पिछले कई सालों से आंध्र प्रदेश से तेलंगाना क्षेत्र को अलग करते हुए तेलंगाना राज्य की मांग उठती रही है। वर्तमान में तेलंगाना राष्ट्र समिति और उसके नेता के. चंद्रशेखर राव के नेतृत्व में पृथक तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर संघर्ष तो चल ही रहा है, आंध्र प्रदेश में राजनीतिक दलों में भी इस बात के लिए मांग उठ रही है। तेलगू देशम पार्टी और कांग्रेस के तेलंगाना क्षेत्र के नेता भी इस मांग को उठा रहे हैं। इस मांग की तीव्रता को देखते हुए केंद्र सरकार ने सिद्धांत रूप से इस मांग को स्वीकार भी कर लिया था, लेकिन तेलंगाना पृथक राज्य के विरोधियों के दबाव में अपने निर्णय को बदल दिया और इस विषय पर एक राय बनाने की जरूरत पर बल दिया। इस बीच इस पूरे मामले का अध्ययन करने हेतु न्यायमूर्ति श्रीकृष्णा कमेटी का गठन भी कर दिया गया। देश में आजादी के बाद पृथक राज्यों का गठन होता ही रहा है। तेलंगाना राज्य की मांग 1956 के राज्य पुनर्गठन अधिनियम के समय से ही चल रही है। वर्ष 1948 से पूर्व तेलंगाना हैदराबाद के निजाम के राज्य का एक प्रमुख हिस्सा होता था। 1948 के विलय के बाद यह हैदराबाद राज्य बना और बाद में यह आंध्र प्रदेश का एक हिस्सा बन गया। तेलंगाना पृथक राज्य के समर्थकों की मांग है कि 1956 के पूर्व स्थिति को बहाल करते हुए आंध्र प्रदेश से अलग कर दिया जाए। तेलंगाना राज्य की मांग के संदर्भ में हमें विचार करना होगा कि तेलंगाना पृथक राज्य के गठन के बाद तेलंगाना क्षेत्र और शेष आंध्र प्रदेश के लोगों और देश को क्या लाभ-हानि हो सकती है। इस विषय में विचार करते हुए हमें यह समझना होगा कि पूर्व में बने पृथक राज्यों का इस संदर्भ में क्या अनुभव रहा है। हम जानते हैं कि पूर्व में पंजाब को तीन हिस्सों में बांटा गया। हालाकि पंजाब अन्य प्रांतों की तुलना में देश का एक विकसित राज्य रहा है, लेकिन पंजाब के बंटवारे के बाद तीनों प्रांतों में अभूतपूर्व विकास देखने को मिलता है। वर्ष 2009-10 तक आते-आते हरियाणा की प्रति व्यक्ति आय पंजाब से लगभग 30 प्रतिशत ज्यादा हो चुकी थी। यदि हम हिमाचल का अनुभव देखते हैं तो पाते हैं कि हिमाचल प्रदेश में आज लगभग शत-प्रतिषत साक्षरता है। यदि वर्तमान का परिदृश्य देखें तो पता चलता है कि नव गठित राज्य जैसे छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और झारखंड आदि ने अपने पुनर्गठन के बाद तेजी से विकास किया है। ये सभी प्रांत पहले से ही पिछड़े प्रांतों में से उनके अधिक पिछड़े इलाकों को अलग करके बनाए गए थे, लेकिन फिर भी उन्होंने विकास के नए कीर्तिमान स्थापित किए। उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ के पृथक राज्य गठन से पूर्व 1993-94 से 1999-2000 के बीच उस क्षेत्र की प्रति व्यक्ति आय बढ़ने की वार्षिक दर 1 प्रतिशत से भी कम थी। गठन के बाद वर्ष 1999-2000 से 2009-10 के बीच उसकी विकास दर 6.23 प्रतिशत तक पहुंच गई, जबकि शेष मध्य प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय की विकास दर 1 प्रतिशत से कम ही रह गई। लगभग यही स्थिति उत्तराखंड में देखने को मिलती है। लेकिन झारखंड की स्थिति थोड़ी अलग है, जहां गठन के बाद की विकास दर बढ़ी तो जरूर, लेकिन अन्य नए राज्यों से यह काफी कम रिकॉर्ड की गई। जबकि शेष बचे बिहार में नीतीश कुमार की सरकार के गठन के बाद प्रति व्यक्ति आय बढ़ने की दर में तेजी आई, जबकि उतनी तेजी झारखंड में महसूस नहीं की गई। यानी इतिहास में छोटे राज्यों के गठन के अनुभव विकास की दृष्टि से सुखद रहे हैं। वहां के नागरिकों का जीवन स्तर मानव विकास के मापदंडों के आधार पर बेहतर हुआ है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि जब भी नया राज्य गठित होता है तो नई सरकारों की स्पंदनशील सोच उस राज्य के विकास की वाहक बनती है। तेलंगाना क्षेत्र के लोगों का मानना है कि आंध्र प्रदेश की सरकारों में उनका उचित प्रतिनिधित्व न होने के कारण वहां का विकास अवरुद्ध हुआ है। तेलंगाना क्षेत्र में फैले बुनकरों की हालत बहुत खराब है। आए दिन बुनकरों की आत्महत्याएं अखबारों की सुर्खियां बनती रही हैं। महज संयोग ही नहीं है कि आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री कभी तेलंगाना क्षेत्र से नहीं बने। इसलिए स्वाभाविक रूप से तेलंगाना पर सरकारों का अपेक्षित ध्यान नहीं जाता। तेलंगाना का विकास इसलिए भी जरूरी है कि देश में केवल कुछ क्षेत्रों का विकास करके आम जन की स्थिति नहीं सुधारी जा सकती। ऐसे में पूर्व के अनुभवों से सीख लेते हुए तेलंगाना राज्य का गठन हो जाना चाहिए। देश के विकास और क्षेत्रगत असमानताओं में कमी के लिए यह निहायत जरूरी कदम होगा।
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