके ऊपर चले गए, इसलिए उन्हें बाहर खदेड़ो, मार भगाओ। इस तरह के उग्र विचार के प्रचार और कार्रवाई की आक्रामक शैली का छोटा रूप पिछले छह सालों में उनके भतीजे राज ठाकरे में दिखा है। शिवसेना का गठन ही बाहर के राज्यों के लोगों के उग्र विरोध कर उनको भगाने के उद्देश्य से हुआ। उस संगठन का नाम अन्य राजनीतिक संगठनों की तरह न रखकर सेना दिया गया। यानी शिवाजी की सेना। हालांकि शिवाजी की राष्ट्रीयता में हिंदुत्व था, संकुचित क्षेत्रीयता नहीं, पर इतनी गहराई से सोचने की जहमत उठाए कौन। समूह इतनी गहराई से नहीं सोचता और बाला साहेब के नेतृत्व ने अपने समर्थकों में इतना गहरा आकर्षण पैदा किया कि वे केवल उनके कहे पर विश्वास पैदा करते थे। उनके सारे तर्क बाला साहेब से आरंभ और वहीं खत्म होते थे। यानी शिवाजी की सेना की तरह टूट पड़ो। वह समय सत्ता से गहरी निराशा का था और औद्योगिक, व्यावसायिक प्रदेश होने के कारण इसके स्वाभाविक द्वंद्व उपलब्ध थे। इसका लाभ भी बाला साहेब को मिला। अपनी तरह के अकेले शख्स आप चाहे जितनी आलोचना कीजिए, लेकिन बाला साहेब एक फेनोमेना बन गए। वह भारत के अकेले शख्स हैं जिन्होंने कार्टूनिस्ट से जीवन आरंभ कर एक आवाज पर कुछ भी कर गुजरने वालों की फौज खड़ी कर दी, जिसने उन्हें प्रदेश की बेताज बादशाहत प्रदान की। कहा जाता है कि बाल ठाकरे के राजनीतिक विचार उनके पिता से प्रेरित हैं, जो युनाइटेड महाराष्ट्र मूवमेंट के बड़े नेता थे। इस आंदोलन के जरिये भाषाई तौर पर अलग महाराष्ट्र बनाने की मांग हो रही थी। अपनी पत्रिका मार्मिक के जरिये बाल ठाकरे ने मुंबई में गुजरातियों, मारवाडि़यों और दक्षिण भारतीय लोगों के बढ़ते प्रभाव के खिलाफ मुहिम चलाई, लेकिन तब बाल ठाकरे की उम्र के अनेक युवक थे जिनके पिता या दाया या कोई उस आंदोलन में शामिल था, पर वह तो अकेले ही सामने आए। यह भी कम आश्चर्य की बात नहीं कि एक समय की क्षेत्रीयता आगे हिंदुत्व की आक्रामकता में परिणत हो गई और इसे स्वीकृति मिली। मराठी मानुष सम्राट से हिंदू हृदय सम्राट तक का उनका सफर विस्मित करने वाला है। इसकी स्वीकार्यता के परिणामस्वरुप ही मुंबई महानगरपालिका पर लंबे समय से शिवसेना-भाजपा का अधिकार है, 1995 में दोनों दलों को प्रदेश में बहुमत भी मिला तथा आज ये मुख्य विपक्षी गठजोड़ के रूप में कांग्रेस-राकांपा के मुकाबले खड़े हैं। बाहरी दुनिया में उनकी जितनी आलोचना हुई हो, उनकी धाक खत्म नहीं हुई। सबसे बढ़कर उन्होंने जितने निजी संपर्क बनाए, जिनसे प्रेम या भय से संबंध बनाया वह तो और भी चमत्कारी है। जरा देख लीजिए, उनकी अचेतावस्था में जाने की सूचना मिलते ही मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण, गृहमंत्री आरआर पाटिल, राज्यपाल, दूसरे दलों के नेता शरद पवार, छगन भुजबल, नितिन गडकरी, गोपीनाथ मुंडे, रामदास आठवले जैसे लोग मातोश्री पहुंचे। मुंबई फिल्म उद्योग से तो शायद ही कोई वंचित रहा हो। गायिका लता मंगेशकर ने रविवार को होने वाले अपनी संगीत कंपनी का उद्घाटन भी रद कर दिया। परिवार में भी वह सबसे चहेते थे। यह अलग बात है कि ठाकरे की विरासत उस रूप में संभालनी अत्यंत मुश्किल है। उनका जाना सिर्फ कहने के लिए नहीं, वाकई एक युग का अंत है जिसके पक्ष एवं विपक्ष में बहुत कुछ कहा हा सकता है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
 Dainik Jagran National Edition 19-11-2012 Page -8 राजनीतिक



Sunday, November 18, 2012

मुश्किल राह पर राहुल



कांग्रेस ने आखिरकार राहुल गांधी को राष्ट्रीय चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाकर न केवल उन्हें औपचारिक रूप से पार्टी में नंबर दो के दर्जे पर पहुंचा दिया, बल्कि यह संकेत भी दे दिए कि उसने अगले आम चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है। इसके अगले ही दिन सपा ने अपने 55 लोकसभा प्रत्याशियों के नाम का ऐलान कर दिया और इस तरह उत्तर प्रदेश में उसने दोनों ही राष्ट्रीय दलों-कांग्रेस और भाजपा के सामने एक चुनौती पेश कर दी। वैसे तो केंद्र सरकार का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस लगातार यह कह रही है कि मध्यावधि चुनाव की कोई संभावना नहीं है और यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति का मौजूदा परिदृश्य यही संकेत करता है कि अगले वर्ष कभी भी मध्यावधि चुनाव की नौबत आ सकती है। विशेषकर तृणमूल कांग्रेस के एफडीआइ के मुद्दे पर अलग हो जाने के बाद केंद्र सरकार जिस तरह सपा और बसपा के समर्थन पर आश्रित हो गई है उससे लोकसभा चुनाव समय से पूर्व होने की अटकलों को आधारहीन नहीं कहा जा सकता। वैसे भी तृणमूल कांग्रेस के समर्थन वापस ले लेने के बाद तकनीकी रूप से केंद्र सरकार अल्पमत में ही है। पिछले सप्ताह कांग्रेस ने सूरजकुंड में आयोजित अपनी संवाद बैठक में केंद्र सरकार को यह नसीहत दी कि वह जल्द से जल्द पार्टी के घोषणापत्र के वायदों को पूरा करे और ऐसी आर्थिक नीतियों पर अमल करे जो आम आदमी को राहत पहुंचाने वाली हों। ऐसा लगता है कि कांग्रेस को यह अहसास हो रहा है कि उसके नेतृत्व वाली केंद्र सरकार का दूसरा कार्यकाल आम आदमी के हितों के लिहाज से अच्छा नहीं रहा है। विशेषकर सब्सिडी वाले घरेलू गैस सिलेंडरों की संख्या सीमित करने का फैसला आम आदमी पर भारी पड़ रहा है। संवाद बैठक में रक्षा मंत्री एके एंटनी ने इस फैसले पर अपनी नाराजगी भी जाहिर की। उनका कहना था कि कांग्रेस की नीतियां हमेशा से मध्यमार्गी और वामपंथी झुकाव वाली रही हैं। फिर नीतियों में यह दक्षिणपंथी भटकाव क्यों नजर आ रहा है? भले ही सोनिया गांधी ने शीघ्र चुनाव की संभावना को खारिज किया हो, लेकिन कांग्रेस ने जिस तरह अपने चुनावी रथ की बागडोर राहुल गांधी को सौंपी और लाख कोशिशों के बावजूद केंद्र सरकार की छवि में सुधार नहीं हो पा रहा है उससे मध्यावधि चुनाव की संभावना को स्वत: बल मिलता है। कांग्रेस का चुनावी प्रबंधन अब तक अनौपचारिक रूप से सोनिया गांधी के पास रहता था। वैसे राहुल गांधी के लिए यह जिम्मेदारी कोई नई नहीं है, क्योंकि पिछले दो-तीन वर्षो से सभी चुनावों में कांग्रेस का अभियान उन्हीं की देखरेख में चलता रहा है। यह स्वाभाविक ही है कि प्रत्येक राजनीतिक दल की तरह कांग्रेस भी यह उम्मीद कर रही है कि वह अगले आम चुनाव में अपेक्षा के अनुरूप प्रदर्शन करेगी, लेकिन मौजूदा राजनीतिक माहौल कांग्रेस के अनुकूल नजर नहीं आता। जहां तक कांग्रेस में राहुल गांधी की भूमिका बढ़ने का प्रश्न है तो यह स्वाभाविक ही है कि पार्टी उनसे चमत्कार की आशा कर रही है। राहुल गांधी युवा और जोश से भरे हुए राजनेता हैं, लेकिन पिछली कुछ चुनावी असफलताओं और खासकर उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के नतीजों ने उनके नेतृत्व व जमीनी सच्चाई के आकलन की क्षमता पर कुछ सवाल खड़े किए हैं। राहुल गांधी ने अभी तक सरकार में ऐसा कोई पद भी ग्रहण नहीं किया जिससे उनकी प्रशासनिक क्षमता की परीक्षा होती। इस बार के मंत्रिमंडल विस्तार में भी यह उम्मीद की जा रही थी कि वह सरकार को नई धार देने के लिए कैबिनेट में शामिल होंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। राहुल गांधी की क्षमताओं को लेकर चाहे जितनी बातें की जाएं, लेकिन उन्हें इसका श्रेय तो देना ही होगा कि वह विपरीत परिस्थितियों में भी कांग्रेस को एकजुट रखने में कामयाब हैं और हताशा के माहौल में पार्टी की सबसे बड़ी उम्मीद बने हुए हैं। पार्टी का बड़ा से बड़ा नेता भी राहुल गांधी के नेतृत्व में ही आगे बढ़ना चाहता है। ऐसे में उनके ऊपर यह जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह कांग्रेस की नैया पार लगाएं, लेकिन यह तभी संभव है जब केंद्र सरकार अपने कामकाज से यह आभास कराएगी कि वह आम जनता की समस्याओं का समाधान करने और साफ-सुथरा शासन देने के लिए प्रतिबद्ध है। राहुल गांधी को राष्ट्रीय चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाने के साथ ही कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव से संबंधित तीन उपसमितियों का भी गठन किया है। इसके साथ ही पार्टी सभी राज्यों की राजनीतिक तस्वीर जानने के लिए विशेष पर्यवेक्षक भेजने का सिलसिला भी शुरू करने जा रही है। माना जा रहा है कि कांग्रेस मार्च तक लोकसभा चुनाव के लिए उम्मीदवारों की अपनी पहली सूची जारी कर देगी। उम्मीदवारों के नाम तय करने के मामले में क्षेत्रीय दल हमेशा राष्ट्रीय दलों से आगे रहते हैं, क्योंकि उनमें नामों को लेकर विरोध उभरने की गुंजाइश कम होती है। इसके विपरीत भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों के लिए यह काम हमेशा जटिल सिद्ध होता है। कांग्रेस को यह आभास होना स्वाभाविक ही है कि देर से प्रत्याशी घोषित करने के कारण उसके प्रत्याशियों को क्षेत्र में कार्य करने का कम समय मिलता है। अब देखना यह है कि राहुल गांधी को चुनाव अभियान की कमान मिलने के बाद क्या यह स्थिति बदलेगी? इसमें संदेह नहीं कि कांग्रेस की सबसे बड़ी शक्ति गांधी परिवार का नेतृत्व है और इस दल में नेतृत्व संबंधी कोई विरोध भी नहीं है, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि राज्यों में जितनी उठापटक और गुटबाजी कांग्रेस में व्याप्त है उतनी संभवत: किसी अन्य दल में नहीं है। राज्यों में तमाम ऐसे वरिष्ठ नेता हैं जो एक-दूसरे को तनिक भी पसंद नहीं करते। इन स्थितियों में यदि आलाकमान की ओर से प्रत्याशियों के संदर्भ में कोई निर्णय ले भी लिया जाता है तो उनको जमीनी स्तर पर समर्थन नहीं मिलता। पिछले कुछ वर्षो में राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के जनाधार में आई गिरावट का यह एक प्रमुख कारण भी रहा है। कुछ ऐसी ही स्थिति भाजपा की भी है। इसके विपरीत क्षेत्रीय दल इस तरह की गुटबाजी से बचे रहते हैं, बावजूद इसके कि ज्यादातर क्षेत्रीय दलों का संचालन निजी उपक्रम के रूप में किया जाता है। जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है तो यद्यपि उसका इतिहास सौ वर्ष से भी पुराना है, लेकिन यह दल अभी भी चुनावी सफलता के लिए पूरी तौर पर गांधी परिवार पर आश्रित है और कुल मिलाकर आंतरिक लोकतंत्र से कोसों दूर है। राज्यों में गुटबाजी के हालात कांग्रेस नेतृत्व पर सवालिया निशान तो लगाते ही हैं, इस आवश्यकता को भी रेखांकित करते हैं कि पार्टी में सच्चे अर्थो में आंतरिक लोकतंत्र को स्थापित करने के लिए नेतृत्व और विशेषकर राहुल गांधी को वास्तव में कुछ ठोस उपाय करने होंगे। यह विचित्र है कि राहुल गांधी आंतरिक लोकतंत्र के लिए सक्रिय तो नजर आते हैं, लेकिन उनकी इस सक्रियता के कोई सार्थक प्रभाव नजर नहीं आते। युवक कांग्रेस में पदाधिकारियों के चयन के तौर-तरीकों में बदलाव का उनका प्रयोग भी एक सीमा से अधिक प्रभाव नहीं डाल सका। अब देखना यह है कि चुनाव की बागडोर संभालते हुए वह वरिष्ठ नेताओं को किस तरह एकजुट कर पाते हैं। यदि वह इसमें सफल रहे तो न केवल उनकी नेतृत्व क्षमता का लोहा माना जाएगा, बल्कि कांग्रेस उन मुश्किलों से भी उबर जाएगी जिनमें वह आज घिरी हुई नजर आ रही है।
Dainik jagran National Edition 18-11-2012 Page -8 jktuhfr)
 

Tuesday, November 6, 2012

बिहारी अस्मिता की राजनीति



पटना में रविवार को अधिकार रैली ने बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग को राजनीतिक एजेंडे में काफी ऊपर ला दिया है। प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस मांग को सूबे की अवाम की मांग के रूप में उठाने के लिए पूरे राज्य में अधिकार यात्रा निकाली थी। उनकी कई महीनों की मेहनत निश्चित रूप से तब रंग लाती दिखी, जब राज्य की राजधानी में लाखों लोग इस मांग के समर्थन में जुटे। पिछड़ापन दूर करने के लिए केंद्र सरकार से बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग के साथ ही राज्य में राजनीति का एक नया दौर शुरू हो गया है। पिछले दो-तीन दशकों में बिहार की राजनीति की नियामक ताकतें थीं- सामाजिक न्याय और जातिवादी वर्चस्व के बीच का विरोध और साझा। यह एक बिरला ही उदाहरण है जबकि प्रगतिवादी और प्रतिगामी दो तरह की धाराएं यहां की राजनीति का मन-मिजाज तय कर रही थीं। यह सब अब यहां बीते दौर की बात हो जाएगी, ऐसा तो नहीं कह सकते, पर इतना जरूर है कि बिहार भी अब देश के उन राज्यों की पांत में खड़ा हो गया है, जिसके लिए क्षेत्रीय अस्मिता के मायने भावनात्मक और राजनीतिक दोनों हैं। नीतीश कुमार जिस पार्टी की नुमाइंदगी करते हैं, उसका अतीत जरूर राष्ट्रीय रहा है, पर मौजूदा स्थिति में बिहार-झारखंड से बाहर उसकी उपस्थिति अपवादिक ही है। बिहार में उनका अभी दूसरा मुख्यमंत्रीत्वकाल चल रहा है। राजद को सत्ता से बेदखल करने के पीछे विकास एक बड़ा मुद्दा था। पिछले सात सालों में राज्य में बहुत कुछ बदला है। सुशासन का नारा अगर आज वहां पूरी तरह जमीनी नहीं है तो यह महज आसमानी भी नहीं है। बावजूद इन बदलावों और अनुकूलताओं के बिहार की शिनाख्त आज भी कहीं न कहीं बीमारू प्रदेश के रूप में ही होती है। यह शिनाख्त यहां से दूसरे सूबों में गए लोगों का भी पीछा नहीं छोड़ती और उन्हें तमाम तरह की प्रताड़नाओं का शिकार होना पड़ता है। नीतीश अब इस स्थिति के सामने अपनी लाचारी रोने के बजाय इसे एक राजनीतिक एजेंडे के रूप में देख रहे हैं। उनकी दलील है कि बिहार अगर विकास के राष्ट्रीय औसत से अब भी पिछड़ रहा है तो यह उनकी सरकार के कारण नहीं बल्कि केंद्र की उपेक्षा के कारण। साफ है कि वह राज्य में अपनी सरकार के खिलाफ पनप रहे आक्रोश और आलोचनाओं का रुख केंद्र की तरफ मोड़कर राज्य की राजनीति में अपने को लंबे समय तक प्रासंगिक बनाए रखना चाहते हैं। यही नहीं, विशेष राज्य के दज्रे की मांग उठाकर वे कहीं न कहीं गठबंधन दौर की राजनीति में अपनी हैसियत भी बढ़ा रहे हैं। बिहार में अभी जदयू-भाजपा या कहें, एनडीए का शासन है पर जो राजनीति नीतीश और उनकी पार्टी कर रही है, उसकी भाजपा विरोधी भले न सही, पर बराबर की शरीक भी नहीं है। दरअसल, यह एनडीए के भीतर अपनी स्थिति को और ज्यादा वजनदार बनाने की जदयू की सोची-समझी राजनीतिक कवायद है। अधिकार रैली में केंद्र को एक तरह से अल्टीमेटम दिया गया है कि अगर वह उनकी मांग को नहीं मानती है तो राज्य की जनता अगले साल मार्च में देश की राजधानी पहुंचकर अपनी ताकत का एहसास कराएगी। साफ है कि 2014 के आम चुनाव में केंद्र की राजनीति को बिहार के मतदाता निश्चित रूप से प्रभावित करेंगे और यह सब होगा बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने के मुद्दे की जमीन पर।

Rashtirya Sahara National Edition 6-11-2012 राजनीति Page-10