Sunday, January 9, 2011

छोटे राज्यों के गठन का औचित्य

इस समय देश में छोटे राज्यों के गठन की मांग तेजी पकड़ रही है। कोई उत्तर प्रदेश का विभाजन कर बंुदेलखंड, पूर्वाचल और पश्चिमी उत्तर प्रदेश या यूं कहे कि हरित प्रदेश की मांग कर रहा है तो कोई आंध्र का विभाजन कर तेलंगाना और रॉयलसीमा के गठन की मांग कर रहा है। कोई विदर्भ, कोई गोरखालैंड, कोइ मिथिला, कोई विंध्याचल, कोई बोडोलैंड तो कोई कर्नाटक का विभाजन चाहता है और कोई जम्मू-कश्मीर को ही तीन हिस्सों में बांटने की मांग कर रहा है। जहां तक तेलंगाना की बात है तो श्रीकृष्णा समिति की रिपोर्ट ने मामले को हल करने के बजाय और उलझा दिया है। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में छह सुझाव दिए हैं, जिनमें पहला सुझाव राज्य की यथास्थिति को बरकरार रखना है। दूसरा है आंध्र प्रदेश का दो भागों तेलंगाना और सीमांध्र में बंटवारा, जिनकी अलग राजधानियों की बात है और हैदराबाद को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा देने की बात है। तीसरा है राज्य का रॉयल सीमा, तेलंगाना और तटीय आंध्र के बीच तीन हिस्सों में विभाजन, जिसमें हैदराबाद को रॉयलसीमा और तेलंगाना का अभिन्न हिस्सा बनाये रखने की सिफारिश है। उपरोक्त दोनों प्रस्ताव समिति खुद व्यावहारिक नहीं मान रही। उसकी राय में पहले प्रस्ताव की तो प्रासंगिकता ही समाप्त हो चुकी है तो दूसरा व्यावहारिक विकल्प नहीं है। जहां तक तीसरे प्रस्ताव का सवाल है, वह तीनों क्षेत्रों की जनता को किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं होगी। चौथा प्रस्ताव है राज्य का सीमांध्र और तेलंगाना में विभाजन और हैदराबाद को वृहत्तर हैदराबाद महानगर के तौर पर केंद्र शासित प्रदेश बनाने की। स्पष्ट है कि इस प्रस्ताव पर भी विभाजन के समर्थकों द्वारा आम सहमति बन पाएगी इसकी आशा न के बराबर है। पांचवा है, वर्तमान सीमाओं के भीतर राज्य का तेलंगाना और सीमांध्र के बीच विभाजन। इसके तहत हैदराबाद तेलंगाना की राजधानी बनेगी और सीमांध्र के लिए नई राजधानी बनानी होगी। छठे सुझाव के तहत संवैधानिक उपायों से तेलंगाना क्षेत्र का सामाजिक-आर्थिक विकास किया जाने की बात है और इनका राजनीतिक सशक्तिकरण करके कानूनन तेलंगाना क्षेत्रीय परिषद का गठन करने की सिफारिश है। जहां तक समिति की राय है तो पांचवा और छठा प्रस्ताव इस समस्या के बेहतर विकल्प हो सकते हैं, लेकिन वह खुद छठे प्रस्ताव को सबसे उचित विकल्प के रूप में पेश करती है। तेलंगाना समर्थकों को तेलंगाना से कम कुछ भी मंजूर नहीं, जबकि समिति की राय है कि राज्य का बंटवारा न हो और तेलंगानावासियों का दिल जीतने के लिए प्रशासन और सरकारी नौकरियों में न केवल पर्याप्त पद दिए जाएं, बल्कि राज्य का मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री भी तेलंगाना क्षेत्र से ही बनाया जाए। समिति का मानना है कि तेलंगाना के गठन से नए राज्य में आंतरिक सुरक्षा की स्थिति और बिगड़ेगी। हैदराबाद को तेलंगाना की राजधानी मानने के बाद भी इस राज्य में नक्सली समस्या से पार पाना टेढ़ी खीर होगी। आर्थिक विकास को लेकर इस नए राज्य की उम्मीदें इतनी बढ़ जाएंगी जिनका पूरा होना संभव नहीं होगा। नतीजन जिन उद्देश्यों के लिए राज्य का गठन होगा वे पूरे नहीं हो पाएंगे और उस स्थिति में राज्य की जनता का आक्रोश और विकराल रूप धारण कर लेगा। सच तो यह है कि आंध्र प्रदेश के विभाजन से न केवल राज्य के अंदर बल्कि बहार भी गंभीर परिणामों का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि इस मांग को मानने पर दूसरे राज्यों की मांग को बल मिलेगा। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक इससे देश को न केवल आर्थिक संकट का सामना करना पड़ेगा, बल्कि राजनीतिक समस्याएं भी बढ़ेंगी। यदि समिति की मानें तो राज्यों के पुनर्गठन के बाद ऐसा पहली बार होगा जब भाषाई आधार पर गठित प्रदेश के विभाजन की राजनीतिक मांग को केंद्र सरकार दो तेलगू भाषी राज्यों के निर्माण के साथ मानेगी। तेलंगाना के समर्थक हैदराबाद को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। असलियत यह है कि केंद्र सरकार कुछ भी कहे कि इन विकल्पों पर विचार किए जाने की जरूरत है। समिति समाधान की जगह सुझाव दे रही है जो अलग राज्य की मांग करने वालों को स्वीकार ही नहीं है। इसमें दो राय नहीं कि यह एक बहुत बड़ी समस्या है और इसको सावधानी पूर्वक हल करने की जरूरत है। जल्दबाजी से मामला और बिगड़ेगा। सबसे बड़ी बात यह है कि आंध्र की राजधानी हैदराबाद में मुस्लिम आबादी का प्रतिशत 41 है जो किसी कीमत पर विभाजन अथवा तेलंगाना में जाने की पक्षधर नहीं है। इन्हें नजरंदाज करना आसान नहीं होगा, बल्कि इससे मुश्किलें बढ़ेगी। नए राज्य में आरक्षण की समस्या से भी पार पाना मुश्किल होगा। राजनीतिक सत्ता का गणित गड़बड़ाएगा सो अलग, क्योंकि उस हालत में कुछ राजनीतिक दलों के नीचे से उनकी जमीन ही खिसक जाएगी और राज्य में उनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। अब गेंद केंद्र के पाले में है देखना है कि वह इसे मानकर देश को छोटे-छोटे राज्यों में बांटना चाहती है या उसकी प्राथमिकता विकास है। असल में पिछले कुछ समय से तेलंगाना के गठन की मांग तेज हुई है। इन मांगों के पीछे कहीं पिछड़ेपन को तो कहीं क्षेत्र की उपेक्षा को जिम्मेदार कहा जा रहा है। परंतु असलियत में इसके पीछे राजनीतिक हित भी छिपे हैं, जिन्हें नकारा नहीं जा सकता जो अशांति फैलाने व कानून-व्यवस्था को बिगाड़ने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। कोई अपनी मांग के परिप्रेक्ष्य में राज्य पुनर्गठन आयोग के गठन की जरूरत बता रहा है तो कोई इसकी प्रासंगिकता पर ही सवाल खड़े कर रहा है तो कोई अलग राज्य के गठन को समस्या का समाधान मानने से ही इंकार कर रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि समस्या का समाधान केवल अलग राज्य या स्वायत्त इकाई बना देने से तो होने वाला नहीं। वैसे इसमें दो राय भी नहीं कि भारत जैसे देश में जो सांस्कृतिक विविधता से परिपूर्ण है, क्षेत्रीय आकांक्षाओं को नकारा नहीं जा सकता। यह भी सच है कि अलग राज्य की मांग को हवा देने में एक-दूसरे से बंधे रहने की मजबूरी और अपनी-अपनी अलग सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने की तड़प या यूं कहें कि छटपटाहट अहम भूमिका निभाती है। सामाजिक दृष्टि से भी इसकी महत्ता और जरूरत को झुठलाया नहीं जा सकता। आजादी के छह दशक बाद भी राष्ट्रीय अखंडता से क्षेत्रीय अस्मिता को जोड़कर देखने में न तो हम समर्थ हैं और न ही इतने परिपक्व। इस स्थिति में अलग राज्य के गठन के बाद अपनी समस्याओं-विषमताओं से कैसे पार पाएंगे यह समझ से परे है, क्योंकि केवल कुर्सी पा लेना ही तो काफी नहीं है। छोटे राज्यों के गठन के औचित्य का सबूत 10 साल पहले बनाए गए तीन नए राज्य- उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और झारखंड हैं। इनके गठन के 10 साल बाद भी इनके हालात में कोई खास बदलाव नहीं आया है। बीते दिनों लोकमंच के अध्यक्ष अमर सिंह ने पूर्वाचल स्वाभिमान सद्भावना यात्रा की शुरुआत करते हुए इसके गठन के लिए क्षेत्र के पिछड़ेपन और सौतेले बर्ताव को मुख्य कारण बताया। संभवत: हर राज्य के गठन की मांग के पीछे यही अहम कारण बताए जाते हैं। छोटे राज्यों का गठन कहां तक उचित रहा है और वे कहां तक कामयाब रहे हैं, उत्तराखंड की दशा से इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। उत्तराखंड बनने के बाद यह आस बंधी थी कि अब तो राज्य की बागडोर पहाडि़यों के हाथों में होगी, वही पहाड़ की तकदीर लिखेंगे और उसका फैसला भी वही करेंगे, लेकिन आज ऐसा कुछ भी नहीं है। 10 साल बाद आज भी वहां के स्कूलों में शिक्षकों का अभाव है, अस्पतालों में डॉक्टर कम हैं या वह जाते ही नहीं। पहाड़ी जिले आज भी विकास से अछूते हैं और रोजगार के नाम पर नौजवान खुद को ठगा महसूस करते हैं। नेतृत्व राज्य के विकास का दावा करता नहीं थकता, जबकि हकीकत में अगर विकास का लाभ मिला है तो वह मात्र तीन शहरों, वह भी मैदानी जिलों रुद्रपुर, हरिद्वार और राजधानी देहरादून को। इसमें पहाड़ी जिलों को कुछ हासिल नहीं हुआ। खनिज, जल और वन-संपदा से भरा-पूरा यह राज्य आज भी धन कुबेरों की लूट का अड्डा बना हुआ है और दुख इस बात का है कि इस माामले में देश की संस्कृति धरोहर की रक्षा का दंभ भरने वाली भाजपा या कांग्रेस अथवा राज्य निर्माण का दावा करने वाला दल उक्त्रांद आदि ने धनकुबेरों की मदद करने में कीर्तिमान बनाया है। विडंबना यह है कि जिन उद्देश्यों के लिए इस राज्य का गठन किया गया वह आज भी अधूरे हैं। ऐसी स्थिति में यह कहना गलत न होगा कि यदि इसी के लिए अलग राज्य बनते रहे तो आम आदमी छला ही जाएगा। इस मामले में छत्तीसगढ़ और झारखंड की भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। झारखंड के बारे में दावे कुछ भी किए जाएं, लेकिन सच यही है कि वहां भूख, गरीबी और बेकारी का साम्राज्य है। वहां की आर्थिक विकास दर लगातार पिछड़ रही है। राज्य बनने के साथ वहां दुनिया की बहुतेरी कंपनियां आई, लेकिन हुआ क्या? क्या वहां के नौजवानों को रोजगार मिले। राज्य के गठन के बाद से अब तक वहां मुख्यमंत्री ही बदलते रहे हैं और इसमें इस राज्य ने कीर्तिमान बनाया है। 5000 करोड़ से ज्यादा के घोटाले हुए है और नक्सली हिंसा से प्रभावित 24 से ज्यादा जिलों में तकरीब 1700 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। छत्तीसगढ़ माओवादी हिंसा से इस तरह त्रस्त है कि वहां का जन-जीवन अस्त-व्यस्त है। वहां कंपनियों में काम करने के लिए नवनियुक्त कर्मचारी मौत के भय से वहां जाना ही नहीं चाहते। वहां प्रशासनिक अव्यवस्था है, कानून-व्यवस्था लुंज-पुंज है और भ्रष्टाचार का बोलबाला है। तीनो राज्यों से रोजगार की खातिर पलायन आज भी जारी है। यदि छोटे राज्यों के गठन के दस साल बाद भी यही हाल है तो उस हालत में और नए राज्यों के गठन से कुछ अधिक हासिल करने की उम्मीद गलत होग। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


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