कौटिल्य समग्र प्रजाहित को राजा की जवाबदारी मानते थे। कार्ल मार्क्स भी सर्वहारा के प्रति चितिंत रहे। इसलिए उनका अर्थचिंतन किसान और मजदूर के प्रति समर्पित है। गांधी और विनोबा भावे का तो समग्र चिंतन और व्यक्तिगत आचरण समावेशी विकास की आधारशिला रहा है। गोया, इनमें वैभव और आडंबर के दर्शन ही नहीं होते, लेकिन यह कैसी विडंबना है कि आर्थिक घोटालों और बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक आतंकवाद की पृष्ठभूमि में संपन्न हुए कांग्रेस महाधिवेशन में बदली हुई परिस्थितियों को रेखांकित करते हुए खुद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को कांग्रेस शासित केंद्र सरकार से व्यापक भूमि सुधार नीति तैयार करने की मांग करनी पड़ी है। इससे जाहिर होता है कि अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके सहयोगी अर्थवेत्ता नीति-नियंताओं की चिंता कृषि, किसान और मजदूर को गरीबी के संकट से उबारने की बजाय यह रहती है कि गरीबी कम होती नजर आए, जिससे मौजूदा आर्थिक नीतियों के औचित्य को सही ठहराया जा सके। क्योंकि आंकड़ों के खिलाड़ी अर्थशास्ति्रयों को हर समस्या का हल आंकड़ों की चालाक बाजीगरी में ही दिखता है। इस प्रस्ताव में न केवल 116 साल पुराने भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 के संशोधन की पैरवी की गई है, बल्कि भूमि अधिग्रहण और विस्थापन से जुड़े उन तमाम किसान-आदिवासियों की चिंता की गई है, जिनकी जमीन बांध, उद्यान और शहरों का आधुनिक विकास लीलता जा रहा है। उदारवादी आर्थिक विकास के पैरोकारों के लिए भले ही औद्योगिक विकास कथित प्रगति का सूचकांक हो, लेकिन सच्चाई यह है कि राष्ट्रीय आजीविका और सुदृढ़ आर्थिकी का आधार आखिरकार खेती और किसानी ही है। इसलिए भूमि अधिग्रहण कानून 1894 को बदले जाने के परिप्रेक्ष्य में मुख्यधारा के सभी प्रमुख राजनीतिक दल पहले ही सहमति जता जा चुके हैं। अब कांग्रेस ने भी सहमति जताकर किसान संगठनों से कदमताल मिला लिए हैं। निश्चित है कांग्रेस की इस भूमिका से जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय को बल मिलेगा। यही वह आंदोलन है, जो एक नए विधेयक के रूप में राष्ट्रीय विकास, विस्थापन और पुर्नवास नीति (नेशनल डेवलपमेंट, डिस्प्लेसमेंट एंड रिहैबिलिटेशन पालिसी) के प्रारूप को कानूनी रूप देकर अमल में लाने की मांग कर रहा है। 2006 में इस मसौदे को राष्ट्रीय सलाहकार परिषद पास कर चुकी है। इसमें ग्रामीण विकास 2007-08 के वे तमाम प्रगतिशील विचार और प्रस्ताव शामिल हैं, जो संविधान के मौलिक अधिकारों का आदर करते हैं। मसलन, कम से कम विस्थापन, उचित पुनर्वास और संविधान की धारा 243 के तहत विकेंद्रित विकास तथा वनाधिकार कानून 2006 की अवधारणा का ख्याल रखते हैं। भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 और वनाधिकार अधिनियम 1927 के अंतर्गत अब तक ब्रितानी हुकूमत और आजाद भारत में विकास और पर्यावरण संरक्षण के नाम पर सात करोड़ से भी ज्यादा देशवासियों को अपने मूल आवास स्थलों से विस्थापित कर दिया गया है। इनमें ज्यादातरों की न तो वाजिब पुनर्वास की व्यवस्था हो पाई और न ही उन्हें उचित मुआवजा मिला। इसलिए कांग्रेस जो भूमि सुधार प्रस्ताव महाधिवेशन में लाई है, उसमें आर्थिक स्वतंत्रता की वकालत करते हुए कहा गया है कि 100 करोड़ से भी ज्यादा लोगों के लिए यह आर्थिक आजादी तभी वास्तविक आजादी के रूप में तब्दील हो पाएगी, जब आर्थिक प्रगति और खुशहाली को सामाजिक और आर्थिक न्याय से स्थायी रूप से जोड़ा जाए। प्रस्ताव में उल्लेख है कि जमीन के इस्तेमाल और आवंटन संबंधी नीतियों का उपयोग पक्षपातपूर्ण और अपारदर्शी रहा है। इन कारणों से आदिवासियों को न तो खनिजों के दोहन और उद्योगों की स्थापना में उचित क्षतिपूर्ति मिल पाई और न ही उन्हें आजीविका के भरोसेमंद वैकल्पिक साधन मिल पाए। लिहाजा, आदिवासियों को बगैर वैकल्पिक साधन मुहैया कराए विस्थापित किया जाना अनुचित है। इस नजरिए से केंद्र सरकार का कैबिनेट में सितंबर 2010 में लिया गया यह फैसला महत्वपूर्ण था कि विस्थापित होने वाले परिवारों को परियोजनाओं के लाभ का 26 प्रतिशत हिस्सा ताजिंदगी दिया जाए, लेकिन इस फैसले को विधेयक लाकर संसद में जब तक कानूनी रूप नहीं दिया जाएगा, इस पर अमल नमुमकिन है। आजादी के बाद यह पहला अवसर है कि किसी सत्तारूढ़ पार्टी ने भूमि सुधार की जरूरत को रेखांकित करते हुए इस मुगालते को तोड़ा है कि आधुनिक विकास के समावेशी न होने के कारण किसान, आदिवासी और दलित जैसे बड़े तबकों के साथ न केवल नाइंसाफी हो रही है, बल्कि दो हिस्सों में बंटते जा रहे भारत की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है। हालांकि कांग्रेस इस हकीकत को आसानी से मंजूर नहीं कर रही है। इसकी पृष्ठभूमि में अलगाववादियों की जोर पकड़ती जा रही ताकतें, नक्सली हिंसा, जमीन और अनाज के कई घोटाले तो हंै ही, भूमि अधिग्रहण को लेकर किसानों का सड़क पर उतरकर प्रदर्शन और आंदोलनों को अंजाम देना भी है। ये ऐसी ठोस वजह हैं, जिनके चलते कांग्रेस ही नहीं, अन्य राजनीतिक दलों का रुझान भी खेती-किसानी से जुड़े मुद्दों की ओर बढ़ रहा है। कांग्रेस ने अपने आर्थिक प्रस्ताव में भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 और वनाधिकार अधिनियम 1927 को संशोधित करने का हवाला दिया हुआ है, जो लंबे समय से संशोधित होकर पारित होने के लिए केंद्र सरकार के पास ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ है। संसदीय समिति ने भी इस विधेयक के मौजूदा प्रारूप को खारिज कर दिया है। समिति ने किसान हित से जुड़े कुछ वैकल्पिक सुझाव दिए हैं, लेकिन सरकार बड़ी कंपनियों और भूमाफियाओं के दबाव में बस्ते में बंद पड़े जनविरोधी विधेयक को यथावत रूप में पारित कराने पर आमादा है। प्रधानमंत्री तो इसी शीतकालीन सत्र में पारित कराने पर तुले हुए थे, लेकिन संयोग से यह सत्र घोटालों के हल्ले में पूरे समय ठप ही रहा। हालांकि कांग्रेस का एक गुट राहुल गांधी को आदिवासियों का हितचिंतक जताते हुए उनकी मंशा के अनुरूप इसे किसान व आदिवासी हितकारी बनाने के बाद ही पटल पर रखना चाहता है। प्रस्तावित भूमि सुधार विधेयक इतना विवादास्पद है कि ब्रह्मदेव शर्मा जैसे वंचित तबके के हितचिंतक इसे मौजूदा प्रारूप में पारित होने पर गांव और किसान खत्म होने की चेतावनी दे रहे हैं। इस विधेयक में प्रावधान है कि सरकार किसी परियोजना पर निजी समूहों या कंपनियों को केवल 30 प्रतिशत जमीन देगी। शेष भूमि की व्यवस्था निजी समूहों को करनी होगी। इससे जाहिर होता है कि आखिरकार सरकार की मंशा यही है कि ऐसी नीति वजूद में आए, जिससे जमीन पूंजीपतियों के हाथ में आ जाए, न कि उसकी बनी रहे, जिसकी पीढि़यां जमीन जोतकर आजीविका चलाती रही हैं। धनी-मानी ही जब खेती करेंगे तो किसान और मजदूर किसके हवाले रह जाएंगे? अब तक किसी भी सरकार द्वारा ऐसा कोई विधेयक वजूद में नहीं लाया गया, जिसके तहत उद्योगपतियों के बंगलों के परिसर अधिग्रहण कर सरकार भूमि व आवासहीन लोगों को आवंटित कर दे। हकीकत तो यह है कि अभी तक देश के किसी भी राज्य में भूमि सुधार और आर्थिक व सामाजिक उपायों के जरिए व्याप्त गरीबी दूर करने के कोई प्रयास हुए ही नहीं? प्रशासनिक अमला एक मर्तबा गरीबों के हक छीनकर अमीरों को देने की वकालत तो करता है, लेकिन अमीरों की नाजायज कमाई से वजूद में आई जमीन-जायदाद को गरीबों के अधिकार के दायरे में लाया गया हो, ऐसी मिसाल देखने में नहीं आई? हां, बिहार से जरूर अब ऐसी खबरें आ रही हैं कि भ्रष्ट आचरण से कमाई अचल संपत्ति को सरकार अपने कब्जे में लेकर विद्यालय एवं छात्रावास खोलने का सिलसिला शुरू करने जा रही है। भूमि सुधार न होना भी वंचित समाजों में अशिक्षा, कुरीति, कुपोषण और महामारियों के कारण बन जाते हैं। बालश्रम और दलितों पर अत्याचार की जड़ में भी किसी हद तक भूमि सुधार न होना है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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