Sunday, January 23, 2011

राजनीति के भंवर में खाद्य सुरक्षा का अधिकार


जून 2004 में सोनिया गांधी की अध्यक्षता में जब राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने किया, तभी इसका विरोध शुरू हो गया था। खासकर विपक्षी दलों का आरोप था कि सोनिया की अध्यक्षता के चलते यह परिषद सुपर कैबिनेट की तरह व्यवहार करेगी। हाल के दिनों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सलाहकारों ने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद यानी एनएसी के सुझावों को जिस तरह खारिज किया, उससे विपक्षी दलों के आरोप गलत साबित होते नजर आ रहे हैं। मनरेगा के तहत मजदूरी की दरें सरकारों द्वारा तय मजदूरी की न्यूनतम दरों जितना करने का राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने सलाह दी, उसे प्रधानमंत्री कार्यालय ने नामंजूर कर दिया। यह बात और है कि मनरेगा की मजदूरी दरों को उपभोक्ता सूचकांक से जोड़ते हुए इंकार के दो दिन बाद ही एक हद तक मान लिया गया। ताजा मसला खाद्य सुरक्षा विधेयक का है। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने काफी विचार-विमर्श के बाद इसे प्रधानमंत्री कार्यालय को सौंपा, लेकिन प्रधानमंत्री की ओर से गठित रंगराजन समिति ने इसे अव्यवहारिक बताते हुए खारिज कर दिया। ऐसे में सवाल यह उठ रहा है कि क्या सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली परिषद की सलाह को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा या फिर मनरेगा की तरह देर-सबेर मंजूरी मिल जाएगी। प्रधानमंत्री कार्यालय और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के बीच खींचतान फिलहाल मीडिया की सुर्खियों में है। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने कुछ साल पहले देश के नागरिकों को भोजन का अधिकार देने का फैसला किया था। इसके अगले दौर में देश की चौथाई आबादी को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए शामिल करने की बात कही गई थी। इसे भी अव्यावहारिक मानते हुए पहले खारिज किया गया और फिर प्रस्ताव करके नए कानून की सिफारिश की गई। जिस पर भी अभी विचार-विमर्श जारी है। इसके तहत परिषद ने 46 प्रतिशत ग्रामीण और 28 प्रतिशत शहरी आबादी को 7 किलो प्रति व्यक्ति की दर से हर महीने अनाज देने की सिफारिश की है। इसके अलावा देश की करीब 75 फीसदी आबादी को दो किलो अनाज प्रति व्यक्ति की दर से हर महीने देने की बात की गई है। प्रधानमंत्री की समिति ने 46 फीसदी ग्रामीण और 28 फीसदी शहरी आबादी को 7 किलो प्रति व्यक्ति हर महीने अनाज देने की बात तो स्वीकार कर ली है, लेकिन बाकी लोगों को सरकारी आदेश के जरिये अनाज देने की बात कही जा रही है। यह अनाज उपलब्धता के आधार पर तय होगा। विवाद केवल इस पर नहीं है कि कितना अनाज दिया जाए, बल्कि विवाद इस बात पर भी है कि अगर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की योजना को ज्यों का त्यों लागू कर दिया जाएगा तो सरकारी खजाने पर कितना बोझ पड़ेगा। सलाहकार समिति के मुताबिक इस योजना पर 80 हजार करोड़ रुपये सालाना का खर्च बैठेगा, जबकि रंगराजन समिति का अनुमान है कि इस पर 92 हजार करोड़ रुपये खर्च होंगे। सबसे बड़ी बात यह है कि भूख खत्म करने की इस महत्वाकांक्षी योजना को लागू करने के लिए प्रधानमंत्री की समिति ने सिर्फ 69 हजार करोड़ रुपये ही सालाना खर्च करने की सिफारिश की है। राष्ट्रीय सलाहकार समिति के मुताबिक यदि विधेयक पारित होता है तो देश को सालाना 540 लाख टन अनाज की जरूरत होगी, जबकि रंगराजन समिति के मुताबिक 690 लाख टन सालाना अनाज की जरूरत होगी। रंगराजन समिति का यह आकलन 2013-14 में अनाज उत्पादन के अनुमान की परिधि में ही है। समिति का अनुमान है कि 2013-14 में 570 लाख टन अनाज का उत्पादन हो सकता है। समिति का तर्क है कि अगर उसके मुताबिक योजना लागू हुई तो योजना के तहत आने वाले लोगों को भोजन तो मिलेगा ही, पांच लाख टन का बफर स्टॉक भी बनाए रखा जा सकेगा। प्रधानमंत्री कार्यालय और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के बीच टकराव के इन बिंदुओं पर विचार से ज्यादा महत्वपूर्ण भारतीय स्थिति को जानना भी है। देश में अनाज की जरूरत को जिस तरह दोनों समितियों ने आंका है पहले तो वही गलत है, क्योंकि विकासशील देशों की तुलना में भारत में प्रति व्यक्ति अनाज की खपत और उपलब्धता घटी है। विकासशील देशों में जहां यह आंकड़ा 182.1 किलोग्राम सालाना है, वहीं अपने यहां यह आंकड़ा महज 174.2 किलोग्राम है। 2008 की आर्थिक मंदी और विश्वव्यापी महंगाई के लिए तब अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने भारतीयों द्वारा ज्यादा भोजन खाने को जिम्मेदार बताया था। हालांकि हकीकत तो यह है कि अमेरिका, ब्रिटेन, नार्वे, जर्मनी जैसे विकसित देशों में प्रति व्यक्ति अनाज की सालाना खपत 44 फीसदी कम है। इसी तरह झारखंड या दूसरे अति पिछड़े इलाकों से भुखमरी की आने वाली खबरों को हालांकि अधिकारी भुखमरी मानने से इंकार करते रहे हैं, लेकिन हकीकत यह है कि भारत में अनाज की न सिर्फ उपलब्धता, बल्कि खपत भी घटी है। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का सुझाव इस स्थिति में बदलाव ला सकता है। एक अर्थशास्त्री आमतौर पर आर्थिक नजरिए से ही आंकड़ों का विश्लेषण औरआकलन करते हैं और वह मानवीय पक्ष को कम महत्व देते हैं। यही बात रंगराजन समिति के आकलन पर भी लागू होती है। वैसे खामियां तो राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के आकलन में भी है। अगर उसे भी ज्यों का त्यों मान लिया जाए तो ग्रामीण आबादी का 50 प्रतिशत और शहरी का 70 प्रतिशत हिस्सा उसमें नहीं शामिल हो पाएगा। सलाहकार परिषद ने 46 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों को पूर्वाधिकार सूची में रखा है। यह आंकड़ा तेंदुलकर कमेटी के आकलन से थोड़ा ही ज्यादा है। प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार रहे सुरेश तेंदुलकर की समिति ने 41.8 फीसदी आबादी को गरीबी रेखा के नीचे बताया था। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने इसी तरह 28 फीसदी शहरी आबादी को इस श्रेणी में रखा है। यह तेंदुलकर समिति के 27.8 प्रतिशत से कुछ ही ज्यादा है। ज्यां द्रेज की मेहनत के बाद राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने इस अहम विधेयक की सिफारिश की है। उन्हें इस बात पर एतराज है कि प्रधानमंत्री की समिति ने उनके सुझाव को खारिज करते वक्त पिछले तीन साल के औसत अनाज उत्पादन को ही आकलन का आधार बनाया। पिछले तीन साल में औसत 550 लाख टन अनाज का उत्पादन हुआ है, लेकिन ज्यां द्रेज को लगता है कि इसमें सालाना 5 फीसदी की बढ़ोतरी संभव है। जिस तरह देश की उपजाऊ जमीन पर कारपोरेट घरानों का कब्जा बढ़ रहा है उससे उपजाऊ भूमि की कमी हो रही है, जिस पर शरद यादव को छोड़कर बाकी राजनेता सवाल नहीं उठा रहे। कई बार गरीबी रेखा के नीचे आने वाले वास्तविक हकदार भी वंचित रह जाते हैं, क्योंकि गरीबी रेखा के नीचे खुद को मनवाने के लिए इनके पास जरूरी कागजात नहीं होते। उसकी सूखी चमड़ी और काया भी इस गवाही में कमजोर साबित होती है। फिर समाज में जिस तरह नैनो परिवारों का चलन बढ़ रहा है और समाज में उपभोक्तावाद बढ़ रहा है, उससे वृद्ध और कमजोर लोगों की हिफाजत करने व उनका भरण-पोषण करने की जिम्मेदारी से परिवार के लोग भी मुंह मोड़ रहे हैं। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के प्रस्तावित विधेयक में इन तथ्यों का भी ध्यान रखा गया है, लेकिन दुख की बात यह है कि प्रधानमंत्री की समिति ने इन तथ्यों पर ध्यान देना जरूरी नहीं समझा। पिछली यूपीए सरकार में नरेगा को लागू करने के लिए वामपंथियों का दबाव कारगर रहा था, लिहाजा मंदी का भारत में उतना असर नहीं हुआ जैसा कि पश्चिमी देशों में देखा गया। मौजूदा यूपीए सरकार में वामपंथियों की दखल नहीं है, जिस कारण राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। यह मानने का कोई कारण नहीं कि सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली सलाहकार परिषद कमजोर पड़ रही है, लेकिन इसके प्रस्तावों को ठुकराने से यह सवाल उठना लाजिमी है कि मानवता और नागरिकों के हितों को तरजीह देने वाली योजनाएं भी राजनीति और अर्थवाद की भेंट चढ़ रही हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


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