Sunday, January 30, 2011

लोकतंत्र की मर्यादा


सच क्या वही है, जो सत्ता की कुरसी कहती है

सच क्या है और सच्चा कौन है, यह जानने का अधिकार केवल उनका है, जो सत्ता की कुरसी पर बैठे हैं! या शायद यह कहना ज्यादा सही होगा कि कुरसी जो कहती है, केवल वही सच होता है। ऐसा नहीं होता, तो सत्ताधारी कांग्रेस ने अपनी 125वीं जयंती के उपलक्ष्य में जो पुस्तक छापी, वह नहीं छपती; या जैसी वह छपी है, उससे शर्मिंदा होकर वह अब तक उसे वापस ले चुकी होती। लेकिन सत्ताधारी ऐसा नहीं करते, क्योंकि उन्हें पता है कि जब तक उनके पास कुरसी है, उन्हें गलत कहने वालों की कोई नहीं सुनेगा।
आज कांग्रेस के पास कोई जवाहर लाल नेहरू भी नहीं है, जो चाणक्य नाम से वह लेख लिखे, जिसमें देश को नेहरू जी के भीतर छिपी तानाशाही प्रवृत्तियों से सावधान किया गया था। वह लेख लिखकर उन्होंने देश को तो सावधान किया ही, खुद को भी सावधान किया। जैसी सत्ता उनके पास थी, जैसी स्वीकृति उनकी थी और कश्मीर से कन्याकुमारी तक उनकी जैसी धाक थी, उसमें संसदीय ढांचा बनाए रखते हुए भी सारी सत्ता खुद में केंद्रित कर लेना उनके लिए कठिन नहीं था। वह अंतिम दिन तक सत्ता छोड़ तो नहीं सके, पर अपनी लोकतांत्रिक मर्यादाओं और उसकी जरूरतों का जितना ध्यान उन्होंने रखा, उसका सपना भी उनके परवर्ती नहीं देख सकते।
यह सारा कुछ इसलिए प्रासंगिक है, क्योंकि कांग्रेस ऐंड मेकिंग ऑफ इंडियन नेशन नाम की इस किताब में लिखा है कि बोफोर्स का पूरा झूठ अवसरवादी गैरकांग्रेसी नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह ने खड़ा किया था। क्या आयकर अपील पंचाट की इस रिपोर्ट के बाद भी कांग्रेस को इस बारे में अपना मुंह खोलना चाहिए कि बोफोर्स दलाली में इतालवी दलाल ओत्तावियो क्वात्रोच्चि को 41 करोड़ की दलाली दी गई है?
आपातकाल के अंतिम 18 महीने जेल में काटते हुए मैं अकसर सोचता था कि अपनी इस भयंकर भूल पर इंदिरा गांधी और कांग्रेस पछताएगी और देश से माफी भी मांगेगी। 1977 की अकल्पनीय पराजय के बाद ऐसा लगा भी, जब इंदिरा गांधी जयप्रकाश नारायण से मिलने उनके पटना के एक कमरे के घर पर पहुंची थीं। तब उन्होंने यही कहने की कोशिश की थी कि जो हुआ, वैसा वह चाहती नहीं थीं।
उस कमरे में हुई बातचीत से कई दिनों पहले ही जनता पार्टी की जीत और मोरारजी देसाई का नए प्रधानमंत्री के रूप में चयन के बाद जब नए शासक दिल्ली के रामलीला मैदान में विजय दिवस मनाने में जुटे थे, तब हर कोई आकर कह गया था कि जेपी को उस समारोह में आना ही चाहिए। जेपी यह कहकर, कि मेरा उस समारोह में क्या काम, अपने निवास से निकल गए थे और बगैर किसी से सलाह-मशविरा किए सीधे इंदिरा गांधी के घर पहुंचे थे। उनसे उन्होंने तब कहा कि तुम्हारी हार खेल में हार-जीत से ज्यादा कुछ नहीं है। तुम हिम्मत और ईमानदारी से काम में लगी रहो, तो रास्ते मिलेंगे ही। देश की आजादी का समारोह दिल्ली को मुबारक कहकर गांधी कोलकाता की आग में बैठे ही रहे थे। दूसरी आजादी का समारोह नए सत्ताधारियों को मुबारक कहकर जयप्रकाश पराजय का दंश निकालने अपनी इंदू के घर गए। कांग्रेसी इसे तब भी नहीं समझ सके थे, आज भी नहीं समझ पाए हैं।
घटनाओं, तारीखों तथा व्यक्तियों के बारे में सिरे से गलतबयानी करती हुई किताब लिखती है कि बिना निशाने के भटकते गोले की तरह जयप्रकाश नारायण ने लोगों को जमा कर इंदिरा गांधी को हटाने की मुहिम छेड़ दी थी। उस आंदोलन को कांग्रेसियों ने असांविधानिक करार दिया है। आज कांग्रेसी कुछ भी कहें, पर इनमें से कइयों ने स्वीकारा है कि देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया फिर से गति और दिशा पकड़ सकी, तो केवल जयप्रकाश के आंदोलन के कारण।
देश की सर्वोच्च अदालत ने भी कुबूल किया है कि संविधान के दायरे से बाहर जा रही सत्ता के खिलाफ शांतिमय, लोकतांत्रिक आंदोलन खड़ा करना असांविधानिक और अलोकतांत्रिक नहीं होता। कांग्रेसियों ने जयप्रकाश नारायण का पटना के गांधी मैदान में दिया हुआ व्याख्यान पढ़ा होता, तो उन्हें बहुत सारी बातों का जवाब मिल गया होता और वे ऐसी सारहीन किताब को अपना इतिहास कहते हुए शरमाते। जब 74 साल के बीमार जेपी को चंडीगढ़ में एकाकी गिरफ्तार कर उनकी काया और मनोबल तोड़ने की कोशिश की गई थी, तब उन्होंने इंदिरा गांधी को एक पत्र लिखा था। वह पत्र कांग्रेस के इतिहास में तो नहीं, लेकिन देश के इतिहास में दर्ज है, ‘लोकतांत्रिक व्यवस्था में यदि कोई निर्वाचित सरकार भ्रष्ट हो गई है और वह कुशासन करने लगी है, तो जनता को यह अधिकार है ही कि वह उस निर्वाचित सरकार से त्यागपत्र की मांग करे और विधायिका ऐसी सरकार का समर्थन करने में लग जाती है, तो उसे भी हटाने की मांग उठाने का जनता को पूरा अधिकार है, ताकि जनता श्रेष्ठतर प्रतिनिधि का चुनाव कर सके।
वैसे भी हमारे लोकतंत्र की जड़ें बहुत फैली नहीं हैं। इसमें नई ताकत भरने, इसके नए आयाम विकसित करने की दिशा में बहुत काम करने की जरूरत है। ये सारे काम कांग्रेसी या दूसरे राजनीतिक दलों के लोग नहीं कर सकेंगे। लेकिन वे यह तो कर सकते हैं कि जिस संसदीय लोकतंत्र की प्रक्रिया से चुनकर विधानसभाओं या लोकसभाओं में आते हैं, उसे समझें और उसका सम्मान करें।
सोनिया गांधी हों या राहुल, नरेंद्र मोदी हों या सुषमा स्वराज, लालू यादव हों कि नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव हों या मायावती-सबको लोकतंत्र की इस लक्ष्मण रेखा की समझ बनानी बढ़ानी होगी। जयप्रकाश नारायण की फिक्र कांग्रेसी करें, इतिहास उनके बारे में अपना फैसला सुना चुका है।



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