ऐसा प्रतीत हो रहा है कि संप्रग सरकार को न्यायालय में लताड़ सुनने और सहने की आदत सी हो गई है। अन्यथा वह न्यायालय के आदेशों को न तो ठेंगे पर रखती और न ही बार-बार अदालत से इस तरह अपमानित होती। देखने में आ रहा है कि हर संवेदनशील मामले में संप्रग सरकार और उसके नियंत्रण में काम करने वाली संवैधानिक संस्थाओं को न्यायालय का कोपभाजन बनना पड़ रहा है। बावजूद इसके सरकार और संस्थाएं न्यायालय के साथ सकारात्मक रुख अपनाने को तैयार नहीं दिख रही हैं। पिछले काफी दिनों से देखा जा रहा है कि भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे सीवीसी की नियुक्ति के मामले में सरकार का रुख अडि़यल बना हुआ है। सीएजी के रिपोर्ट पर भी उसके मंत्रियों द्वारा लगातार सवाल दागे जा रहे हैं। मंत्रियों को न तो संसदीय विशेषाधिकारों के हनन का गम है और न ही सरकार को न्यायालय की अवज्ञा का। विदेशी बैंकों में भारतीयों द्वारा जमा काले धन की वापसी के मामले में भी सरकार का आचरण अव्यावहारिक और अतार्किक दिख रहा है। विदेशी बैंकों में जमा काले धन की संपूर्ण जानकारी देने में सरकार की आनाकानी और हिचकिचाहट से साफ जाहिर हो रहा है कि काले धन की वापसी को लेकर उसकी मंशा और नीयत कतई साफ नहीं है। विपक्षी दलों द्वारा एक अरसे से मांग की जा रही है कि विदेशों में जमा काले धन की वापसी के लिए सरकार ठोस पहल करे, लेकिन सरकार संख्या बल के जोर से विपक्षी मांग को लगातार अनसुना करती जा रही है। अब जब मामला अदालत की चौखट तक जा पहुंचा है और सरकार पर दबाव बढ़ने लगा है कि वह काले धन की वापसी की दिशा में सकारात्मक कदम उठाए तो ऐसे में सरकार की कोशिश अपने बचाव तक ही सीमित नजर आ रही है। पिछले दिनों विदेशी बैंकों में जमा काले धन के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जब सरकार से पूछा गया कि आखिर वह विदेशी बैंकों में भारतीय खातेदारों के नाम को क्यों नहीं उजागर करना चाहती है तो सरकार का जवाब हैरान कर देने वाला रहा। कोई ठोस उत्तर देने की बजाय वह ज्ञान बांटती नजर आई कि अगर नामों का खुलासा हुआ तो अंतरराष्ट्रीय संधि का उल्लंघन होगा और इससे भारत की छवि को भी धक्का पहुंचेगा। सरकार द्वारा न्यायालय में हलफनामा दाखिल करते हुए कहा गया कि जर्मनी के लिचटेंस्टीन बैंक में जिन 26 लोगों द्वारा पैसा जमा किया गया है उनसे जुड़ी जानकारी का उल्लेख करना उचित नहीं है। सरकार के इस कदम से न्यायालय का नाराज होना स्वाभाविक है। न्यायमूर्ति बी. सुदर्शन रेड्डी और न्यायमूर्ति एसएस निज्जर की पीठ ने देश के जाने-माने वकील रामजेठमलानी की काले धन से जुड़ी यााचिका पर सुनवाई करते हुए यहां तक कह डाला कि राष्ट्रीय संपत्ति को विदेशों में रखना देश को लूटने के समान है और यह शुद्ध रूप से राष्ट्रीय संपत्ति की चोरी है, लेकिन लग नहीं रहा है कि अदालत के इस कथन से सरकार की सेहत पर कुछ असर पड़ने वाला है। सरकार अपने कुतर्कों के दम पर न्यायालय और देश की जनता को पाठ पढ़ाने पर तुली है। सरकार द्वारा लगातार रट लगाया जा रहा है कि काला धन जमा करने वालों के नाम के खुलासे से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की साख कमजोर होगी और उसकी विश्वसनीयता को धक्का पहुंचेगा। क्या सरकार की यह दलील हास्यापद नहीं लगती है? अगर वाकई में सरकार को अपनी साख की चिंता होती तो वह भ्रष्टाचारियों के प्रति उदारता नहीं बरतती और न ही भ्रष्टाचारियों को बचाने के लिए मोर्चा बांधती। क्या यह विचित्र नहीं लगता है कि साख की बात करने वाली संप्रग सरकार न्यायालय में उन भ्रष्टाचारियों को बचाने का लगातार प्रयास कर रही है जिनके हाथ घोटाले में सने हैं। साख की बात करने वाली संप्रग सरकार से पूछा जाना चाहिए कि उच्चतम न्यायालय के फटकार के बाद भी पॉमोलिन तेल आयात घोटाले के आरोपी पीजे थॉमस सीवीसी जैसे महत्वपूर्ण पद पर अभी तक क्यों बैठे हैं? सरकार बार-बार न्यायालय में यह बताने की कोशिश क्यों कर रही है कि मौजूदा सीवीसी पीजे थॉमस सत्यनिष्ठ और ईमानदार हैं? क्या ऐसे अमर्यादित आचरण से सरकार की साख कमजोर नहीं होती है? देखा जाए तो संप्रग सरकार का भ्रष्टाचार से लड़ने का रवैया आंख में धूल झोंकने वाला है। भ्रष्टाचार पर शुतुरमुर्गी रवैया अपनाने का ही नतीजा है कि उसकी नाक के नीचे एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ रुपये का घोटाला हुआ और सरकार अपनी आंख पर पट्टी डाले रही। बेशर्मी की हद तो तब और बढ़ जाती है जब पूरी सरकार अपने वर्तमान दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल के इस कुतर्क पर सहमति देती नजर आती है कि सीएजी की रिपोर्ट सच्चाई से परे है और सरकार को स्पेक्ट्रम आवंटन में किसी प्रकार की राजस्व हानि नहीं हुई है। अब जब न्यायालय द्वारा कपिल सिब्बल को लताड़ लगाई गई है तो कांग्रेस पार्टी उनका निजी वक्तव्य बता अपना पल्ल झाड़ रही है। आखिर भ्रष्टाचार से लड़ने का यह कौन सा नायाब तरीका है? सरकार अगर सचमुच में भ्रष्टाचार पर संजीदगी दिखाती तो न्यायालय द्वारा आदर्श हाउसिंग और कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाले की जांच कर रही सीबीआइ को बार-बार हिदायत देने की नौबत ही नहीं आती। क्या यह अटपटा नहीं लगता है कि आरोपियों के खिलाफ एफआइआर दायर करने तक का आदेश न्यायालय को देना पड़ रहा है। इसका मतलब तो यही हुआ कि सरकार अपने उत्तरदायित्वों का भली प्रकार से निर्वहन नहीं कर रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकारों की कमजोर लड़ाई का ही नतीजा रहा है कि भ्रष्ट भारतीय राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों और उद्योगपतियों द्वारा देश को लूटा गया और लूटी गई काली संपत्ति को विदेशी बैंकों में जमा किया गया। सरकारें भ्रष्टाचाारियों के काले कारनामों पर मौन रही। आज की तारीख में तकरीबन 70 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की धनराशि केवल स्विस बैंक में ही जमा है, बाकी विदेशी बैंकों में कितना धन जमा होगा भगवान ही जानता है। अब जब काले धन को वापस लाने का माहौल बनने लगा है तो सरकार अंतरराष्ट्रीय संधि का हवाला दे रही है। संप्रग सरकार को अमेरिका से सबक लेना चाहिए कि आज से तीन साल पहले वह किस तरह अपने देश के भ्रष्ट लोगों द्वारा जमा किए गए 280 अरब डॉलर का हिसाब स्विस बैंक से लिया और बैंक पर जुर्माना अलग से लगाया। जिन भ्रष्ट अमेरिकी नागरिकों का हिसाब-किताब स्विस बैंक में पकड़ा गया उनसे भी टैक्स वसूल किया गया। क्या इससे अमेरिका की कोई अंतरराष्ट्रीय संधि प्रभावित हुई अथवा क्या काले धन की वापसी से अमेरिका की साख और विश्वसनीयता खतरे में पड़ी। आखिर भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय संधि की जुगाली क्यों कर रही है? अगर भ्रष्ट तरीके से जमा काले धन की वापसी हो जाती है तो न केवल देश के माथे पर लदा कर्ज उतर जाएगा, बल्कि देश की कई बुनियादी समस्याओं से भी निजात मिलेगी। देश की एक बड़ी आबादी जो भुखमरी की शिकार है उसको भरपेट भोजन मिलेगा। हजारों कल-कारखानें लगने से बेरोजगारी की समस्या हल होगी। आज की तारीख में भारत के आठ राज्य भयंकर गरीबी से जूझ रहे हैं। इनमें उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, राजस्थान और पश्चिम बंगाल प्रमुख हैं। देखा जाए तो इन आठों राज्यों की 41 करोड़ की आबादी 26 निर्धन अफ्रीकी देशों के बराबर है, लेकिन दुर्भाग्य है कि काले धन की वापसी में सरकार की नियत ही आड़े आ रही है। महंगाई और भ्रष्टाचार पर अपनी साख गंवा चुकी सरकार से पूछा जाना चाहिए कि देश के भ्रष्ट लोगों द्वारा विदेशों में जमा किया गया लूट का धन अपने देश में वापस लाना आखिर किस तरह देश की साख को धक्का पहंुचाने वाला है? कहीं ऐसा तो नहीं की इस महालूट के खेल में शामिल धंधेबाजों के नाम का खुलासा होने से सरकार की साख पर ही आंच आ जाएगी? आखिर सच को उजागर न होने देने के कुतर्क के पीछे सरकार की मंशा क्या हो सकती है? सरकार के मंत्रिमंडल में भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे लोगों का अभी भी ऊंचे पदों पर जमे रहना संदेह पैदा करता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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