Sunday, January 30, 2011

हंसराज के फैसले के निहितार्थ


कांग्रेस के पूर्व नेता और देश के कानून मंत्री रहे हंसराज भारद्वाज एक बार फिर से विवादों में हैं। कर्नाटक के राज्यपाल के तौर पर उन्होंने सूबे के मुख्यमंत्री वाईएस येद्दयुरप्पा के खिलाफ केस चलाने की इजाजत देकर राज्य की राजनीति में भूचाल ला दिया है। एक जमाने में देश में विकास और गुड गवर्नेस की मिसाल देने वाला यह राज्य आज अपने संवैधानिक प्रमुख और सरकार के मुखिया के बीच के विवादों की मिसाल कायम कर रहा है। राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच जारी इस तनातनी में राज्य का प्रशासन और विकास दोनों ठप हो गए हैं। कार्यपालिका के मुखिया के खिलाफ केस चलाने की इजाजत देने के बाद एक बार फिर से राज्यपाल की भूमिका पर सवाल खड़े होने लगे हैं। सवाल इस इजाजत का नहीं है, बड़ा मुद्दा तो वह है, जो सतह पर दिखाई नहीं देता। जिस तरह से आनन-फानन में कुछ लोगों ने राज्यपाल से मुख्यमंत्री येद्दयुरप्पा के खिलाफ केस चलाने की इजाजत मांगी और हंसराज भारद्वाज ने त्वरित गति से कार्रवाई करते हुए उसकी इजाजत दे दी, उससे राज्यपाल की नीयत और उनकी मंशा दोनों पर सवाल खड़े होते हैं। संविधान के मुताबिक राज्यपाल को मंत्रिमंडल की सलाह पर काम करना होता है, लेकिन इस तरह के मामलों में राज्यपाल को मंत्रिमंडल की सलाह ठुकराकर स्वतंत्र रूप से फैसला लेने का अधिकार प्राप्त है। दो हजार चार में सुप्रीम कोर्ट की एक पांच सदस्यीय खंडपीठ के ऐतिहासिक फैसले में कहा गया था कि भ्रष्टाचार के मामलों में मंत्रिमंडल की सिफारिश को नामंजूर करते हुए राज्यपाल मंत्रियों के गैर कानूनी कामों और भ्रष्ट आचरण के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति दे सकते हैं। मुख्यमंत्री और कैबिनेट मंत्री के खिलाफ केस चलाने या आरोपी बनाने की इजाजत देने के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर कहा है कि यह निर्णय लेते वक्त राज्यपाल को पूरी स्वतंत्रता है और वह मंत्रिमंडल की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं है। जाहिर-सी बात है कि पूर्व कानून मंत्री रहे भारद्वाज को अपने इस अधिकार का बखूबी पता था और उन्होंने इसका इस्तेमाल करते हुए येद्दयुरप्पा के खिलाफ केस चलाने की इजाजत दे दी। उस इजाजत के पहले और बाद के गवर्नर के बयानों पर गौर करें तो उनकी राजनीतिक मंशा साफ तौर पर रेखांकित की जा सकती है। इस देश के संविधान में राज्यपाल से यह अपेक्षा की गई है कि वह दलगत राजनीति से ऊपर उठकर काम करें, लेकिन कर्नाटक के राज्यपाल उससे ऊपर उठ नहीं सके। भारद्वाज के इस फैसले से देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक गलत परंपरा को मजबूती मिलती है। उसके बाद जिस तरह से देश के गृहमंत्री पी चिदंबरम ने भारद्वाज का बचाव किया, उससे भी यह शक गहरा होता है कि केंद्र के इशारे पर हंसराज भारद्वाज ने येद्दयुरप्पा के खिलाफ मुकदमे को हरी झंडी दिखाई। चंद मामूली आरोपों के आधार पर अगर राज्यों के मुख्यमंत्रियों के खिलाफ मुकदमा चलाने को मंजूरी दी जाने लगे तो इससे देश के शासन तंत्र में बड़ा बखेड़ा खड़ा हो सकता है। अब अगर कल को कोई 1.76 लाख करोड़ रुपये के टेलीकॉम घोटाले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के खिलाफ मुकदमा चलाने की कार्रवाई की इजाजत के लिए कुछ लोग राष्ट्रपति के पास पहुंच जाते हैं और इसकी इजाजत मांगते हैं तो क्या राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के प्रोसिक्यूशन को स्वीकृति देंगी। येद्दयुरप्पा के खिलाफ अपने रिश्तेदारों को गैरकानूनी तरीके से जमीन आवंटन के आरोप लगे हैं। उसी तरह प्रधानमंत्री के दामन पर भी टेलीकॉम घोटाले के छींटे तो पड़ ही रहे हैं। कॉमनवेल्थ घोटाले में उस वक्त के केंद्रीय शहरी विकास मंत्री जयपाल रेड्डी से लेकर दिल्ली की मुख्यमंत्री तक पर घोटाले के परोक्ष आरोप लगे। अगर कर्नाटक के राज्यपाल हंसराज भारद्वाज के तरीके से लोकतंत्र चले तो राष्ट्रपति को किसी भी अदने से व्यक्ति की शिकायत पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के खिलाफ केस चलाने की अनुमति दे देनी चाहिए। हंसराज भारद्वाज के इस कदम को सही ठहराने वाले कांग्रेस के नेता छोटे लाभ के लिए बड़े मूल्यों और मानदंडों को भुलाने में लगे हैं। दरअसल, भारद्वाज कांग्रेस की पुरानी परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं। राज्यपाल के पद का दुरुपयोग 1967 से देश में शुरू हुआ। यह वह दौर था, जब देश में एक पार्टी का शासन चल रहा था और विपक्ष बेहद कमजोर था। जब 1967 में गैरकांग्रेसवाद की लहर चली और कई सूबों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं तो केंद्र की कांग्रेसी सरकार ने राज्यपाल का इस्तेमाल चुनी हुई सरकारों को अस्थिर करने के लिए शुरू कर दिया। इमरजेंसी के बाद जब इंदिरा गांधी दोबारा चुनकर आई तो उन्होंने राजनीतिक तौर पर बदला चुकाने के लिए जनता पार्टी के शासन वाले नौ राज्यों की सरकारों को भंग कर दिया और वहां राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया था। आजाद भारत के इतिहास में इंदिरा गांधी ने राज्यपाल नाम की संस्था का सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया और चुनी हुई सरकारों को भंग कर दिया। 1984 में आंध्र प्रदेश में जब एनटी रामाराव ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी, उस वक्त ठाकुर रामलाल ने इंदिरा गांधी के हुक्म पर बहुमत होने के बावजूद रामाराव को सरकार नहीं बनाने दिया और उनकी बजाए कांग्रेस के भास्कर राव को सरकार बनाने का न्यौता दे दिया था, जबकि एनटी रामाराव 48 घंटे के भीतर सदन में बहुमत साबित करने को तैयार थे। बाद में चौतरफा दबाव में रामाराव को सरकार बनाने दिया गया था। उसी तरह से जम्मू-कश्मीर की चुनी हुई सरकार के मुखिया फारुक अब्दुल्ला को जगमोहन ने बर्खास्त कर दिया। जब राज्यपाल की भूमिका को लेकर देशव्यापी बहस शुरू हुई और सरकार की जमकर आलोचना होने लगी तो राज्यपाल की नियुक्ति को लेकर सरकारिया कमीशन का गठन हुआ। 27 अक्टूबर 1987 को सरकारिया आयोग ने राज्यपाल की नियुक्तियों को लेकर कुछ सुझाव दिए थे, जिस पर ज्यादा अमल हो न सका। सरकारिया आयोग दो एक अहम सुझाव दिए थे- पहला कि घोर राजनीतिक व्यक्ति को जो हाल तक सक्ति्रय राजनीति में रहा हो, उसे राज्यपाल नहीं बनाया जाना चाहिए। दूसरा कि केंद्र में जिस पार्टी की सरकार हो, उसके सदस्य को विपक्षी पार्टी के शासन वाले राज्य में राज्यपाल नियुक्त न किया जाए। कर्नाटक के मामले में कांग्रेस ने दोनों सुझावों की अनदेखी की। केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह नहीं पाने वाले कानून मंत्री को खुश करने के लिए कर्नाटक जैसे अहम राज्य का राज्यपाल मनोनीत कर दिया, जहां भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई में सरकार काम कर रही थी। ये वही हंसराज भारद्वाज हैं, जिन पर कानून मंत्री रहते बोफोर्स तौप सौदे के दलाल क्वात्रोच्ची के खिलाफ कार्रवाई में ढिलाई बरतने का संगीन इल्जाम लगा था। भारद्वाज अपने इन कार्यकलापों से भारतीय जनता पार्टी की चुनी हुई सरकार को मुश्किल में डालकर कांग्रेस पार्टी और आलाकमान की नजर में अपना नंबर बढ़ाना चाहते हैं। हाल तक सक्ति्रय राजनीति करने वाले हंसराज भारद्वाज राजभवन के रास्ते एक बार फिर से राजनीति में सक्रिय होना चाहते हैं। इसलिए येद्दयुरप्पा सरकार की राह में रोड़े अटकाने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते हैं, लेकिन कानून और संविधान के जानकार हंसराज भारद्वाज यह भूल जा रहे हैं कि इससे कई गलत परपंराओं की नींव डल रही है, जो अगर नजीर बन गई तो लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं होगा। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)


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