Tuesday, January 4, 2011

कौन होगा इस साल का सिकंदर



नए साल को हर कोई उम्मीद के साथ देखता है और सबकी तमाम ख्वाहिशें भी होती हैं। राजनीति की दुनिया भी इससे अलग नहीं है। राजनीति की दुनिया में विगत के अच्छे-बुरे हर कदमों की बुनियाद नई संभावनाओं और चुनौतियों को लेकर आ खड़ी होती है। जाहिर है, 2011 भी राजनीति की दुनिया के लिए नई चुनौतियां लेकर आएगा

नए साल की आहट के साथ ही मन के कोने में दुबकी एक इच्छा जोर मारने लगती है। हर शख्स की यही ख्वाहिश होती है कि नए साल में विगत की दुश्वारियों का सामना न हो। राजनीति की दुनिया की ख्वाहिशें इससे अलग नहीं होतीं, लेकिन वहां ऐसा संभव नहीं होता। राजनीति की दुनिया में विगत के अच्छे-बुरे हर कदमों की बुनियाद नई संभावनाओं और चुनौतियों को लेकर आ खड़ी होती हैं। जाहिर है, 2011 भी राजनीति की दुनिया के लिए नई चुनौतियां लेकर आएगा। भावी घटनाओं का सटीक विवरण शायद भविष्यवक्ता भी न बता पाएं, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि यह नया साल न सिर्फ कांग्रेस, बल्कि भारतीय जनता पार्टी के लिए भी खासा अहम होगा। राहुल गांधी को जिस तरह भारतीय राजनीति में प्रोजेक्ट किया जा रहा है, उससे साफ है कि अगले साल भी उनकी सक्रियता बनी रहेगी। इस साल तमिलनाडु, पांडिचेरी, केरल, असम और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। अगर असम को छोड़ दें तो इन विधानसभा चुनावों में भाजपा का कुछ खास दांव पर नहीं लगा है। लिहाजा, उसे इन राज्यों में बेहतर प्रदर्शन का उतना दबाव नहीं होगा, जितना कांग्रेस पर होगा। चूंकि राहुल गांधी को ही कांग्रेस का भावी खेवनहार माना जा रहा है। लिहाजा, उनकी कोशिश यही होगी कि केरल में कांग्रेस की वापसी हो। केरल के पड़ोसी राज्य तमिलनाडु में कांग्रेस की पकड़ मजबूत हो, ताकि किसी राजा को मंत्रिमंडल में रखने की कांग्रेस की मजबूरी कम हो। जैसा कि केरल की राजनीति का अब तक का इतिहास रहा है, ऐसा माना जा रहा है कि वहां इस बार कांग्रेस की बारी है। वैसे भी वीएस अच्युतानंदन की अगुआई में वामपंथियों की सरकार का केरल में दोबारा सत्तारूढ़ होना खुद वामपंथियों को ही हजम नहीं होगा। केरल की मा‌र्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में जितनी गुटबाजी है, उससे तय है कि उनकी आपसी लड़ाई ही केरल में कांग्रेस को फायदा पहुंचाएगी यानी इस बार केरल में कांग्रेस की वापसी लगभग तय मानी जा सकती है। भारतीय राजनीति कितनी विडंबनापूर्ण है कि जिस आरएसएस को गांधी के हत्यारे और सांप्रदायिक के तौर पर कांग्रेस पूरे देश में प्रचार करती रहती है, केरल में वामपंथियों के विरोध के लिए उसी आरएसस का साथ लेने से नहीं हिचकती। लेकिन जिस तरह संघ ने बीजेपी की कमान अपने हाथों में थाम रखी है, उससे संभव है कि संघ इस बार केरल में बीजेपी को तीसरे मोर्चे के तौर पर उभारने की कोशिशें जरूर तेज करेगा। पश्चिम बंगाल में तो माना ही जा रहा है कि वामपंथ का तंबू इस बार उखड़ जाएगा। निश्चित तौर पर इसका श्रेय ममता बनर्जी को ही जाएगा। ममता की जैसी राजनीतिक अदाएं रही हैं, उससे साफ है कि कांग्रेसियों को इस कामयाबी के लिए राहुल का जयगान करना आसान नहीं होगा। अब तक के माहौल के मुताबिक ममता का साथ देना कांग्रेस की मजबूरी है, लेकिन यह भी संभव है कि तृणमूल कांग्रेस को बिहार में जनता दल यूनाइटेड की तरह भारी बहुमत मिल जाए। अगर ऐसा होता है तो वे कांग्रेस का साथ छोड़ने से भी नहीं हिचकेंगी। ऐसे में कांग्रेस की राजनीतिक राह में मुश्किलें खड़ी हो सकतीं हैं। रही बात असम की तो पिछले विधानसभा चुनावों में ही अगर असम गण परिषद दो फाड़ नहीं हुआ होता तो हितेश्वर सैकिया की वापसी संभव नहीं होती, लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह जयश्री गोस्वामी सारे गिले-शिकवे भूलकर पति के राजनीति पुनर्वास की तैयारियों में जुटी हुई हैं, असम गण परिषद के दूसरे धड़े के अध्यक्ष चंद्रमोहन पटवारी प्रफुल्ल कुमार महंत के साथ गलबहियां डाले घूम रहे हैं, उससे असम में कांग्रेस की दुश्वारियां बढ़नी तय है। हालांकि प्रवासी बंगाली वोटरों में भाजपा की पकड़ बनी हुई है। लिहाजा, उसने हार नहीं मानी है और 1999 की तरह एक बार फिर असम गण परिषद को अपने साथ लाने की कोशिशों में जुटी हुई है। विधानसभा चुनावों को ही ध्यान में रखते हुए पार्टी ने अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक अगले महीने गुवाहाटी में करने जा रही है यानी अगले साल असम में नए तरह के राजनीतिक समीकरण देखने को मिलें तो हैरत नहीं होनी चाहिए। इन राज्यों की जीत-हार का हिंदी हृदय प्रदेशों में भले ही ज्यादा असर न पड़े, लेकिन यह तय है कि अगर वामपंथी अपने गढ़ वाले दोनों राज्यों में सत्ता की दुनिया से दूर हुए तो उनका राजनीतिक दिमाग कांग्रेस को परेशान करने से नहीं चूकेगा। कांग्रेस विरोध की लहर पैदा करने में जितनी महारत वामपंथियों को हासिल है, उतना भाजपा का भी नहीं है। यह बात दीगर है कि सांप्रदायिकता के नाम पर वामपंथियों की भाजपा से राजनीतिक दूरी बनी रहेगी। लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह संसद और उसके बाहर वामपंथियों ने महंगाई और 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के मसले पर भाजपा के साथ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के खिलाफ मोर्चा खोला है, उससे उम्मीद बनती है कि दोनों एक बार फिर 1989 की तरह कांग्रेस के खिलाफ अभियान में शामिल न हो जाएं। 1989 में भाजपा और वामपंथियों को साथ लाने का मोहरा विश्वनाथ प्रताप सिंह बने थे, इस बार नीतीश कुमार और शरद यादव बन सकते हैं। राजनीति जितनी संभावनाओं का खेल है, आशंकाओं का मेल भी है। लिहाजा, आज जिन्हें लग रहा है कि अब लालू प्रसाद यादव खत्म हो गए और नीतीश कुमार के साथ वे कभी नहीं जा सकते, वही लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान भी वामपंथियों के साथ कांग्रेस विरोधी अभियान में शामिल हो सकते हैं। वामपंथी मुखौटे के साथ सांप्रदायिकता विरोधी छवि बनाए रखते हुए सत्ता विरोधी अभियान में शामिल होना उनकी राजनीतिक मजबूरी होगी। इसके आसार कांग्रेस के सवा सौ साल पूरे होने पर आई किताब के तथ्यों को लेकर आई प्रतिक्रियाओं में भी देखा जा सकता है। कांग्रेस एंड द मेकिंग ऑफ द इंडियन नेशन नामक किताब में पार्टी ने जयप्रकाश नारायण को अधिनायकवादी और लोकतंत्र विरोधी करार दिया है। जेपी को लेकर की गई ऐसी प्रतिक्रिया पर बिफरे लालू यादव और शरद यादव की भाषा एक जैसी रही। दोनों का कहना था कि कांग्रेस को अपने गुनाहों की कीमत चुकानी होगी। इस बयान को ही सूत्र वाक्य मानें तो एक हद तक 2011 के राजनीतिक परिदृश्य का खुलासा हो सकता है। अगर गैर कांग्रेसवाद के पुराने अलंबरदार एक बार फिर एक हो गए तो कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ जाएंगी, लेकिन सबसे बड़ा राजनीतिक संकट यह है कि इस पूरे अभियान में जिस पार्टी को अगुआई करनी चाहिए, उस भाजपा में आपसी समन्वय और एकता नजर नहीं आ रही। कांग्रेस की कमी यह है कि वह दूसरी लाइन के लिए भ्रष्ट और अक्षम लोगों पर ज्यादा भरोसा करती है। दोनों पार्टियों में यह संकट हर साल की तरह 2011 में ही नजर आएगा। यह सच है कि उत्तर प्रदेश में 2011 में चुनाव नहीं होने जा रहा है, लेकिन इसके ठीक अगले साल यानी 2012 की शुरुआत में ही उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव संभावित हैं। बहुजन समाज पार्टी में मायावती के लिए कोई चुनौती तो नहीं होगी, लेकिन उन्हें बाहरी चुनौतियां मिलती रहेंगी। पंचायत चुनावों में जिस तरह कुछ जिलों में बीएसपी विरोधी तमाम ताकतें साथ नजर आई हैं, उसे लिटमस टेस्ट माना जा सकता है। यानी मायावती को हराने के लिए बाकी दलों में अंदरखाने में एक हद तक एकता होने की संभावना नजर आ रही है। इसी तरह हरियाणा में कांग्रेस को फिलहाल कोई चुनौती नजर नहीं आ रही, लेकिन 2010 के आखिरी महीने में हरियाणा जनहित कांग्रेस नेता कुलदीप विश्नोई ने जिस तरह हुंकार भरी है, उससे उनकी राजनीतिक वकत बढ़ी है। इस पर भाजपा की निगाह है। हरियाणा जनहित कांग्रेस अपने विधायकों का भूपिंदर सिंह हुड्डा द्वारा ले उड़ना पचा नहीं पाई है। लिहाजा, आने वाले वक्त में भाजपा और हरियाणा जनहित कांग्रेस में नजदीकी बढ़ सकती है। पंजाब में बादल सरकार भी भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझ रही है। प्रकाश सिंह बादल को घर से लेकर अमरिंदर सिंह से चुनौती मिल रही है। जिनसे उन्हें पूरे साल जूझना पड़ेगा। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान अब तक उमा भारती को भाजपा से दूर रखने में कामयाब रहे हैं। केंद्र में सुषमा स्वराज उनकी सरपरस्त बनी हुई हैं, लेकिन एक बार उमा अगर पार्टी में शामिल हो गई तो सबसे ज्यादा चुनौती शिवराज की ही बढ़ेगी। यह ठीक है कि दक्षिण में कमल खिलाने वाले येदयुरप्पा अपनी गद्दी बचाने में कामयाब रहे, लेकिन उन पर आरोपों की फेहरिस्त अभी कम नहीं हुई है। उन्हें पूरे साल विपक्ष से कहीं ज्यादा अपनी ही पार्टी की चुनौतियों से जूझना पड़ेगा। आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की भूख हड़ताल भले ही कामयाब रही हो, लेकिन वहां कांग्रेस के लिए असल खतरा जगनमोहन रेड्डी ही होंगे। अभी उन्होंने अपनी अलग पार्टी तो नहीं बनाई है, लेकिन यह तय है कि यदि एक बार उन्होंने पार्टी बनाई तो उनकी तरफ कांग्रेसी विधायकों का जाना शुरू हो जाएगा और निश्चित तौर पर यह मुख्यमंत्री किरण रेड्डी की राजनीतिक सेहत के लिए अच्छा नहीं होगा। महाराष्ट्र की कांग्रेस-एनसीपी सरकार को जितना खतरा शिवसेना और भाजपा से नहीं है, उससे कहीं ज्यादा दोनों पार्टियों के आपसी अंतर्विरोधों से खतरा है। घोटाले दर घोटाले की खबरों से कांग्रेस पार्टी को दो-चार होना पड़ रहा है। इन घोटालों को उजागर करने में निश्चित तौर पर मीडिया की भूमिका है, लेकिन इन्हें हवा कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अंदर सत्ता संतुलन साध रहे लोग ही दे रहे हैं। चूंकि ऐसे लोगों के बीच आपसी राजनीतिक तालमेल बनता नहीं दिख रहा है, लिहाजा अगले साल तय है कि पृथ्वीराज चव्हाण की मुश्किलें बनी रहेंगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


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