Saturday, January 8, 2011

राजनीति में उलझा आरक्षण मुद्दा

राजस्थान में गुर्जरों को सरकारी नौकरियों में पांच प्रतिशत आरक्षण देने को लेकर अभी असमंजस बरकरार है। यह सही है कि आरक्षण का दायरा एक नीति और नियम-कानूनों के तहत ही बढ़ाया जा सकता है, लेकिन जब बार-बार सत्ता से जुड़े लोग और विभिन्न राजनीतिक पार्टियां विभिन्न तबकों को आश्वासन देती हैं और आंदोलनकारियों के हाथ कुछ नहीं आता, तो वे खुद को ठगा महसूस करते हैं। सवाल यह है कि राजनेताओं द्वारा बार-बार आरक्षण की बात क्यों उठाई जाती है। क्या पिछड़े लोगों को आगे लाने के लिए आरक्षण ही एकमात्र उपाय रह गया है? क्या पिछड़े लोगों के उत्थान और विकास के लिए कोई ऐसा विकल्प नहीं खोजा जा सकता, जो समाज के प्रत्येक वर्ग को स्वीकार्य हो और जिससे कम योग्य उम्मीदवारों के बरक्स योग्य उम्मीदवारों की प्रतिष्ठा को ठेस न पहुंचे? अगर किसी ऐसे विकल्प के बारे में गंभीरता के साथ सोचा जाएगा, तो आरक्षण के नाम पर होनेवाले आंदोलनों से मुक्ति भी मिलेगी और आम जनता की परेशानियां भी खत्म होंगी।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज कोई भी राजनीतिक दल आरक्षण समाप्त करने के पक्ष में नहीं है, बल्कि एक कदम आगे जाकर आरक्षण का दायरा बढ़ाए जाने की बात कही जा रही है। हमने पिछले पचास-साठ वर्षों में देखा है कि आरक्षण ने दलितों एवं देश का कोई बहुत बड़ा हित नहीं किया है। भले ही इसने कुछ फीसदी दलितों को सरकारी नौकरियां प्रदान की, लेकिन उनमें आत्मविश्वास का संचार नहीं कर पाया। देखा तो यह गया है कि आरक्षण ने दलितों में अपराध-बोध ही पैदा किया कि उन्हें दया की भीख दी गई है। इस दौर में राजनेताओं के साथ-साथ बुद्धिजीवियों एवं प्रबुद्ध लोगों का एक ऐसा वर्ग पनप रहा है, जो सारी सचाई जानते हुए भी आरक्षण के विरोध में बोलना नहीं चाहता। हमें समझना होगा कि आरक्षण के विरोध में बोलना दलित या पिछड़ा विरोधी होना नहीं है।
भारत जैसे देश में जहां विभिन्न जातियां निवास करती हैं, आरक्षण के नाम पर सभी को संतुष्ट कर पाना संभव नहीं है। इसलिए अब हमें सचाई को स्वीकार करते हुए आरक्षण के बदले किसी अन्य विकल्प के बारे में सोचना होगा। आज आरक्षण के कारण देश में जातिगत भावनाएं तीव्रता से बढ़ रही हैं। लगभग सभी जातियों ने अपने अलग-अलग संगठन बना लिए हैं। जो जाति अपने आपको अधिक संगठित सिद्ध कर रही है, उसे आरक्षण दिया जा रहा है। इससे अन्य आरक्षित जातियों में असंतोष पैदा हो रहा है कि आरक्षित वर्ग में जातियों की संख्या बढ़ने से उनके लिए स्थान कम रह जाएंगे। आरक्षण का मुद्दा पिछड़ी जातियों एवं अनुसूचित जातियों में भी वैमनस्य का जहर घोल रहा है। दूसरी ओर, क्रीमीलेयर सिद्धांत में अनेक विसंगतियों के चलते दलितों के आर्थिक रूप से संपन्न एवं कमजोर तबकों के बीच भी लगातार द्वेष बढ़ता जा रहा है ।
हमें गंभीरता से विचार करना होगा कि आरक्षण एक समाधान है या फिर समस्या? असल में कुछ राजनेता नहीं चाहते कि दलित शब्द शब्दकोश से हट जाए, क्योंकि यदि ऐसा हुआ, तो वे कुरसी हथियाने का रोमांचक खेल किसके सहारे खेलेंगे? अगर पिछले पचास-साठ वर्षों में गंभीरता से दलित और पिछड़े समाज के जीवन स्तर में सुधार का प्रयास किया गया होता, तो आज दलित शब्द का अस्तित्व ही समाप्त हो गया होता। दुर्भाग्य से स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत आरक्षण लागू होने के कुछ समय बाद ही इसे राजनीति से जोड़ दिया गया। इस तरह अनेक बार आरक्षण से संबंधित निर्णय राजनीतिक स्वार्थ एवं संकीर्णता से प्रभावित होकर लिए गए। नतीजतन दलितों एवं पिछड़ों का अपेक्षित विकास तो नहीं हुआ, बल्कि समाज में एक तरह के विद्रोह ने जन्म ले लिया।
संविधान निर्माताओं ने शायद कल्पना भी नहीं की होगी कि मात्र दस वर्ष के लिए की गई यह अस्थायी व्यवस्था एक स्थायी समस्या बन जाएगी। यदि आज डॉ. अंबेडकर जीवित होते, तो वे भी राजनीतिज्ञों द्वारा समानता के अधिकार का मखौल उड़ाते देख दुखी होते। बेशक दलितों एवं पिछड़ों ने सदियों से अत्याचार सहा है और आज भी समाज के कई हिस्सों में पिछड़ापन मौजूद है, मगर सामाजिक समरसता कायम करने के लिए जरूरी है कि कुछ ठोस विकल्प खोजे जाएं। दलितों एवं पिछड़ों का उत्थान नकारात्मक चिंतन से नहीं, बल्कि सकारात्मक चिंतन से ही संभव है।

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