यह उम्मीदों की पासबुक है। वह पासबुक जो देश और समाज की जड़ों में घुस चुकी राजनीति को आने वाले समय में खोखला होने से बचा सकती है। बिहार चुनावों में इसका शुरुआती परीक्षण हो चुका है। अब बारी है व्यापक और गहन परीक्षण की। नए साल में यह परीक्षण होगा। बिहार चुनाव में पहली बार चुनाव आयोग ने चुनावी खर्च के लिए एक अलग पासबुक का प्रावधान किया था। यानी उम्मीदवारों को अपना हर चुनावी खर्च एक पासबुक के जरिए करना था। जाहिर तौर पर वोटों की खरीद-फरोख्त और तय सीमा से कहीं आगे बढ़कर खर्च करने वालों के लिए यह प्रावधान एक झटके जैसा है। आयोग की नई पहल के अनुसार हर उम्मीदवार को नामांकन भरने से पहले किसी भी बैंक में एक खाता खुलवाकर इसकी लिखित जानकारी देनी होती है। यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि संयुक्त रूप से यह खाता अपने चुनावी एजेंट के अलावा किसी के साथ नहीं खोला जा सकता। इस छोटी सी पहल के जरिए आयोग ने एक साथ कई मोर्चे दुरुस्त कर दिए हैं, जिसका प्रभाव आने वाले चुनावों में दिखेगा। मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी पहले ही संकेत दे चुके हैं कि बिहार के परीक्षण से वह उत्साहित हैं और आगे की राह तय है। अब उनके लिए मुश्किल हो सकती है जो चुनावी खर्च की हर सीमा को तोड़ने में लगे हैं। दरअसल, यह पासबुक उम्मीदवारों के जरिए उनसे संबंधित लोगों और पार्टियों पर भी नजर रखेगी। मसलन, पासबुक में कोई आमद दिखाई जाती है, तो स्रोत छिपाना मुश्किल होगा। अगर किसी व्यक्ति ने चंदा दिया है, तो आयोग से लेकर आयकर विभाग तक वह व्यक्ति भी नजरों में होगा। राजनीतिक दल से सहायता मिली है, तो उसका बहीखाता भी सामने होगा। आयोग उस आधार पर पार्टी के खर्चो का आकलन कर सकता है। हालांकि राजनीतिक अखाड़े के पहलवान छिपे तौर पर भी खर्च करते हैं, लेकिन पूरी संभावना है कि गहमागहमी के बीच वह कोई सुराग दें। उस सुराग से तह तक पहुंचने के लिए आयोग ने एक्सपेंडीचर आब्जर्वर भी तैनात करने शुरू कर दिए हैं, जिन पर उम्मीदवारों के बही खातों को खंगालने की जिम्मेदारी होती है। कोई बेमेल विवरण उम्मीदवारों के लिए मुसीबतों का पहाड़ बन सकता है।
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