Saturday, January 8, 2011

अलगाववादियों के मुखिया का कबूलनामा

मीरवाइज मौलवी मोहम्मद फारूक, अब्दुल गनी लोन और जेकेएलएफ के अब्दुल अहद वानी समेत कई अलगाववादी नेताओं को सेना या पुलिस ने नहीं, बल्कि उनके अंदर के लोगों ने ही मरवाया है। हुर्रियत कांफ्रेस के नरमपंथी धड़े के नेता अब्दुल गनी बट्ट के इस बयान ने कश्मीर पर सियासत का खेल खेलने वालों के चेहरे से एक बार फिर नकाब हटा दिया है। पिछले दो दशकों में आतंकवादियों की हिंसा, कट्टरवाद और पाकिस्तान की नीतियों पर सवाल खड़े करने वाले उदारवादी नेताओं को मौत के घाट उतार दिया गया। इन हत्याओं का दोष सेना या पुलिस पर मढ़कर कट्टरपंथी और अलगाववादी ताकतें अपने नापाक इरादों में काफी हद तक कामयाब भी रही हैं। इन अलगाववादी ताकतों ने कभी अवाम की भावनाओं को भड़काकर तो कभी पैसे देकर पत्थरबाजी कराकर कश्मीर में अमन बहाली की हर कोशिशों में रुकावट डालने का काम किया है। सबसे हैरानी की बात यह है कि पीडीपी जैसे तमाम राजनीतिक दल सुलगते कश्मीर पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते नजर आते हैं और अरुंधति राय जैसे लोग यह कहने की हिमाकत करते हैं कि कश्मीर कभी भारत का अभिन्न अंग नहीं रहा। उमर अब्दुल्ला हों या महबूबा मुफ्ती, ऐसे तमाम लोग हैं जो कभी घाटी की स्वायत्तता तो कभी ज्यादा अधिकारों की बात करके अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने में जुटे हैं। खुद की नाकामियों की वजह से जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को जब अपनी राजनीतिक जमीन खिसकती दिखाई देती है तो वह जम्मू-कश्मीर के विलय को अपूर्ण बता डालते हैं। केंद्र सरकार की तरफ से नियुक्त किए वार्ताकार बातचीत के लिए कट्टरपंथी ताकतों के घर का दरवाजा खटखटाते हैं और कश्मीर समस्या के समाधान के लिए पाकिस्तान को शामिल किए जाने की बात करते हैं। हुर्रियत कांफ्रेंस के नरमपंथी धड़े के नेता अब्दुल गनी बट्ट के बयान के बाद अब अरुंधति राय जैसे लोग खामोश क्यों हैं? सेना या पुलिस की कार्रवाई पर उंगली उठाने वाले तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ता बट्ट साहब के खुलासे के बाद अब अपने मुंह पर ताले क्यों डाले हुए हैं? पिछले दो दशक में यह पहला मौका है, जब किसी अलगाववादी नेता ने यह माना है कि उनके बड़े नेताओं को सेना या पुलिस ने नहीं, बल्कि उनके अंदर के लोगों ने ही मरवाया है। अब्दुल गनी लोन के साथी रहे बट्ट ने कट्टरपंथी गुट के प्रमुख सैयद अली शाह गिलानी को आत्मनिरीक्षण की सलाह भी दे डाली है। उदारवादी अब्दुल गनी लोन की हत्या 21 मई 2002 को कर दी गई थी। लोन एकमात्र ऐसे नेता थे, जिन्होंने पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में जाकर वहां धार्मिक कट्टरपंथियों की जमकर आलोचना की थी। कुल मिलाकर कश्मीर पर सियासत के इस खेल में पड़ोसी मुल्क अपने नापाक इरादों के जरिए घाटी में अशांति फैला रहा है और हम कोरी बयानबाजी और वार्ताकारों की जमात जुटाकर कश्मीर समस्या का हल निकालने में जुटे हैं। हिंदुस्तान की जनता के मन में यह सवाल बार-बार कौंधता है कि आजादी के इतने बरसों के बाद भी कश्मीर समस्या को सुलझाने के लिए कोई ठोस पहल क्यों नहीं की गई? घाटी के बिगड़ते हालात को काबू में करने के लिए किसी भी केंद्र सरकार या राज्य सरकार ने दमदारी के साथ अब तक कोई कदम क्यों नहीं उठाया? केंद्र सरकार हो या फिर जम्मू-कश्मीर सरकार, कश्मीर समस्या के समाधान के लिए हमारा रवैया शुरू से ही ढुलमुल रहा है। अब तक हम तुष्टिकरण की राजनीति करते रहे और घाटी में अलगाववाद की जड़ें गहरी होती चली गई। 1990 से लेकर अब तक घाटी में सीमा पार आतंकवाद बेकसूर लोगों की जानें लेता रहा। सेना के जवान और अफसर शहीद होते रहे, लेकिन हमारी सरकारें कुछ ठोस कदम उठाने की बजाय कश्मीर की जनता को अलग-अलग मात्रा में स्वायत्तता दिलाने का राग अलापती रहीं। स्वायत्तता के नाम पर जम्मू-कश्मीर में राजनीति का खेल बरसों से खेला जा रहा है, लेकिन संविधान की धारा 370 (जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा) को लेकर पुनर्विचार करने की जरूरत केंद्र सरकार ने कभी भी नहीं उठाई। 7 अगस्त 1952 को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की उस बात को राजनीतिक नफे-नुकसान से ऊपर उठकर क्यों नहीं देखा गया, जिसमें उन्होंने कहा था कि धारा 370 भारत को विखंडित कर देगी और यह उन लोगों को मजबूत कर सकती है, जो यह भरोसा रखते हैं कि भारत एक देश नहीं, बल्कि कई भिन्न राष्ट्रों का समूह है। शेख अब्दुल्ला की राज्य के लिए अलग झंडे की जिद पर मुखर्जी ने साफ कहा था कि आप निष्ठा को नहीं बांट सकते और यह कोई आधा-आधा वाला मामला नहीं है। 1952-53 के पहले की स्थिति को बहाल करने की मांग करने वालों को यह समझना होगा कि केंद्र सरकार राज्य की पंचवर्षीय योजना के लिए सारा धन मुहैया कराती है। इसके साथ ही गैर योजना खर्च के एक बड़े हिस्से को भी केंद्र वहन करता है। इतना ही नहीं, केंद्र की तरफ से जम्मू-कश्मीर को मिलने वाली धन राशि में 90 फीसदी सहायता के रूप में होती है और बाकी 10 फीसदी कर्ज के रूप में। जबकि दूसरे राज्यों में यह राशि 70 फीसदी कर्ज के तौर पर होती है और 30 फीसदी सहायता के रूप में होती है। कश्मीर को लेकर आज हमें तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू या फिर इतिहास की गलतियों का जिक्र करने की जरूरत नहीं, बल्कि हमें यह देखना होगा कि मौजूदा हालात में हम किस तरह इस समस्या का स्थायी समाधान ढूंढ़ सकते हैं? इसमें कोई शक नहीं कि कश्मीर घाटी में अमन-चैन की बहाली के लिए अर्थव्यवस्था में सुधार बेहद जरूरी है। हर आदमी के हाथ में रोजगार होगा तो पत्थर उठाकर फेंकने वाले हाथ भी अलगाववादियों को कम ही मिल सकेंगे, लेकिन इन सबके बावजूद कश्मीर में अलगाववाद की फैल चुकी जड़ों को किसी बड़े आर्थिक पैकेज भर से नहीं उखाड़ा जा सकता। यह बात केंद्र और राज्य सरकार भी जानती है कि घाटी से सेना की तादाद कम कर कश्मीर समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता। अलगाववादी ताकतों के घर सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल लेकर पहुंचने से हम विश्व बिरादरी को एक सकारात्मक संदेश तो दे सकते हैं, लेकिन अलगाववाद के नाम पर अपनी रोटी सेंकने वालों को मुख्यधारा से नहीं जोड़ सकते। बंकरों को कम कर या सेना की तादाद कम कर घाटी में हालात नहीं सुधारे जा सकते हैं। आज जरूरत इस बात की है कि केंद्र सरकार राज्य में आर्थिक पैकेज के साथ-साथ घाटी में सेना के मनोबल को भी बरकरार रखे। इसके साथ ही हाशिए पर रहकर अपनी जिंदगी गुजर-बसर कर रहे कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास भी इस समस्या के स्थायी समाधान के लिए उतना ही जरूरी है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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