Tuesday, January 4, 2011

चुनौतियों का चक्रव्यूह


लेखक नए वर्ष में केंद्र सरकार के समक्ष राजनीतिक और प्रशासनिक चुनौतियां बढ़ती देख रहे हैं
बीता वर्ष उन तमाम विरोधाभासों और विडंबनाओं के लिए जाना जाएगा जिनकी मिसाल मिलना शायद मुश्किल हो। बीते वर्ष जहां भारत की अंतरराष्ट्रीय ख्याति बढ़ी और अमेरिका समेत सभी प्रमुख देशों से भारत के रिश्ते प्रगाढ़ हुए वहीं सरकारी अकर्मण्यता, भ्रष्टाचार और बेकाबू महंगाई ने देश के लिए मुसीबतें खड़ी कीं। भारत की बढ़ती आर्थिक शक्ति का दुनिया लोहा मान रही है। एक बड़े मध्यवर्ग से निर्मित विशाल बाजार पूरे विश्व को आकर्षित कर रहा है। भारतीय उद्योग घरेलू बाजार के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय बाजारों पर भी अपनी पकड़ मजबूत कर रहे हैं। आर्थिक दृष्टि से भारत के हालात हर लिहाज से मजबूत हैं और इसी कारण यह माना जा रहा है कि आने वाले समय में भारत आर्थिक प्रगति में चीन को भी पछाड़ सकता है। भारत की इस प्रगति के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था को श्रेय दिया जाता है, लेकिन यही लोकतांत्रिक व्यवस्था घरेलू मोर्चे पर असफल सिद्ध हो रही है और इससे देश की अंतरराष्ट्रीय छवि पर असर पड़ रहा है। जो देश भारत की प्रशंसा कर रहे हैं वही भारत की असफलताओं पर नजर भी गड़ाए हैं। इस नए वर्ष में केंद्र सरकार के सामने अनेक चुनौतियां हंै, लेकिन सबसे बड़ी चुनौती कांग्रेस के सहयोगी दलों-द्रमुक और तृणमूल कांग्रेस की ओर से खड़ी की जा सकती हैं। 2जी घोटाले में द्रमुक को जिस तरह कठघरे में खड़ा किया गया उसके कारण वह कभी भी केंद्र सरकार के लिए परेशानी का सबब बन सकता है। पश्चिम बंगाल में चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आते जा रहे हैं, ममता बनर्जी केंद्र पर दबाव बढ़ाती जा रही हैं। आंध्र प्रदेश में भी कांग्रेस के बागी नेता जगनमोहन पार्टी के लिए चुनौती बन गए हैं और साथ ही तेलंगाना मामला भी नए सिरे से मुसीबत बनकर उभरता दिख रहा है। स्पष्ट है कि नए वर्ष में कांग्रेस के साथ-साथ सरकार की राजनीतिक मुसीबतों का अंत होता नहीं दिख रहा। द्रमुक और तृणमूल कांग्रेस के अलावा कुछ अन्य घटक भी सरकार के लिए लिए परेशानी पैदा कर सकते हैं। इनमें प्रमुख है एनसीपी, जिसके मुखिया शरद पवार केंद्रीय कृषि और खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री हैं। वह महंगाई पर लगाम लगाने में बिलकुल भी समक्ष नहीं। केंद्र सरकार महंगाई पर लगाम लगाने के जितने दावे करती है, शरद पवार उतने ही असफल साबित होते चले जाते हैं। महंगाई बढ़ने के लिए वे जिन कारणों को जिम्मेदार ठहराते हैं वे उनकी बहानेबाजी का पर्याय बन गए हैं। संप्रग के घटक दल अपनी अकर्मण्यता के कारण न केवल सरकार के संचालन में मुसीबत बन रहे हैं, बल्कि प्रधानमंत्री पर भी दबाव बनाते दिख रहे हैं। माना जाता है कि प्रधानमंत्री अपनी छवि के अनुरूप एक स्वच्छ और पारदर्शी सरकार चलाना चाहते हैं, लेकिन गठबंधन राजनीति की मजबूरी के कारण वह घटक दलों की स्वार्थपरता पर अंकुश नहीं लगा पा रहे। आखिर यह तथ्य है कि 2 जी स्पेक्ट्रम मामले में प्रधानमंत्री कार्यालय ए.राजा के खिलाफ मुकदमे की अनुमति देने से बचता रहा। केंद्र सरकार के सामने एक अन्य बड़ी चुनौती बेकाबू होती महंगाई है और ऐसा लगता है कि इस चुनौती से इस वर्ष भी पीछा नहीं छूटने वाला। दो वर्षो से खाद्य पदार्थो के दामों में लगातार वृद्धि हो रही है, लेकिन प्रधानमंत्री चाहकर भी शरद पवार पर लगाम नहीं लगा पा रहे हैं। महंगाई पर रोक लगाने में मिल रही असफलता से प्रधानमंत्री की खुद की छवि भी प्रभावित होती हुई दिख रही है। उन पर विपक्ष का दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है। केंद्र सरकार खुद को कितना भी सक्षम क्यों न बनाए, आम जनता महसूस कर रही है कि यह सरकार अपनी समस्याओं का समाधान करने में समर्थ नहीं। यदि घटक दल उसकी परेशानी का कारण बन गए हैं तो फिर उसे ऐसी कोई पहल करनी पड़ेगी जिससे सत्ता का नेतृत्व करने वाले दल पर अनुचित दबाव न डाला जा सके। यदि कोई ठोस पहल हो तो गठबंधन राजनीति के संदर्भ में कोई नियम-कानून बनाए जा सकते हैं। यदि देश को आर्थिक विकास दर दहाई अंकों में ले जानी है तो इस नए वर्ष में आधारभूत ढांचे के निर्माण के लिए नए तौर-तरीके विकसित करने होंगे। यह आश्चर्यजनक है कि तमाम विफलताओं के बावजूद आधारभूत ढांचे के विकास के लिए कोई सही रूपरेखा नहीं बनाई जा रही है। इसके चलते राष्ट्रीय महत्व की तमाम योजनाएं-परियोजनाएं लंबित हो रही हैं। इन लंबित परियोजनाओं को बढ़ते भ्रष्टाचार से भी जोड़ कर देखा जाना चाहिए। आधारभूत ढांचे की मौजूदा दशा देश को बहुत महंगी पड़ सकती है। कम से कम सरकार को आधारभूत ढांचे के निर्माण में तेजी लाने के लिए तो कोई उपाय खोजना ही चाहिए। इसके साथ ही उसे शहरी क्षेत्रों के नियोजित विकास पर भी ध्यान देना चाहिए। ऐसा करके ही ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों को पलायन के चलते शहरों के चरमराते ढांचे को रोका जा सकता है। इस संदर्भ में योजनाएं तो बहुत हैं, लेकिन उन पर अमल नहीं हो पा रहा है। इसका एक बड़ा कारण राज्य सरकारों की शिथिलता और अदूरदर्शिता है। रही सही कसर केंद्र और राज्यों के बीच के तालमेल के अभाव ने पूरी कर दी है। नियोजित विकास के अभाव में समय और धन की तो बर्बादी होती ही है, शहर भी बेतरतीब ढंग से विकसित होते चले जाते हैं। इन सारी समस्याओं से हमारे नेता और नौकरशाह अवगत हैं, लेकिन वे मौजूदा तंत्र को बदलने की चेष्टा ही नहीं करना चाहते। सरकारी तंत्र की अकर्मण्यता का कारण खोजें तो उसके मूल में भ्रष्टाचार ही नजर आएगा। आज भारत भ्रष्ट देशों की सूची में लगभग शीर्ष पर है। उसकी तुलना कुछ निर्धन अफ्रीकी और अलोकतांत्रिक देशों से होने लगी है। उभरते भारत के लिए यह स्थिति शर्मनाक है। आज यह कहीं अधिक आवश्यक है कि भ्रष्टाचार की जांच के लिए कोई निष्पक्ष और सक्षम संस्था बने। यह काम सीवीसी और सीबीआइ के वश में नहीं। यह काम तो लोकपाल संस्था ही कर सकती है, बशर्ते उसे सक्षम बनाया जाए। राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो देश को एक निष्पक्ष और सक्षम लोकपाल आसानी से मिल सकता है। बेहतर हो कि उन सुझावों पर गौर किया जाए जो लोकपाल के लिए तैयार एक गैर सरकारी विधेयक में दर्ज किए गए हैं। बढ़ते भ्रष्टाचार के लिए आम लोगों का रवैया भी उत्तरदायी है, क्योंकि वे और विशेष रूप से कारपोरेट जगत के लोग कायदे-कानून तोड़ने के लिए उतावले रहते हैं। बेहतर होगा कि आम आदमी भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने की अपनी भूमिका पर विचार करे। भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने की पहल सरकार की ओर से भी होनी चाहिए और आम नागरिकों की ओर से भी। यह सही समय है जब इस धारणा को खारिज करने की पहल होनी चाहिए कि भ्रष्टाचार भारत के राजनीतिक-सामाजिक जीवन का एक अनिवार्य अंग बन गया है। नि:संदेह यह धारणा तब दूर होगी जब भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए कमर कसी जाएगी।


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