कांग्रेस ने कांग्रेस ऐंड द मेकिंग ऑफ इंडियन नेशन शीर्षक से दो खंडों में पुस्तक प्रकाशित की है। पार्टी 125 वर्षों का भारतीय इतिहास लिखकर उसकी कुल पूंजी खुद चुरा लेने के चक्कर में है। राष्ट्रीय आंदोलन और उसके विकास के इतिहास के साथ बहुत कम छेड़छाड़ की गई है। भारतीय समाजवाद के पितामह दादा भाई नौरोजी को इज्जत के साथ याद किया गया है। मोहम्मद अली जिन्ना के उदारवादी व हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए प्रारंभ में किए गए प्रयासों को ईमानदारी से स्वीकार किया गया है। भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों के संग्राम की शुरुआत 1916 के लखनऊ करार के बाद शुरू हुई थी। खिलाफत आंदोलन के बहाने गांधी और जिन्ना ने हिंदू-मुस्लिम एकता की शुरुआत की थी, इसका भी संकेतात्मक उल्लेख है। मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन पद्धति को भविष्य में हिंदू-मुसलमान के झगड़े का कारण समझने वाले जिन्ना 1920 के बाद पूरी तौर पर मुस्लिम हितैषी और मुस्लिम लीग के समर्थक क्यों हो गए? यह चिंतन का मुद्दा होना चाहिए। जिन्ना को लीग से नफरत थी, फिर वह उसी के अध्यक्ष क्यों हो गए? इतनी छोटी पुस्तक में इतिहास के जितने पेंच हैं उनकी समीक्षा की अपेक्षा नहीं की जा सकती, लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने के बाद कांग्रेस सोशलिस्ट के दबाव में गांधीजी को अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने का मन बनाना पड़ा। खामोश बैठे नेहरू को भी सोशलिस्ट लोगों का दबाव स्वीकार करना पड़ा, जिसके फलस्वरूप 1942 का महासंग्राम शुरू हुआ। कांग्रेस द्वारा प्रकाशित किसी साहित्य में पहली बार 1942 की क्रांति में जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, अरुणा आसफ अली, सुचेता कृपलानी सहित सभी समाजवादी नेताओं का उल्लेख है। यह पुस्तक 1969 तक कांग्रेस के इतिहास के संबंध में संतुलित है, किंतु जबसे कांग्रेस एकाधिकारवादी हुई, भ्रष्टाचार और परिवादवाद की स्तंभ बनी, उसके बाद के इतिहास के साथ बौद्धिक बेईमानी की गई है। 1969 में कांग्रेस में बड़ी टूट हुई। बेंगलूर में कांग्रेस चुनाव कमेटी की बैठक में डॉ. जाकिर हुसैन की मृत्यु से रिक्त हुए राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार निश्चित होना था। पार्लियामेंट्री बोर्ड ने बहुमत से नीलम संजीव रेड्डी का नाम स्वीकार कर लिया। इंदिरा गांधी वहां उपस्थित थीं। कांग्रेस अध्यक्ष निजलिंगप्पा ने रेड्डी के नाम का प्रस्तावक होने के लिए इंदिरा गांधी से आग्रह किया। उन्होंने कांग्रेस के फैसले का सम्मान करते हुए रेड्डी के प्रस्तावक रूप में नामांकन किया, किंतु उन्हीं के लोगों ने कार्यवाहक राष्ट्रपति वीवी गिरि को उम्मीदवार बना दिया और इंदिरा गांधी के इशारे पर आत्मा की पुकार के आधार पर राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए वोट करने की मांग तेज हुई। कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी रेड्डी की हार ने कांग्रेस के विभाजन के रास्ते खोल दिए। कांग्रेस का स्वरूप व्यक्तिवादी, हिंसावादी, किसी भी कीमत पर कुर्सी पर चिपके रहने वाला हो गया। इन्हीं परिस्थितियों में संजय गांधी का प्रादुर्भाव हुआ। अपने से विपरीत राय रखने वालों के लिए आदर का युग समाप्त हुआ। इसी बीच गुजरात में नव निर्माण समिति के नेतृत्व में 1973 में आंदोलन की शुरुआत हुई। बिहार से जयप्रकाश ने शंख फूंका। कांग्रेसियों ने जेपी पर फासिस्ट शक्तियों से मिले होन का आरोप मढ़ दिया। इससे जेपी के आंदोलन को बल मिला। कांग्रेस जेपी के राष्ट्रीय आंदोलन की पूंजी को नजरअंदाज कर उनकी सत्य निष्ठा पर हमले करने लगी। इसी बीच इलाहाबाद हाईकोर्ट में राजनारायण द्वारा दाखिल चुनाव याचिका की सुनवाई तेज हुई। हाईकोर्ट ने तकनीकी आधार पर इंदिरा गांधी का 1971 का चुनाव रद्द घोषित कर दिया। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दाखिल की और हाईकोर्ट के फैसले पर रोक की याचना की। माननीय जज ने कुछ शर्तो के साथ हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील स्वीकार की। कांग्रेस के अंदर नेतृत्व परिवर्तन की मांग उठने लगी। देश में आपातकाल की घोषणा का मुख्य बिंदु चुनाव याचिका का फैसला था। देश की संसद में जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन कर दिए गए। संविधान में मनमाफिक परिवर्तन किए गए। लगभग 19 महीने बाद आपातकाल समाप्त हुआ। दमन की चक्की में पिस रहे सभी लोकतांत्रिक दलों के नेताओं ने एक चिन्ह पर जनता पार्टी के नाम पर चुनाव लड़ा। दक्षिण के राज्यों को छोड़कर कांग्रेस का सफाया हो गया। इसलिए आपातकाल की ज्यादती का ठीकरा अकेले संजय गांधी के सिर पर फोड़ना बौद्धिक वेईमानी है। केवल आज के गांधी परिवार के सत्ता के दावेदारों को वचाने के लिए दोष संजय गांधी पर डाल दिया गया। जब कभी नेहरू-गांधी परिवार की सत्ता खतरे में पड़ी, दोष किसी और पर डालकर अपना पल्ला झाड़ लिया गया। इस पुस्तक में नेहरू-इंदिरा युग का आकलन कुछ इसी आधार पर किया गया है। (लेखक राज्यसभा सदस्य हैं)
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