Sunday, January 30, 2011

जिम्मेदारी से विमुख


लेखक बेलगाम महंगाई और भ्रष्टाचार के लिए लाचार-कमजोर प्रधानमंत्री को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं...
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार अधिकारयुक्त किंतु दायित्वमुक्त और अधिकारमुक्त पर दायित्वयुक्त का सटीक उदाहरण पेश कर रही है। संप्रग की अध्यक्ष सोनिया गांधी संपूर्ण अधिकारयुक्त हैं, लेकिन उनकी कोई जवाबदेही नहीं है। जिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जवाबदेही है उन्हें एक तिनका भी इधर से उधर करने का अधिकार नहीं है। इसलिए जहां आजकल सोनिया गांधी समस्त परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार होते हुए भी उनसे पूरी तरह मुक्त हैं, वहीं मनमोहन सिंह आदेश पालन की जिम्मेदारी उठाते हुए अपनी स्वच्छ और ईमानदार छवि से बाहर इसलिए निकलते जा रहे हैं क्योंकि उनके पास कोई अधिकार नहीं है। उनके वरिष्ठ मंत्रियों में चल रही तनातनी से अब परदा उठ चुका है। कृषि और खाद्य मंत्री शरद पवार का यह बयान की वह खाद्यान्न के लिए जिम्मेदार हैं मूल्य के लिए नहीं, सीधे-सीधे वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी पर हमला है। महंगाई रोकने के लिए मनमोहन सिंह द्वारा बुलाई गई बैठक के बीच से शरद पवार और प्रणब मुखर्जी का उठकर चले जाना और फिर महंगाई के मुद्दे पर आत्मसमर्पण जैसी स्थिति में मंत्रियों का हाथ उठा देना इस बात का सबूत है कि सरकार के पास आम आदमी की समस्या पर विचार करने के लिए न तो समय है और न ही सोच। यदि ऐसा न होता तो तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा के इस बयान के दो दिन बाद ही पेट्रोल के मूल्यों में वृद्धि न हो जाती कि अब दाम नहीं बढ़ेंगे। पिछले तीन महीनों के भीतर चौथी बार पेट्रोल के दाम बढ़े हैं। भले ही प्याज आम आदमियों को रुला रही हो, लेकिन एक महीने पहले 15 रुपये किलो बिकने वाली प्याज को 35 रुपये किलो उपलब्ध कराकर सरकार उसके सस्ते होने का ढिंढोरा अवश्य पीट रही है। प्याज की फसल खराब होने का हवाला देकर उसके महंगे होने की बात की जा रही है लेकिन सरकार के पास इसका कोई जवाब नहीं है कि फसल खराब होने और प्याज के दाम बढ़ने तक इसका निर्यात क्यों किया जाता रहा। खाद्यान्न और जीवन की रोजमर्रा की जरूरतों के लिए उपभोक्ता वस्तुओं के दाम बढ़ने के संबंध में सरकार अजीबोगरीब तर्क पेश कर रही है। इसके लिए कभी प्रधानमंत्री गरीबों की आय बढ़ने और साथ ही उनके द्वारा अधिक खाने को जिम्मेदार ठहरा देते हैं तो कभी यह कहकर समस्या से मुंह चुराने लगते हैं कि वह कोई ज्योतिषी नहीं हैं, जो यह बता सकें कि महंगाई कब कम होगी। महंगाई पर अंकुश लगाने में राज्यों की जिम्मेदारी भी कम नहीं है, लेकिन मूल्य बढ़ने का असली कारण केंद्रीय सरकार की नीतियां ही होती है। जो सामान थोक-व्यापारी उत्पादक से 10 रुपये किलो खरीदता है, वह उपभोक्ता के पास पहुंचते-पहुंचते 50 रुपये किलो कैसे हो जाता है। जब शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व में ही नैतिक मूल्यों का Oास हो रहा हो तो व्यापारियों से इसकी अपेक्षा करना बेमानी है। यदि प्रधानमंत्री अपने सहयोगियों के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पा रहे हैं तो उनसे यह उम्मीद करना कि संसद के गतिरोध को समाप्त करने के लिए वह विरोधी दलों से सामंजस्य बैठा पाएंगे, कल्पना से अधिक कुछ नहीं। इस समय भारत सरकार के दो स्वरूप उभरकर सामने आ रहे हैं। एक स्वरूप तो महंगाई के रूप में है और दूसरा भ्रष्टाचार के रूप में। राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली के इस बयान की सत्यता से इनकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान सरकार देश की सबसे भ्रष्ट सरकार है। यह भी सही है कि राजनेताओं और नौकरशाही के भ्रष्टाचार के मामले जिस तरह प्याज की परत के समान खुलते जा रहे हैं, उससे तो ईमानदार लोगों की छवि भी प्रभावित हो रही है। यदि महंगाई के बारे में जिम्मेदारी से भागने के लिए केंद्र के वरिष्ठ मंत्री परस्पर विरोधी बयान दे रहे हैं तो नीतियों के संबंध में अस्पष्टता कम नहीं है। संप्रग की नियंत्रक संस्था राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने सरकार को दो परामर्श दिए थे। एक यह कि मनरेगा की मजदूरी को न्यूनतम वेतनमान के साथ जोड़ दिया जाए और दूसरा खाद्यान्न सुरक्षा गारंटी कानून बनाया जाए, लेकिन सरकार ने दोनों को अस्वीकार कर दिया। चर्चा है कि मनमोहन सिंह पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश तथा कुछ अन्य लोगों से मुक्ति पाना चाहते हैं, लेकिन ये नाम ऐसे हैं जिनकी गिनती सोनिया गांधी की किचेन कैबिनेट के सदस्य के रूप में होती है। इसलिए प्रधानमंत्री इन्हें हटाने में और अपनी पसंद के कुछ लोगों को लाने में सफल हो सकेंगे, यह कहना कठिन है। मानवाधिकार समिति के अध्यक्ष और मुख्य सतर्कता आयुक्त को नियुक्त करने में तथा भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद उन्हें हटाने में जिस अक्षमता का उन्होंने प्रदर्शन किया है, उससे साफ जाहिर है कि यदि उन्हें पद पर बने रहना है तो आदेश पालक की भूमिका ही निभाते रहना होगा। वैसे सत्ता के नजदीक रहने वाले कुछ कांग्रेसियों ने यह प्रयास अवश्य शुरू कर दिए हैं कि राहुल गांधी को उप प्रधानमंत्री बनाकर मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया जाए। लेकिन सवाल यह है कि उस परिस्थिति में आजकल विक्षुब्ध नजर आ रहे लोकसभा में सदन के नेता और वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी क्या करेंगे। (लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं)


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