Sunday, January 30, 2011

कांग्रेस को उल्टा पड़ेगा दाव


एनटी रामाराव ने कांग्रेस और इंदिरा गांधी के अभिमान को न केवल प्रंचड चुनौती दी थी, बल्कि एक झटके में आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता उखाड़ फेंकी थी। इस प्रकार दक्षिण में तमिलनाडु के बाद आंध्र प्रदेश में कांग्रेस को अपना रुतबा और जनाधार खोना पड़ा था। अधिनायकवादी इंदिरा गांधी को यह बर्दाश्त होता तो कैसे? अपने विरोधियों पर सभी हथकंडे अपनाकर वह टूट पड़ती थीं। एनटी रामाराव के पास प्रचंड बहुमत था। इसलिए उन्हें सत्ता से बाहर करना मुश्किल था। एक ही रास्ता बचता था और वह था लोकतंत्र और संविधान की मूल आत्मा की कब्र पर एनटी रामाराव की सत्ता को गिराना। यही रास्ता चुना था इंदिरा गांधी ने। तब रामलाल नामक कांग्रेसी नेता इंदिरा गांधी का मोहरा बना था। राज्यपाल के रूप में रामलाल ने लोकतंत्र और संविधान का ऐसा गला घोंटा था, जो आज भी लोकतांत्रिक-संवैधानिक व्यवस्था पर कंलक के तौर पर देखा जाता है। प्रचंड बहुमत होने के बाद भी एनटी रामाराव को बर्खास्त कर दिया गया था। कई दिनों तक चली संविधान विरोधी कार्रवाइयों के बाद भी एनटी रामाराव का प्रचंड बहुमत टूटा-बिखरा नहीं। हारकर राष्ट्रपति को हस्तक्षेप करने पर राज्यपाल रामलाल एनटी रामाराव की सत्ता को फिर से स्थापित कराने के लिए बाध्य हुए थे। रोमेश भंडारी ऐसे एक अन्य राज्यपाल हुए थे, जिन्होंने कांग्रेसी इशारों पर नाचते हुए कांग्रेस विरोधी सरकारों को अस्थिर करने का खेल-खेलकर लोकतांत्रिक-संवैधानिक मूल्यों को सूली पर टांगा था। ये दोनों उदाहरण कर्नाटक में लोकतांत्रिक और संवैधानिक संकट के मद्देनजर महत्वपूर्ण हैं और इन्हीं दोनों उदाहरणों की कसौटी पर कर्नाटक के राज्यपाल हंसराज भारद्वाज की भूमिका देखी जानी चाहिए। हंसराज भारद्वाज ने जो आग लगाई है, उसमें कांग्रेस खुद भी जल सकती है। कल भाजपा और अन्य विपक्षी पार्टियां भी राष्ट्रपति से भ्रष्ट कांग्रेसी मंत्रियों और प्रधानमंत्री पर भी मुकदमा चलाने की अनुमति मांग सकती हैं। ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रपति के सामने संकट गहरा होगा और उनके सामने हंसराज भारद्वाज की संवैधानिक प्रक्रिया होगी। नैतिकता के तौर पर हंसराज भारद्वाज द्वारा खड़ी की गई प्रक्ति्रया का परीक्षण जरूरी हो जाएगा। हंसराज भारद्वाज जैसे राजनीतिज्ञ कोई अपनी काबलियत या फिर जनाधार की बदौलत राजनीति में नहीं चमकते हैं। ऐसे राजनीतिज्ञ केवल चाटुकारिता और समर्पण की बदौलत राजनीति में सीढि़यां नापते हैं। कांग्रेस के हित साधने में कानून और संविधान को दागदार करने में भी वे पीछे नहीं रहे हैं। राज्यपाल के रूप में ही नहीं, बल्कि केंद्रीय मंत्री के तौर पर भी उनकी भूमिका संदिग्ध रही है। जिस दिन हंसराज भारद्वाज को कर्नाटक का राज्यपाल बनाया गया था, उसी दिन तय हो गया था कि येद्दयुरप्पा सरकार को येन-केन-प्रकारेण अस्थिर किया जाएगा। दक्षिण में भाजपा ने पहली बार अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई थी और सत्ता में आने की उपलब्धि हासिल की थी। दक्षिण में कांग्रेस की दमदार उपस्थिति रही है। दक्षिण के प्रंचड बहुमत से ही कांग्रेस की केंद्रीय सत्ता स्थिर रहती है। ऐसी स्थिति कर्नाटक जैसे राज्य में भाजपा की सत्ता उपस्थिति कांग्रेस को पचती तो कैसे? कांग्रेस ने हंसराज भारद्वाज को मोहरा बनाया। केंद्रीय कानून मंत्री के पद से हटाकर हंसराज को कर्नाटक का राज्यपाल बनाया गया। कर्नाटक का राज्यपाल बनते ही उन्होंने भाजपा सरकार को स्थिर करने के लिए संविधान के इतर चालें चलनी शुरू हो गई। राज्यपाल का निवास विपक्ष और खासकर कांग्रेस के दफ्तर के तौर पर तब्दील हो गया। मुख्यमंत्री येद्दयुरप्पा के पास बहुमत तो था, पर निर्दलीय और दागी विधायकों के समर्थन की बदौलत। अस्थिर सत्ता की बहुत सारी कमजोरियां-मजबूरियां होती हैं। जाहिर तौर पर ऐसी कमजोरियों और मजबूरियों से येद्दयुरप्पा भी संकटग्रस्थ होंगे। राज्यपाल की सह पर येद्दयुरप्पा की सरकार को गिराने की अनेक कोशिशें हुई। निर्दलीय और दागी विधायकों ने समर्थन वापस लेकर येद्दयुरप्पा की सरकार को गिराने का उपक्रम किया, लेकिन प्रत्येक कोशिशों को येद्दयुरप्पा नाकाम करते रहे। हंसराज भारद्वाज ने अल्पअवधि में दो बार येद्दयुरप्पा को विधानसभा में बहुमत साबित करने का आदेश थमाया। दोनों बार येद्दयुरप्पा ने अपना बहुमत साबित किया। कांग्रेस उत्साहित हो सकती है कि उसने कर्नाटक में येद्दयुरप्पा की सत्ता को कानूनी घेरेबंदी में कैद कर छोड़ा है। कांग्रेस के इस उत्साह का भविष्य में कैसा रंग होता है, यह अभी देखना होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


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