आखिरकार जम्मू-कश्मीर की उमर अब्दुल्ला सरकार गणतंत्र दिवस पर श्रीनगर के लाल चौक पर भाजपा को तिरंगा फहराने से रोकने में सफल रही, लेकिन यह कोई ऐसा कार्य नहीं जिस पर वह गर्व कर सके। यह एक जिद थी जो वह येन-केन-प्रकारेण पूरी करने में सफल रही। उसके लिए यह बताना मुश्किल होगा कि इससे उसे हासिल क्या हुआ? नि:संदेह इससे अलगाववादी मुख्यधारा में आने से रहे। सच तो यह है कि उनका दुस्साहस और बढ़ सकता है। इस मामले में जम्मू-कश्मीर सरकार के साथ खुलकर खड़ी होने वाली केंद्र सरकार के पास भी इस सवाल का जवाब शायद ही हो कि लाल चौक को ऐसे स्थल के रूप में उभारने से किसे लाभ मिला जहां भारत का राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराया जा सकता? इसमें संदेह नहीं कि लाल चौक पर तिरंगा फहराकर भाजपा अपने राजनीतिक हित साधना चाह रही थी, लेकिन यदि वह अपने इस उद्देश्य में सफल हो जाती तो क्या इससे कोई राष्ट्रीय क्षति होने वाली थी? भाजपा के इस आयोजन से यदि किसी को एतराज था तो वे थे कश्मीर घाटी के चंद अलगाववादी। यह विचित्र है कि उमर अब्दुल्ला ने न केवल अलगाववादियों की आपत्ति को आवश्यकता से अधिक महत्व दिया, बल्कि उनके सुर में सुर भी मिलाने लगे। यह सही है कि उनकी सरकार ने भाजपा के आयोजन के साथ-साथ अलगाववादियों के लाल चौक चलो अभियान को भी नाकाम कर दिया, लेकिन आखिर इन दोनों कार्यो की तुलना कैसे की जा सकती है? क्या जो काम अलगाववादियों को पसंद नहीं वे राजनीतिक दलों के लिए भी निषेध हैं? भाजपा का आयोजन विफल होने से यदि कोई अपने मकसद में कामयाब हुआ तो वह जम्मू-कश्मीर अथवा केंद्र सरकार नहीं, बल्कि अलगाववादी हैं। स्पष्ट है कि उमर अब्दुल्ला ने जाने-अनजाने खुद को एक ऐसे राजनेता के रूप में उभारा जिसे अलगाववादियों की भावनाओं की अधिक फिक्र है। उन्होंने भाजपा को यह कहने-प्रचारित करने का अवसर दिया कि अलगाववादियों के साथ उमर अब्दुल्ला की हमदर्दी इस हद तक है कि वह तिरंगा फहराने से भी रोक सकते हैं। भाजपा उन्हें अलगाववादियों का समर्थक ठहराए या नहीं, इतिहास में यह दर्ज होना शुभ नहीं कि उनकी सरकार ने अलगाववादियों के कारण भाजपा को लाल चौक पर तिरंगा नहीं फहराने दिया। यह निराशाजनक है कि केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर सरकार को यह समझाने की जरूरत नहीं समझी कि लाल चौक पर तिरंगा फहराने के भाजपा के आयोजन से असहमत होना अलग बात है और उस आयोजन को विफल करने में जुट जाना अलग बात। इस पर बहस हो सकती है कि राष्ट्रीय प्रतीकों का राजनीतिक इस्तेमाल किया जाना चाहिए या नहीं, लेकिन क्या कोई ऐसा राजनीतिक दल है जो किसी न किसी स्तर पर ऐसे प्रतीकों के जरिये राजनीति न करता हो? भाजपा की तिरंगा यात्रा से असहमत होने के पक्ष में तरह-तरह के तर्क दिए जा सकते हैं, लेकिन इस आधार पर उसकी यात्रा रोकना हास्यास्पद है कि लाल चौक में तिरंगा फहराने से घाटी की शांति में खलल पड़ता। क्या उसे शांति कहा जा सकता है जो राष्ट्रीय ध्वज फहराने से भंग हो जाए? इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि क्या अब कश्मीर समस्या का समाधान अलगाववादियों का इसी तरह तुष्टीकरण करके किया जाएगा? ये वे सवाल हैं जिनके जवाब सामने आने ही चाहिए।
Sunday, January 30, 2011
लाल चौक से उभरे सवाल
आखिरकार जम्मू-कश्मीर की उमर अब्दुल्ला सरकार गणतंत्र दिवस पर श्रीनगर के लाल चौक पर भाजपा को तिरंगा फहराने से रोकने में सफल रही, लेकिन यह कोई ऐसा कार्य नहीं जिस पर वह गर्व कर सके। यह एक जिद थी जो वह येन-केन-प्रकारेण पूरी करने में सफल रही। उसके लिए यह बताना मुश्किल होगा कि इससे उसे हासिल क्या हुआ? नि:संदेह इससे अलगाववादी मुख्यधारा में आने से रहे। सच तो यह है कि उनका दुस्साहस और बढ़ सकता है। इस मामले में जम्मू-कश्मीर सरकार के साथ खुलकर खड़ी होने वाली केंद्र सरकार के पास भी इस सवाल का जवाब शायद ही हो कि लाल चौक को ऐसे स्थल के रूप में उभारने से किसे लाभ मिला जहां भारत का राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराया जा सकता? इसमें संदेह नहीं कि लाल चौक पर तिरंगा फहराकर भाजपा अपने राजनीतिक हित साधना चाह रही थी, लेकिन यदि वह अपने इस उद्देश्य में सफल हो जाती तो क्या इससे कोई राष्ट्रीय क्षति होने वाली थी? भाजपा के इस आयोजन से यदि किसी को एतराज था तो वे थे कश्मीर घाटी के चंद अलगाववादी। यह विचित्र है कि उमर अब्दुल्ला ने न केवल अलगाववादियों की आपत्ति को आवश्यकता से अधिक महत्व दिया, बल्कि उनके सुर में सुर भी मिलाने लगे। यह सही है कि उनकी सरकार ने भाजपा के आयोजन के साथ-साथ अलगाववादियों के लाल चौक चलो अभियान को भी नाकाम कर दिया, लेकिन आखिर इन दोनों कार्यो की तुलना कैसे की जा सकती है? क्या जो काम अलगाववादियों को पसंद नहीं वे राजनीतिक दलों के लिए भी निषेध हैं? भाजपा का आयोजन विफल होने से यदि कोई अपने मकसद में कामयाब हुआ तो वह जम्मू-कश्मीर अथवा केंद्र सरकार नहीं, बल्कि अलगाववादी हैं। स्पष्ट है कि उमर अब्दुल्ला ने जाने-अनजाने खुद को एक ऐसे राजनेता के रूप में उभारा जिसे अलगाववादियों की भावनाओं की अधिक फिक्र है। उन्होंने भाजपा को यह कहने-प्रचारित करने का अवसर दिया कि अलगाववादियों के साथ उमर अब्दुल्ला की हमदर्दी इस हद तक है कि वह तिरंगा फहराने से भी रोक सकते हैं। भाजपा उन्हें अलगाववादियों का समर्थक ठहराए या नहीं, इतिहास में यह दर्ज होना शुभ नहीं कि उनकी सरकार ने अलगाववादियों के कारण भाजपा को लाल चौक पर तिरंगा नहीं फहराने दिया। यह निराशाजनक है कि केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर सरकार को यह समझाने की जरूरत नहीं समझी कि लाल चौक पर तिरंगा फहराने के भाजपा के आयोजन से असहमत होना अलग बात है और उस आयोजन को विफल करने में जुट जाना अलग बात। इस पर बहस हो सकती है कि राष्ट्रीय प्रतीकों का राजनीतिक इस्तेमाल किया जाना चाहिए या नहीं, लेकिन क्या कोई ऐसा राजनीतिक दल है जो किसी न किसी स्तर पर ऐसे प्रतीकों के जरिये राजनीति न करता हो? भाजपा की तिरंगा यात्रा से असहमत होने के पक्ष में तरह-तरह के तर्क दिए जा सकते हैं, लेकिन इस आधार पर उसकी यात्रा रोकना हास्यास्पद है कि लाल चौक में तिरंगा फहराने से घाटी की शांति में खलल पड़ता। क्या उसे शांति कहा जा सकता है जो राष्ट्रीय ध्वज फहराने से भंग हो जाए? इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि क्या अब कश्मीर समस्या का समाधान अलगाववादियों का इसी तरह तुष्टीकरण करके किया जाएगा? ये वे सवाल हैं जिनके जवाब सामने आने ही चाहिए।
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