लेखक क्षेत्रीय दलों के कथित तीसरे-चौथे मोर्चे की राजनीतिक जमीन पर निगाह डाल रहे हैं
प्रादेशिक-राजनीतिक हित और अवसरवाद तीसरे मोर्चे को कभी मुकम्मल शक्ल ही नहीं लेने देते। अलग-अलग मौकों पर तार-तार हो चुकी तीसरे मोर्चे की शक्ल जेपीसी के मुद्दे पर एक बार फिर आकार लेती दिख रही है। सेक्युलर विपक्ष के रूप में तीसरे मोर्चे के इस नए अवतार की उम्र कितनी होगी, यह भविष्य बताएगा, लेकिन एक बात तो तय है कि जब तक केंद्र में सत्ता के बंटवारे का कोई अवसर नहीं आता तब तक इसकी एकता की कोई गारंटी नहीं है। प्राय: सभी क्षेत्रीय दलों की अपनी-अपनी स्थानीय वोटबैंक की मजबूरी और सियासी समीकरण हैं, जो उन्हें स्थायी भाव नहीं लेने देते। दरअसल, क्षेत्रीय दलों की राजनीति का जन्म जिस बुनियाद पर हुआ है उसमें यह लाजिमी भी है। राष्ट्रीय दलों की मनमानी ने ही क्षेत्रीय भावनाओं को प्रस्फुटन का मौका दिया है। 1960 के दशक में स्थानीय क्षत्रपों में उपजे आक्रोश और आजादी के लिए लड़ने या उसे समर्थन देने वाली पीढ़ी के धीरे-धीरे कम होने के साथ ही क्षेत्रीयता की भावना भी अपने पैर जमाती गई। 1970 और फिर 1980-90 के दशकों में इन क्षेत्रीय दलों ने एक मंच पर जाकर कांग्रेस को किनारे करने में थोड़ी सफलता भी पाई। मगर यह नाजुक एकता हर बार अलग-अलग मुद्दों पर दिल्ली में ही दिखाई दी। वक्ती तौर पर ही सही जेपीसी के मामले में फिलहाल वे एक मंच पर नजर आ रहे हैं, लेकिन उससे भी सपा दूर ही है। इसीलिए कहा भी जाता है कि तीसरा मोर्चा बनता ही है बिखरने के लिए! एक नजर तीसरे मोर्चे की ताकतों पर- वाम मोर्चा : 2009 के लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने लाल दुर्ग के कंगूरे को तोड़कर वाम मोर्चे के लिए खतरे की घंटी पहले ही बजा दी है। रही-सही कसर 2010 में स्थानीय निकाय के चुनाव में ममता-कांग्रेस ने वामदलों का सूपड़ा साफ कर पूरी कर दी। वाम दलों के लिए केरल से भी बुरी खबर है। स्थानीय निकाय के चुनाव में वाम मोर्चा वहां भी खेत रहा है। अभी असली परीक्षा 2011 में पश्चिम बंगाल और केरल के विधानसभा चुनावों में होनी है। पश्चिम बंगाल में ममता की आंधी से 35 साल पुराने वामपंथी शासन के पैर राइटर्स बिल्डिंग से उखड़ते नजर आ रहे हैं। ऐसे में वाम मोर्चे की पहली चुनौती माकपा, भाकपा, फॉरवर्ड ब्लॉक समेत पूरे कुनबे को समेट कर रखने की है। इन्हीं हालात ने केरल और पश्चिम बंगाल के माकपा नेताओं को अपनी ऐतिहासिक अदावत भी भुलाने को मजबूर कर दिया है। इसीलिए, वह गैरकांग्रेस-गैरभाजपा विपक्ष को एकजुट कर अपनी अहमियत गाहे-बगाहे बनाए रखती है। सपा और बसपा : उत्तर प्रदेश में 2012 के विधानसभा चुनाव सपा के लिए सबसे बड़ी अग्नि परीक्षा साबित होंगे। 2004 व 2009 के लोकसभा चुनाव में यूपी में सबसे बड़ा दल बन कर उभरने के बावजूद सपा केंद्र में अपनी भूमिका तलाशती ही रही है। 2007 में विधानसभा चुनाव हारने के बाद से सपा के लिए 2010 में भी अच्छी खबरें नहीं आईं। बसपा व कांग्रेस ने मुलायम सिंह के गढ़ में उनके वोट बैंक में सेंध लगा दी है। बसपा के सत्तासीन होने के बावजूद सत्ता विरोधी माहौल का भी सपा लाभ नहीं ले पा रही है। शायद यही वजह है कि मुलायम सिंह ने लोकसभा चुनाव के बाद कल्याण सिंह और बाद में कल्याण को सपा में लाने वाले अमर सिंह से भी रिश्ते तोड़ लिए। अब मुलायम अपने बिछड़े साथियों की घर वापसी के लिए हर कसरत में जुटे हैं। आजम खां ठाठ-बाट के साथ सपा में लौटे भी हैं। सपा की पूरी कसरत यादव-मुस्लिम जनाधार को फिर से एकजुट करने की है। अयोध्या में राम मंदिर के पक्ष में हाईकोर्ट का फैसला आने पर मुलायम की प्रतिक्रिया भी मुस्लिम वोटबैंक के मद्देनजर ही थी। राज्य और केंद्र, दोनों ही स्तरों पर किसी भी सूरत में बसपा का हाथ कांग्रेस से न मिल सके, मुलायम की पहली प्राथमिकता यह है। शायद यही वजह है कि केंद्र में एक-आध मुद्दों को छोड़कर सपा किसी सरकार विरोधी मुहिम में शामिल नहीं होती। बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों ने बसपा को थोड़ा चिंतित किया है, लेकिन उत्तर प्रदेश में कमजोर सपा, कांग्रेस और भाजपा उसके लिए कोई चुनौती नहीं खड़ा कर पा रही हैं। बिहार में कांग्रेस की करारी हार ने जहां एक तरफ बसपा को खुश होने का कारण दिया है, वहीं सचेत भी किया है कि केवल वोट बंैक नहीं प्रदेश में विकास भी एक बड़ा चुनावी मुद्दा बन सकता है। मायावती को यह मालूम है कि केवल लखनऊ में ही विकास दिखने से काम नहीं चलने वाला। राजद और लोजपा : बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश व भाजपा की आंधी ने राजद और लोजपा का सूपड़ा ही साफ कर दिया है। राजद की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी दोनों विधानसभा क्षेत्रों में बुरी तरह हारी हैं तो इधर लोजपा नेता रामविलास पासवान भी अपने भाई की हार से बेचैन हैं। जनाधार की जमीन खिसकने के चलते अब राजद लोजपा के भीतर आंतरिक कलह और दोषारोपण चरम पर है। फिलहाल उनके पास 2014 के लोकसभा अथवा 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के पहले करने को कुछ नहीं है। लिहाजा, संभावित तीसरे मोर्चे में ही अपनी अहमियत तलाशने की कोशिश कर रहे हैं। अन्नाद्रमुक : तमिलनाडु में डीएमके के 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले ने अन्नाद्रमुक को राज्य में खाद और पानी खुद ही दे दिया है। 2011 के विधानसभा चुनाव को जयललिता राज्य में खोई सत्ता पाने के एक अवसर के तौर पर देख रही हैं। राज्य में भ्रष्टाचार के प्रतीक बन गए ए. राजा ही नहीं खुद करुणानिधि के परिवार के बीच चल रही विरासत की जंग ने भी जयललिता की संभावनाओं को बल दिया है। तमिलनाडु का चुनावी रसायन भी कुछ ऐसा रहा है कि द्रमुक और अन्नाद्रमुक के बीच सत्ता का हस्तांतरण होता रहा है। इसी तथ्य के मद्देनजर जयललिता तब तक ही तीसरे मोर्चे के दलों के साथ खड़ी हैं, जब तक कि कांग्रेस उनकी तरफ हाथ नहीं बढ़ा देती। तेदेपा : आंध्र में वाईएसआर की विरासत के लिए चल रही कांग्रेस की जंग ने प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू के लिए राह थोड़ी आसान की है। किसानों के हित के लिए आमरण अनशन पर बैठकर चंद्रबाबू ने वामदलों, जगन और तेलंगाना नेताओं की सहानुभूति भी अपने साथ जोड़ ली है। उन्हें लग रहा है कि किसान आंदोलन, तेलंगाना मूवमेंट और उनकी अपनी राजनीतिक जमीन एकजुट हो जाए तो वह कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर उभर सकते हैं। यह राह इतनी आसान नहीं है, क्योंकि वाईएसआर की विरासत पाने के लिए जगन के तेवर सातवें आसमान पर हैं। वह राज्य में कांग्रेस लिए एक खतरा तो बन गए हैं लेकिन चंद्रबाबू और जगन की महत्वाकांक्षाएं दोनों को साथ नहीं मिलने देंगी। इनके अलावा अन्य छोटे क्षेत्रीय दल अपनी सुविधा और अपने सियासी स्वार्थो के मद्देनजर केंद्र और राज्य में अपना सहयोगी चुनते रहते हैं। (लेखक दैनिक जागरण के राजनीतिक संपादक हैं)
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