Thursday, January 13, 2011

भ्रष्टाचार और भाजपा

गुवाहाटी में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के दौरान शीर्ष नेताओं के आक्रामक तेवर से साफ हो गया है कि वे भ्रष्टाचार के मसले पर संप्रग सरकार को बख्शने के मूड में बिल्कुल ही नहीं हैं। सम्मेलन में भाजपा नेताओं की जेपीसी गठन पर एकराय और बोफोर्स मसले पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की तेज की गई घेराबंदी के प्रयास से साफ जाहिर हो चला है कि भाजपा अपने सहयोगियों के दम पर पूरे देश में संप्रग सरकार के खिलाफ अब हल्ला बोलने का मन बना लिया है। अभी तक तो भाजपा भ्रष्टाचार के सवाल पर सिर्फ उन्हीं लोगों पर सवाल दाग रही थी, जो आरोपों के घेरे में पुख्ता तौर पर फंस चुके हैं, लेकिन अब भाजपा नेतृत्व ने सीधे-सीधे भ्रष्टाचार और बोफोर्स दलाली मामले में कांग्रेस हाईकमान को भी लपेटकर आरपार की लड़ाई का ताल ठोंक दिया है। भले ही असीमानंद के बहाने आरएसएस की सियासी घेराबंदी में जुटी कांग्रेस भाजपा को बैकफुट पर लाने की कोशिश कर रही हो, लेकिन भाजपा की सेहत पर इसका असर बिल्कुल ही नहीं दिख रहा है। राष्ट्रीय कार्यकारिणी के दौरान भाजपा का उत्साह चरम पर रहा। वह आरएसएस और हिंदुत्ववादी संगठनों की घेराबंदी के मसले पर बिल्कुल ही उत्तेजित नहीं हुई और न ही भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी तेज राजनीतिक धार पर उसका गलत असर पड़ने दिया। राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भाजपा ने असीमानंद के मुद्दे को तवज्जो न देकर साफ संकेत दे दिया है कि वह कांग्रेस की कुटिल चाल में फंसने के बजाए उन मसलों पर ही केंद्रित होगी, जो सीधे तौर पर आम आदमी को प्रभावित कर रहे हैं। यही कारण है कि अपने दो दिवसीय अधिवेशन में भाजपा पूरी तरह से महंगाई, भ्रष्टाचार और बोफोर्स पर ही केंद्रित दिखाई दी। दरअसल, भाजपा समझ गई है कि हिंदुत्ववादी संगठनों को आतंकवादी गतिविधियों में लपेटने की तर्कहीन कोशिश का बहुत अधिक असर देश के जनमानस पर पड़ने वाला नहीं है। देश का नागरिक हिंदू आतंकवाद सुन-सुनकर उकता चुका है। वह अच्छी तरह जानता है कि यह जुमला कांग्रेस पार्टी की सिर्फ सियासी फितरत मात्र है। पिछले दिनों देखा भी जा चुका है कि केंद्रीय गृहमंत्री द्वारा भगवा आतंकवाद का मसला काफी जोर-शोर से उठाए जाने के बावजूद बिहार विधानसभा चुनाव में उसका तनिक भी असर नहीं पड़ा। यही कारण है कि भाजपा अब सफाई देने के बजाए भ्रष्टाचार पर आक्रामक रुख अपनाती जा रही है। वह देश को बस यही बताने की कोशिश कर रही है कि कांग्रेसनीत संप्रग सरकार किस तरह एक साजिश के तहत हिंदुवादी संगठनों को बदनाम करने के बहाने भ्रष्टाचार के मुद्दे से देश का ध्यान बंटाना चाहती है। भाजपा को इसमें कामयाबी भी मिल रही है। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह भाजपा की इस अवधारणा की पुष्टि भी करते नजर आ रहे हैं। वह प्रत्येक दिन हिंदुवादी संगठनों के खिलाफ एक नए शिगूफे के साथ प्रस्तुत हो रहे हैं। मजे वाली बात तो यह है कि जब उनका दांव उल्टा पड़ता दिखता है तो कांग्रेस पार्टी उनके बयान से पल्ला झाड़ लेती है और दिग्विजय सिंह की स्थिति हास्यापद हो जाती है। ऐसे में आम जनमानस को समझने के लिए अपने दिमाग पर बहुत जोर लगाने की जरूरत नहीं रह जाती है कि आखिर दिग्विजय सिंह के बहाने कांग्रेस की इस घिनौने खेल के पीछे की असली मंशा क्या है। शह और मात के इस सियासी खेल में कांग्रेस पूरी तरह से टूटती नजर आ रही है और इसका सीधा फायदा मुख्य विपक्षी दल होने के नाते भाजपा को मिल रहा है। भाजपा लगातार महंगाई, भ्रष्टाचार, बोफोर्स दलाली और विदेशों में जमा धन की वापसी को लेकर संप्रग सरकार की फजीहत कर रही है और संप्रग सरकार तर्कपूर्ण जवाब देने के बजाए अपने बचाव में झुंझलाहट मिटाते हुए कभी भगवा आतंकवाद का जुमला उछाल रही है तो कभी महंगाई पर गैर जिम्मेदाराना तर्क गढ़कर देश को गुमराह कर रही है। देखा जाए तो भाजपा के सवालों पर संप्रग सरकार का अनुत्तरित होना भाजपा की एक बड़ी जीत है। अभी तक जो तर्क दिया जा रहा था कि संप्रग सरकार के समक्ष विपक्ष कमजोर और दिशाहीन है, अब गलत साबित होने लगा है। भले ही विपक्ष के नाम पर सपा, रालोद, राजद और अन्य छोटे दलों की भूमिका अस्पष्ट, संदेहपरक और विपक्षी एकता के लिए दुश्वारियां पैदा करने वाली हो, लेकिन भाजपा की सशक्त और जिम्मेदाराना भूमिका को अब नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। वह न केवल संसद में, बल्कि अब सड़क पर भी अपनी धार दिखाने के मूड में जुट गई लगती है। लालकृष्ण आडवाणी ने ऐलान कर दिया है कि वह भ्रष्टाचार के मसले को गांव-गिरांव से लेकर गली-कूंचे तक ले जाएंगे। निश्चित तौर पर भाजपा को इसमें कामयाबी मिलेगी, क्योंकि विपक्ष के नाम पर सिर्फ उसी की भूमिका सारगर्भित दिख रही है। गौरतलब यह है कि जहां संप्रग सरकार अपने सहयोगियों के बीच अविश्वसनीय होती जा रही है, वहीं भाजपा ने अपने संगठित सहयोगियों के सहारे धीरे ही सही दिल्ली पर चढ़ाई करनी शुरू कर दी है। भाजपा के दिल्ली अभियान में उसके नेतृत्व और साझेदारी वाली राज्य सरकारों का उम्दा प्रदर्शन कारगर भूमिका निभा सकता है। भाजपा शासित राज्यों के आर्थिक विकास की तारीफ तो अब विदेशी निवेशकों द्वारा भी किया जाने लगा है। अभी पिछले ही दिनों अमेरिका-भारत बिजनेस काउंसिल के अध्यक्ष रोन समर्स द्वारा कहा गया कि भारत के गुजरात और कर्नाटक राज्य सक्षम और पारदर्शी सरकार तथा प्रगतिशील नेतृत्व के ऐसे आदर्श मॉडल हैं, जो आने वाले दिनों में निवेशकों को भरपूर आकर्षित कर सकते हैं। गुजरात न केवल उद्योग और कल-कारखानों के बूते आर्थिक ऊंचाइयों को नाप रहा है, बल्कि कृषि विकास दर भी इस राज्य में सर्वाधिक है। नरेंद्र मोदी के कुशल नेतृत्व का ही नतीजा है कि आज गुजराज देश के अन्य राज्यों के लिए नजीर बनता जा रहा है। इसमें तनिक भी शक नहीं कि नरेंद्र मोदी की विश्वसनीयता देश में बढ़ी है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेष जांच दल द्वारा गोधरा मामले में नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दिए जाने के बाद भाजपा का उत्साहित होना स्वाभाविक है। छत्तीसगढ़ में रमन सिंह की सरकार भी जनआकांक्षाओं की कसौटी पर खरी उतरती दिख रही है। नक्सलियों के आतंक के बावजूद वह जनहित के मोर्चे पर डटी नजर आ रही है। यही वजह है कि छत्तीसगढ़ विकास के मामले में बेहतरीन राज्यों की श्रेणी में शुमार होता जा रहा है। अगर 2009-10 के आंकड़ों पर नजर टिकाई जाए तो इस राज्य की विकास दर 11.49 था। जो बताने के लिए काफी है कि सरकार कितनी ईमानदारी और पारदर्शिता से कार्य कर रही है। कृषि क्षेत्र के प्रति राज्य सरकार के सकारात्मक दृष्टिकोण का ही नतीजा है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की जनता हथियारों से तौबा कर अब कृषि कार्य करने को तरजीह देने लगी है। बस्तर जिला को उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। भाजपा और जेडीयू की संयुक्त नीतीश सरकार का चमत्कारी प्रदर्शन भी किसी से छिपा नहीं है। सुशासन, सुरक्षा और उच्च आर्थिक विकास दर का ही नतीजा रहा कि नीतीश सरकार दोबारा सत्ता में वापस लौट सकी। भाजपा के लिए नीतीश कुमार आम चुनाव में तुरुप का पत्ता साबित हो सकते हैं। राजग में नीतीश का चेहरा अन्य छोटे राजनीतिक दलों को भी अपनी ओर आकर्षित कर सकता है। उत्तराखंड की निशंक सरकार भी सीमित संसाधनों के बावजूद अच्छा कार्य कर रही है। झारखंड में अर्जुन मुंडा की सरकार भी बेहतर कार्य करने के लिए हौसला दिखा रही है। ऐसे में देखा जाए तो भाजपा और उसके सहयोगी दलों द्वारा शासित राज्य बेहतर प्रशासन देने की कवायद में जुटे हैं, जबकि संप्रग शासित राज्य तमाम विडंबनाओं से जूझ रहे हैं। इन परिस्थितियों में भाजपा अगर संप्रग की राजनीतिक रीढ़ को तोड़ने में कामयाब हो जाती है तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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