लेखक शासन व्यवस्था पर आम जनता के विश्वास में आ रही कमी के कारण बता रहे हैं….
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अमर्त्य सेन ने कोलकाता में एक सम्मेलन में कहा है कि यह जानने के लिए गहन राजनीतिक विश्लेषण अपेक्षित है कि हिंसा के पीछे क्या कारण है? यह प्रश्न एक ऐसे देश के संदर्भ में सर्वथा उपयुक्त ही है जिसने अहिंसा से स्वतंत्रता प्राप्त की है। इसके अलावा इसका यह भी दावा है कि उसने अपनी आंतरिक और वाह्य नीतियों के निर्धारण में भी हिंसा को एक उपकरण के तौर पर अपनाने को खारिज किया है। फिर भी शायद ही कोई शहर होगा जहां हिंसा ने जीवन की लय और विकास को प्रभावित न किया हो। अधिसंख्य गांव और आदिवासी क्षेत्र एक ओर सुरक्षा बलों द्वारा धकियाए जाते हैं और दूसरी ओर माओवादियों और मजहबी नेताओं द्वारा त्रस्त हैं। भारत के इस अवस्था में पहुंचने के अनेक कारण हैं। संस्थानों पर लोगों की आस्था घटी है, फिर वह चाहे संसद हो, कार्यपालिका अथवा न्यायपालिका। सामान्य जन सरकार की नेकनीयती को लेकर शंकालु हैं। सरकार के जो उपकरण हैं उन पर जनसाधारण को भरोसा नहीं रहा है। न ही उसे यह विश्वास रहा है कि विधि प्रणाली से उसे न्याय मिल पाएगा। वर्षो से उसकी यह धारणा बन गई है कि दबाव से ही कोई काम हो पाता है। उसकी इस सोच की अभिव्यक्ति कहीं शांतिपूर्ण आंदोलन द्वारा होती है तो कहीं हिंसक अवहेलना के रूप में। शासकों और सामान्य जन के बीच संबद्धता तेजी से नया मोड़ ले रही है इसलिए सहसा ही विस्फोट से सरकार आश्चर्यचकित हो जाती है। ये दमित भावनाएं ही हैं जो अवसर मिलते ही फट पड़ती हैं। यदि सरकार संवेदनशील हो तो मात्र इतने से ही उन्हें रोका जा सकता है, किंतु समग्र प्रणाली ही भ्रष्टाचार अथवा अन्य उहापोह में इतनी डूबी हुई है कि आम आदमी सामान्य काम भी आसानी से नहीं करा पाता। यदि इसके लिए जिम्मेदार लोगों की जवाबदेही जरूरी हो और भ्रष्टाचार करने वालों को शीघ्रातिशीघ्र कठघरे में खड़ा किया जाए तो उन्हें दी गई सजा दूसरों के लिए एक उदाहरण बन जाएगी और पीडि़तों को भी संतोष की अनुभूति होगी। जिम्मेदारी तय करने की लंबी प्रक्रिया है। यदि कभी वह स्थिति आ ही जाती है तो फिर उनके बचाव के अनेक रास्ते हैं। मात्र कानूनी अथवा प्रक्रिया संबंधी ही नहीं, किंतु सिफारिश भी तो एक है। भारत ने यह सब उन घोटालों की श्रृंखला में देखा ही है जो विगत कुछ माह के दौरान प्रकाश में आए हैं। समाज इस निष्कर्ष पर पहुंच सा गया है कि पैसे के माध्यम से हर बात की व्यवस्था हो सकती है, यदि संभव हो अथवा यदि जरूरी हो तो राजनीतिक दखल से भी काम बन सकता है। और जब शीर्षस्थ जन किसी घोटाले से संबद्ध हो तो भी वह उससे छूट जाता है। यह सामान्य धारणा ऐसा होने के कारण और अधिक गहन होती जा रही है कि ताकतवर को कभी भी छेड़ा नहीं जाता। इससे संवेदनहीनता बढ़ती है। धार्मिक वर्ग अथवा जातीय पूर्वाग्रहों से ग्रस्त जन कानून के शासन की आशा रखना छोड़ते जा रहे हैं, जिसमें सभी के साथ समानता का व्यवहार किया जाता है। वे मानव तथा अन्य अधिकारों के उल्लंघन के इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि वे स्वयं पीडि़त होने की स्थिति में भी शिकायत नहीं करते। वे माओवादी अथवा राष्ट्रद्रोही के रूप में संबोधित किए जाने से भय खाते हैं। विनायक सेन को दिए गए आजीवन कारावास के दंड से समाज को आघात लगा है। सेन एक चिकित्सक हैं, जो आदिवासियों के बीच काम कर रहे थे। उन्हें माओवादी समर्थक बताए जाने और उनसे पूछताछ किए जाने व उनके विरुद्ध दमनात्मक उपाय करते जाने की भी चर्चा है। एक और उदाहरण त्रिपुरा में निर्मला का है। त्रिपुरा पूर्वोत्तर का एक राज्य है। निर्मला विगत दस वर्षो से अनशन पर हैं। उसका यह अनशन इस मांग को लेकर है कि सशस्त्र बल विशेष अधिनियम को हटाया जाए। एक्टिविस्टों की ओर से विरोध प्रदर्शन से सरकार को कोई परेशानी नहीं होती। दरअसल उनका उदाहरण तो यह दर्शाने के लिए दिया जाता है कि प्रणाली कितनी स्वतंत्र है। कानून एवं व्यवस्था बनाए रखने के लिए अनेक कानून हैं। मुद्दा खाद्यान्नों की बढ़ती महंगाई का भी है। बुनियादी आवश्यकता की वस्तुएं दिन प्रतिदिन महंगी होती जा रही है। निर्धन जन कैसे जीवन बिताते हैं? यदि ये लोग हताश हो जाते हैं तो एक संदेश तो देते ही हैं कि उनकी दो जून की रोटी की बारी कब आएगी? एक भी व्यक्ति, एक भी दल, एक भी नौकरशाह उस स्थिति के लिए जवाबदेह नहीं है जिसमें हमने खुद को धकेल दिया है। समग्र राष्ट्र को ही इस परिदृश्य पर ध्यान देना होगा। अभी भी कदम उठाने के लिए समय है। हमें इस लीक से हटना होगा कि सरकार की खामी विपक्ष के लिए एक अवसर होता है। तथ्य तो यह है कि जिस दिन हम स्वतंत्र हुए थे, उसी दिन से हम अधोगामी होने की स्थिति में हैं। उन लाखों लोगों पर दृष्टि कभी भी केंद्रित नहीं की गई जिन्होंने स्वाधीनता संग्राम के दौरान यातनाएं झेलीं और त्याग किया। न ही हमारे समक्ष कोई आदर्श रहा, जिसका अनुगमन किया जाए। लक्ष्य था आजादी, जिसे प्राप्त कर लिया गया था। उसकी प्राप्ति के बाद आगे बढ़ने के लिए कोई रोड मैप नहीं रहा। यह शब्द सराहनीय तो थे कि हमें मात्र राजनीतिक स्वतंत्रता ही मिली और आर्थिक आजादी तो अभी प्राप्त करनी है, किंतु ये तो कोरे शब्द ही थे। नि:संदेह जो नेता संघर्ष में अग्रिम मोर्चे पर रहे थे उनके सत्तासीन होने की आशा भी थी और उनमें से अधिसंख्य ने ऐसा किया भी, किंतु उन लोगों के मामले में क्या हुआ जिन्होंने अपना सब कुछ समाप्त कर लिया। उनका भविष्य क्या था? उन्हें तो उनके अपने भरोसे ही छोड़ दिया गया था। जब अमर्त्य सेन से सवाल किया गया कि क्या हिंसक स्थिति राज्य के आर्थिक विकास को पटरी से उतार सकती है तो उन्होंने कहा हिंसा से घोर अव्यवस्था, असुरक्षा, जनहानि और वीभत्स स्थिति का सृजन होता है। जो कुछ समाज को हुआ है वह यह कि उसने सही और गलत और नैतिक और अनैतिक के बीच की जो करीब सी विभाजक रेखा थी उसे भी मिटा दिया जो सही पथ है उस पर चलना तो दूर उसकी इच्छा तक नहीं रही। प्रणाली की कमियों, खामियों पर चर्चा करने का सर्वाेत्तम स्थान संसद है, किंतु यह मंच कुछ राजनीतिज्ञों के दंभ और अन्य निकृष्ट चालों की क्रीड़ा स्थली बन गया है। संसद को कुछ दिन के लिए रोकना तो विरोध प्रदर्शन है, परंतु अनिश्चित काल के लिए व्यवधान तो संसद पर धब्बा है। लोगों के धैर्य का प्याला भर चुका है। यदि राजनीतिक दलों को वैसा ही व्यवहार करना है जैसा उन्होंने 2010 में किया है तो वे बड़ी कठिनाई में फंसने वाले हैं। (लेखक प्रख्यात स्तंभकार हैं)
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