समय अविभाज्य सत्ता है। यह अच्छा या बुरा नहीं होता, लेकिन वर्ष 2010 पर बड़े अभियोग हैं कि यह घोटालों और घोटालेबाजों का वर्ष रहा। पहले आइपीएल में ललित मोदी और शशि थरूर की विदाई हुई, हंगामा हुआ। शोर थमा कि जनता की गाढ़ी कमाई का राजकोषीय कामनवेल्थ भ्रष्टाचार में लुट गया। भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम हो गया। आदर्श घोटाले ने अनेक वर्गों को समेट लिया। फिर टू जी स्पेक्ट्रम की सर्चलाइट प्रधानमंत्री कार्यालय तक जा पहुंची। विद्वान प्रधानमंत्री भी जिम्मेदारी से कतराते रहे। समूचा राजनीतिक तंत्र भ्रष्टाचार के आरोपों में आया। राष्ट्रजीवन के लिए एक वर्ष का समय बहुत मूल्यवान नहीं होता, लेकिन सत्ता का एक वर्ष संपूर्ण कार्यकाल का पांचवां हिस्सा होता है। राजनीति वैसे भी अल्पकालिक खेल होती है। राजनीतिक तंत्र बीते एक साल के भीतर ही पतन की ढेर सारी सीढि़यां नीचे उतर गया। नीरा राडिया और वरिष्ठ राजनेताओं व उद्योगपतियों के बीच हुई बातचीत के खुलासों ने देश की छवि को बट्टा लगाया। मंत्रियों की नियुक्ति में भी उद्योग जगत के प्रभाव का पता पहली दफा लगा। एक वरिष्ठ औद्योगिक समूह ने सुप्रीम कोर्ट में निजता के अधिकार के उल्लंघन का दावा ठोंका। उद्योग जगत की नाराजगी से सहमे प्रधानमंत्री को सफाई देनी पड़ी कि राष्ट्रीय आवश्यकता के अनुरूप ही फोन टेप हुए। वर्ष 2010 सत्ता के गैर जिम्मेदार चरित्र का आईना है। नक्सली पूरे वर्ष सुरक्षाबलों और निर्दोषों का वध करते रहे। केंद्र कोई ठोस कार्ययोजना नहीं बना पाया। कांग्रेस के एक राष्ट्रीय महामंत्री ही गृहमंत्री की कार्ययोजना के विरोधी रहे। पुणे की जर्मन बेकरी व वाराणसी के बम विस्फोटों ने पूरे देश को दहलाया। नक्सली हिंसा और आतंकवाद की हरेक घटना पर केंद्र ने राज्यों को दोषी ठहराया। राज्यों ने केंद्र पर दोष मढ़ा। झारखंड की राजनीति ने सामान्य नैतिक नियम तोड़े, तेलगांना विवाद पूरे साल गरम रहा। गुर्जर आरक्षण आंदोलन ने फिर से हमलावर रुख अपनाया। औद्योगिक घरानों को कृषि योग्य जमीन देने की यूपी सरकार की कार्रवाई से किसान आगरा-मथुरा में आंदोलन भड़का, किसानों पर गोली भी चली। राज्य में 300 से ज्यादा ब्लाक प्रमुख सीटों पर सत्तादल ने बाहुबल-पुलिसबल के इस्तेमाल से चुनावी नामांकन रोका। यूपी सरकार ने भी केंद्र की ही तरह भ्रष्टाचार को संस्थागत बनाया। बेशक 2010 ने विपक्ष को ढेर सारे मुद्दे दिए, भ्रष्टाचार, कुशासन, गरीबी, भुखमरी, महंगाई, किसान हताशा, कश्मीर और राष्ट्रीय एकता जैसे मुद्दों पर विपक्ष व्यापक जनसंघर्ष कर सकता था, लेकिन विपक्ष ने इक्का-दुक्का आंदोलन छोड़ निपट संसदीय मार्ग ही अपनाया। संसद में गतिरोध रहा, सरकार जवाबदेही से बची। कांग्रेस के लिए यह वर्ष बहुत बुरा रहा। घोटालों ने इसे किसी लायक नहीं छोड़ा। भोपाल गैस कांड फिर से उछला, मुख्य अभियुक्त को सरकारी सुरक्षा में भगाने की पोल खुली। शत्रु संपत्ति कानून को लेकर कांग्रेस का सांप्रदायिक चेहरा बेनकाब हुआ। विकिलीक्स खुलासे में भी अमेरिकी विदेश मंत्री द्वारा कांग्रेस पर सांप्रदायिक राजनीति का आरोप लगा। कांग्रेस को बधाई कि वह 125 बरस की हो गई। कांग्रेस महाधिवेशन ने विश्वव्यापी पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद, जानलेवा महंगाई और एक-तिहाई भारत में छाई नक्सली हिंसा पर कोई संकल्प नहीं लिया। गृहमंत्री ने भारतीय संस्कृति के प्रतीक भगवा को आतंकवाद से जोड़ा। एक महासचिव ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लश्करे-तैयबा जैसा बताया, दूसरे ने हिंदू संगठनों को आतंकवादी बताया। देश कांग्रेस से नाराज हुआ। देश आंकड़ों से नहीं चलता। महंगाई आसमान पर पहुंची, केंद्र ने आंकड़े दिए कि घट रही है। प्याज से आंख में आंसू हैं, सरकार मस्त है। हजारों किसानों ने आत्महत्या की, केंद्र विकास दर में उछाल बताता है। पीने को पानी नहीं, गरीब को दवा नहीं, शिक्षा और रोटी नहीं, लेकिन सरकारी आंकड़ों में अर्थव्यवस्था में उछाल है। आवश्यक वस्तु वितरण की प्रणाली इस वर्ष और भी चौपट हो गई, मनरेगा का भ्रष्टाचार सिर पर चढ़ गया। भुखमरी से आजिज सुप्रीम कोर्ट ने गोदामों में सड़ रहे गेहूं को गरीबों में बांटने का निर्देश दिया, लेकिन सरकार नहीं चेती। प्रदूषण, पर्यावरण, नदी जल संरक्षण और भ्रष्टाचार से जुड़े मसलों सहित अनेक मुद्दों पर न्यायपालिका ने भरोसा जगाया, लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट में कुछ सड़ रहा है की टिप्पणी और कतिपय न्यायमूर्तियों पर लगे आरोपों ने निराश किया। श्रीराम जन्मभूमि फैसले का स्वागत सारे देश ने किया। इसी बरस राष्ट्रजीवन में बहुत कुछ शुभ भी घटित हुआ है। बिहार चुनाव ने जागृत जनशक्ति का परिचय दिया है। राष्ट्रवाद बढ़ा है। भारत के प्रति विश्व का आकर्षण भी बढ़ा है। इसी बरस कई राष्ट्रों के राजप्रमुख भारत आए। 2011 से नवसृजन की उम्मीदें हैं। गत को विदाई, आगत का स्वागत। (लेखक उप्र विधान परिषद के सदस्य हैं)
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