लेखक गुर्जर आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में आरक्षण की राजनीति के बदलते परिदृश्य पर निगाह डाल रहे हैं....
आरक्षण आज की राजनीति का एक अजीब हथियार बन गया है। राजस्थान का गुर्जर समुदाय अपने आपको मीणा समुदाय की तरह जनजाति घोषित करवाने के लिए आंदोलन चला रहा हैं। विश्वनाथ प्रताप सिंह के दौर में पिछड़ी जातियों को नौकरियों में आरक्षण दे दिया गया था, लेकिन ओबीसी के जिस वर्ग को उसमें शामिल किया गया था उसमें कुछ जातियां ऐसी थीं जो पहले से ही बेहतर आर्थिक-सामाजिक स्थिति में थीं। जाहिर है ओबीसी में जो कमजोर जातियां थीं, वे फिर सामाजिक बराबरी की रेस में पिछड़ती नजर आ रही हैं। बिहार में कई वषरें के कुप्रबंध के बाद जब नीतीश कुमार सत्ता में आए तो उन्होंने पिछड़े वगरें के आरक्षण के तरीके में थोड़ा परिवर्तन सुझाया और उसके नतीजे साफ नजर आए। सामाजिक परिवर्तन की राजनीति में नीतीश कुमार के इस प्रयोग के बाद सामाजिक न्याय के विमर्श में नया अध्याय शुरू हो गया है। अपने देश में सकारात्मक हस्तक्षेप के पुरोधा डॉ. भीमराव अंबेडकर और डॉ. राममनोहर लोहिया माने जाते हैं। इन नेताओं की सोच को कांग्रेस ने भी अपनाया और दलितों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की संविधान में व्यवस्था की। संविधान लागू होने के 60 साल बाद सकारात्मक हस्तक्षेप के राजनीतिक दर्शन में अब कुछ सुधार की जरूरत महसूस की जा रही है। आज के नेताओं में किसी में वह ताकत नहीं है कि वह आजादी की लड़ाई में शामिल नेताओं की तरह ऐसे तरीके भी अपना सके जो चुनावी गणित के हिसाब से अलोकप्रिय हों, लेकिन इतना तय है कि चुनावी लाभ-हानि को ध्यान में रख कर ही सही, सामाजिक बराबरी के बारे में चर्चा हो रही है। पिछड़े वगरें में ऊपरी पायदान पर मौजूद जाति के एक सदस्य नीतीश कुमार के लिए इन नीतियों को लागू कर पाना अपेक्षाकृत आसान था। नीतीश कुमार की इस राजनीतिक सोच को रोकने वाला कोई नहीं था, क्योंकि वह अपनी पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं। अपनी जिम्मेदारी पर नीतीश ने फैसला किया और लागू किया। नीतीश ने दलित राजनीति को भी आरक्षण की कसौटी पर फिर से कसा और दलित जातियों में जो उच्च वर्ग विकसित हो गया है, उसकी पहचान की। दलितों में उच्च वर्ग परंपरागत रूप से मायावती को नेता मानने लगा है। बिहार में रामविलास पासवान भी इस वर्ग के वोट के खासे गंभीर दावेदार माने जाते हैं। शायद नीतीश कुमार को अंदाज था कि इन दोनों नेताओं को अपेक्षाकृत संपन्न दलितों में जो मुकाम हासिल है, उसे कमजोर कर पाना बहुत ही मुश्किल है। इसी सोच का नतीजा है कि उन्होंने दलित वोट बैंक को तोड़ दिया और महादलित नाम की एक नई राजनीतिक जमात की पहचान करवाने में सहयोग दिया। उत्तर प्रदेश में भी यह प्रयोग किया गया था। यहां दलितों की राजनीति का व्याकरण अलग है। उत्तर प्रदेश में कांशीराम ने शुरुआती काम किया था, जिसकी वजह से उनकी पार्टी आज बहुत मजबूत स्थिति में है। मायावती को आज उत्तर प्रदेश के दलितों का सर्व स्वीकार्य नेता माना जाता है, लेकिन शुरू से ऐसा नहीं था। भाजपा की ओर से जब राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री बनाए गए तो उन्होंने राज्य की भावी राजनीति की इस दस्तक को पहचान लिया था। पिछड़ों की राजनीति के मामले में भी उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की ताकत बहुत ज्यादा थी। पिछड़े और दलित वोट बैंक को छिन्न-भिन्न करके अपनी पार्टी की स्थिति को मजबूत बनाने के लिए राजनाथ सिंह ने वही करने की कोशिश की, जिसे बाद में बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार ने अपनाया। नीतीश अपनी पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं इसलिए वह अपनी योजना को लागू करने में सफल हुए, लेकिन राजनाथ सिंह की किस्मत वैसी नहीं थी। उनकी टांग खींचने के लिए तो उत्तर प्रदेश में ही बहुत लोग मौजूद थे और उन लोगों को दिल्ली के नेताओं का आशीर्वाद भी मिलता रहता था। बहरहाल, अब भाजपा के नेताओं की समझ में आ गया है कि राजनाथ सिंह की योजना को खटाई में डालना राजनीतिक गलती थी। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में पीस पार्टी से भी पिछड़ जाने के बाद भाजपा को राजनाथ सिंह फार्मूला याद आ रहा है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में राजनाथ सिंह ने सामाजिक न्याय समिति बनाई थी, जिसने अति पिछड़ों के लिए आरक्षण के अंदर आरक्षण की सिफारिश की थी। उन्होंने कहा था कि पिछड़ों के लिए तय आरक्षण में कुछ जातियां ही आरक्षण का पूरा लाभ उठा लेती हैं, जबकि अन्य पिछड़ी जातियां वंचित रह जाती हैं। समिति की सिफारिशें लागू हो पातीं उससे पहले ही आम चुनाव हो गए और भाजपा सत्ता में लौटी ही नहीं। इसके बाद भाजपा ने भी समिति की रिपोर्ट को भुला दिया। उत्तर प्रदेश में लगातार कम होते जनाधार से चिंतित पार्टी को अब इस समिति की रिपोर्ट की फिर से याद आई। प्रदेश अध्यक्ष सूर्यप्रताप शाही ने भी इस बात पर जोर दिया। अब लगता है कि भाजपा में भी सामाजिक न्याय और आरक्षण के मामले पर गंभीर आंतरिक चिंतन चल रहा है। जाहिर है, आरक्षण से जुड़े मुद्दों की राजनीति करवट ले रही है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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