Sunday, January 23, 2011

टकराव की राजनीति


लेखक कांग्रेस और भाजपा के आमने-सामने आने से राजनीतिक माहौल और तनावपूर्ण होता देख रहे हैं...


पिछले लगभग दो-तीन माह से भाजपा और कांग्रेस जिस तरह एक-दूसरे से टकरा रही हैं उससे आने वाले दिनों में भी देश का राजनीतिक माहौल तनावपूर्ण होता दिख रहा है। इन दोनों राष्ट्रीय दलों का टकराव संसद के पिछले सत्र में तब शुरू हुआ जब प्रमुख विपक्षी दल होने के नाते भाजपा ने 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति के गठन की मांग की और जिसे सरकार लगातार ठुकराती रही। इस तनातनी के कारण संसद का शीतकालीन सत्र एक दिन भी नहीं चल पाया। इसे जहां भाजपा ने अपनी जीत की तरह लिया वहीं संप्रग और केंद्र सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस ने खुद को असहज महसूस किया। वैसे तो शीतकालीन सत्र के पहले भी महंगाई पैर पसार रही थी और विपक्षी दल उसे मुद्दा बनाए हुए थे, लेकिन प्याज और अन्य सब्जियों के दाम जिस तरह आसमान छूने लगे उससे भाजपा को सरकार के विरुद्ध तीखी टिप्पणियां करने तथा उसे और असहज करने का अवसर मिला। शायद इसी का नतीजा था कि केंद्र सरकार मंत्रिमंडल में फेरबदल करने के लिए विवश हुई। चूंकि इस फेरबदल से पहले यह साफ दिख रहा था कि सरकार को महंगाई से कराहती जनता को राहत देने के कोई उपाय नहीं सूझ रहे इसलिए प्रधानमंत्री के पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं था कि वह उन मंत्रियों के मंत्रालय बदलें जो किसी न किसी स्तर पर महंगाई के लिए उत्तरदायी थे। उन्होंने शरद पवार से खाद्य आपूर्ति मंत्रालय ले लिया और मुरली देवड़ा से पेट्रोलियम। बावजूद इसके ऐसे आसार नहीं कि सरकार आलोचना का शिकार होने से बच पाएगी। जब विपक्ष भ्रष्टाचार के बड़े मामले यानी 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच जेपीसी से कराने के लिए सरकार पर यह दबाव बना रहा है तब मानव संसाधन विकास के साथ दूरसंचार मंत्रालय भी देख रहे कपिल सिब्बल ने नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रपट पर ही सवालिया निशान खड़ा कर दिया। इससे बात बनी नहीं, क्योंकि उच्चतम न्यायालय के कारण न केवल उन्हें मुंह की खानी पड़ी, बल्कि सरकार की भी किरकिरी हुई। उच्चतम न्यायालय ने जिस तरह सीबीआइ को यह निर्देश दिया कि वह कपिल सिब्बल की टिप्पणी को नजरअंदाज कर अपनी जांच जारी रखे उससे विपक्ष को सरकार पर और हमलावर होने का अवसर मिलेगा। विपक्ष ने यह एलान भी किया हुआ है कि यदि स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए जेपीसी गठित नहीं हुई तो वह बजट सत्र भी नहीं चलने देगा। स्पष्ट है कि कांग्रेस और केंद्र सरकार के लिए स्थितियां और विकट होने जा रही हैं। यदि कांग्रेस के रणनीतिकारों ने केंद्र सरकार को असहज होने से बचाने के लिए ही सीएजी की रिपोर्ट पर सवालिया निशान लगाने की रणनीति अपनाई थी तो वह नाकाम रही। ऐसा लगता है कि बढ़ते दबाव को भाजपा की तरफ ढकेलने के लिए मालेगांव विस्फोट मामले में गिरफ्तार हिंदू अतिवादी स्वामी असीमानंद के कथित कबूलनामे को मीडिया के एक हिस्से में सार्वजनिक किया गया। इस कबूलनामे के जरिये कांग्रेसी नेताओं ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जिस तरह कठघरे में खड़ा किया उससे भाजपा तिलमिलाई हुई है। यह भी लगता है कि भाजपा को और अधिक चोट पहुंचाने की रणनीति के तहत ही कर्नाटक के राज्यपाल हंसराज भारद्वाज ने अपने सगे-संबंधियों को अनुचित लाभ पहुंचाने के आरोपों से घिरे मुख्यमंत्री येद्दयुरप्पा के खिलाफ मुकदमा चलाने के आदेश दिए। यह सर्वविदित है कि भारद्वाज कांग्रेस के नजदीकी हैं। यह भी ध्यान रहे कि भ्रष्टाचार को लेकर भाजपा ने जब-जब कांग्रेस को कठघरे में खड़ा किया, कांग्रेस ने तब-तब भाजपा को येद्दयुरप्पा के भ्रष्टाचार की याद दिलाई। पिछले दिनों जब एक अभूतपूर्व घटनाक्रम के तहत आयकर न्यायाधिकरण ने यह आदेश दिया कि बोफोर्स तोप सौदे में विन चड्ढा के साथ ओट्टावियो क्वात्रोची ने भी दलाली खाई थी तो इससे गांधी परिवार और कांग्रेस की किरकिरी हुई। वैसे तो भारद्वाज द्वारा येद्दयुरप्पा पर मुकदमा चलाने के आदेश देने और 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले तथा बोफोर्स मामले में कहीं कोई संबंध नहीं दिखता, लेकिन भाजपा मान रही है कि चूंकि इन दोनों मामलों के कारण केंद्र सरकार की किरकिरी हो रही थी इसलिए उसकी ओर से भारद्वाज के जरिये बदले की कार्रवाई की गई। कांग्रेस चाहे जो सफाई दे, भारद्वाज का निर्णय जल्दबाजी और बदले की भावना से भरा नजर आता है। ध्यान रहे कि न जाने कितने ऐसे मुख्यमंत्री हैं जो अपने विवेकाधीन अधिकार के तहत सगे संबंधियों को लाभ पहुंचाते रहते हैं। नि:संदेह यह भी एक किस्म का भ्रष्टाचार है, लेकिन हंसराज भारद्वाज तो एक नई परिपाटी शुरू कर रहे हैं। यह परिपाटी केंद्र-राज्य संबंधों को प्रभावित करने वाली है। यदि देश में भ्रष्टाचार रोकना है तो इसके लिए ठोस नियम-कानून बनाने पड़ेंगे और लोकपाल सरीखी संस्थाओं का गठन करना होगा। ऐसी संस्थाओं के पास ऐसे अधिकार होने चाहिए कि वे स्वेच्छा से भ्रष्टाचार के किसी मामले की खुद जांच कर सकें। केंद्र सरकार की ओर से भ्रष्टाचार रोकने के लिए लोकपाल विध्ेायक लाने की चर्चा चल रही है। शायद सरकार संसद के अगले सत्र में इस विधेयक को पेश करेगी, लेकिन उसके मसौदे से यह लगता है कि वह अपने लक्ष्य से भटक रही है। यह निराशाजनक है कि संप्रग सरकार अपनी दूसरी पारी के प्रारंभ से ही मुसीबतों से घिरी है। कांग्रेस के लिए स्थितियां असहज होती जा रही हैं। इस वर्ष पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और अगले वर्ष उत्तर प्रदेश जैसे प्रमुख राज्य में चुनाव हैं। भाजपा लगातार कांग्रेस और केंद्र पर दबाव बनाए हुए है। शायद दबाव की इसी राजनीति के तहत भाजपा ने श्रीनगर के लाल चौक पर 26 जनवरी को झंडा फहराने का कार्यक्रम रखा है। यह कार्यक्रम कांग्रेस के लिए एक नई मुसीबत बन रहा है। जब श्रीनगर भारत का अभिन्न अंग है तब वहां किसी को भी झंडा फहराने का अधिकार है, लेकिन अलगाववादियों और कश्मीर के विपक्षी दलों के दबाव के चलते उमर अब्दुल्ला भाजपा को ऐसा कदापि नहीं करने देना चाहते। अब तक केंद्र इस मसले पर चुप बैठा हुआ था, लेकिन अब वह जम्मू-कश्मीर में और सुरक्षाबल भेजकर भाजपा की मुहिम को विफल करने के संकेत दे रहा है। यदि ऐसा हुआ तो कांग्रेस और भाजपा में टकराव और बढ़ना तय है। इन दोनों राष्ट्रीय दलों में पहले भी अनेक मुद्दों पर टकराव होता रहा है, लेकिन संसदीय कामकाज में भाजपा ने कांग्रेस को सकारात्मक सहयोग दिया है। संपग सरकार के पहले कार्यकाल में यह सहयोग दिखा भी है। संसद के बजट सत्र में अब देर नहीं। बजट सत्र के पहले कांग्रेस-भाजपा में बढ़ते तनाव को देखते हुए आशंका है कि कहीं संसद का एक और सत्र हंगामें की भेंट न चढ़ जाए। अगर ऐसा हुआ तो देश का राजनीतिक माहौल और अधिक तनावपूर्ण हो जाएगा और सरकार के लिए और असहज स्थिति उत्पन्न होने लगेगी। भाजपा के तीखे तेवर जैसे-जैसे केंद्र सरकार को असहज करेंगे, कांग्रेस भी भाजपा पर पलटवार करती जाएगी। विपक्षी दलों के दबाव और साथ ही घटक दलों से सांमजस्य के अभाव के चलते केंद्र सरकार की मुसीबतें और बढ़ सकती हैं।


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