एनटी रामाराव ने कांग्रेस और इंदिरा गांधी के अभिमान को न केवल प्रंचड चुनौती दी थी, बल्कि एक झटके में आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता उखाड़ फेंकी थी। इस प्रकार दक्षिण में तमिलनाडु के बाद आंध्र प्रदेश में कांग्रेस को अपना रुतबा और जनाधार खोना पड़ा था। अधिनायकवादी इंदिरा गांधी को यह बर्दाश्त होता तो कैसे? अपने विरोधियों पर सभी हथकंडे अपनाकर वह टूट पड़ती थीं। एनटी रामाराव के पास प्रचंड बहुमत था। इसलिए उन्हें सत्ता से बाहर करना मुश्किल था। एक ही रास्ता बचता था और वह था लोकतंत्र और संविधान की मूल आत्मा की कब्र पर एनटी रामाराव की सत्ता को गिराना। यही रास्ता चुना था इंदिरा गांधी ने। तब रामलाल नामक कांग्रेसी नेता इंदिरा गांधी का मोहरा बना था। राज्यपाल के रूप में रामलाल ने लोकतंत्र और संविधान का ऐसा गला घोंटा था, जो आज भी लोकतांत्रिक-संवैधानिक व्यवस्था पर कंलक के तौर पर देखा जाता है। प्रचंड बहुमत होने के बाद भी एनटी रामाराव को बर्खास्त कर दिया गया था। कई दिनों तक चली संविधान विरोधी कार्रवाइयों के बाद भी एनटी रामाराव का प्रचंड बहुमत टूटा-बिखरा नहीं। हारकर राष्ट्रपति को हस्तक्षेप करने पर राज्यपाल रामलाल एनटी रामाराव की सत्ता को फिर से स्थापित कराने के लिए बाध्य हुए थे। रोमेश भंडारी ऐसे एक अन्य राज्यपाल हुए थे, जिन्होंने कांग्रेसी इशारों पर नाचते हुए कांग्रेस विरोधी सरकारों को अस्थिर करने का खेल-खेलकर लोकतांत्रिक-संवैधानिक मूल्यों को सूली पर टांगा था। ये दोनों उदाहरण कर्नाटक में लोकतांत्रिक और संवैधानिक संकट के मद्देनजर महत्वपूर्ण हैं और इन्हीं दोनों उदाहरणों की कसौटी पर कर्नाटक के राज्यपाल हंसराज भारद्वाज की भूमिका देखी जानी चाहिए। हंसराज भारद्वाज ने जो आग लगाई है, उसमें कांग्रेस खुद भी जल सकती है। कल भाजपा और अन्य विपक्षी पार्टियां भी राष्ट्रपति से भ्रष्ट कांग्रेसी मंत्रियों और प्रधानमंत्री पर भी मुकदमा चलाने की अनुमति मांग सकती हैं। ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रपति के सामने संकट गहरा होगा और उनके सामने हंसराज भारद्वाज की संवैधानिक प्रक्रिया होगी। नैतिकता के तौर पर हंसराज भारद्वाज द्वारा खड़ी की गई प्रक्ति्रया का परीक्षण जरूरी हो जाएगा। हंसराज भारद्वाज जैसे राजनीतिज्ञ कोई अपनी काबलियत या फिर जनाधार की बदौलत राजनीति में नहीं चमकते हैं। ऐसे राजनीतिज्ञ केवल चाटुकारिता और समर्पण की बदौलत राजनीति में सीढि़यां नापते हैं। कांग्रेस के हित साधने में कानून और संविधान को दागदार करने में भी वे पीछे नहीं रहे हैं। राज्यपाल के रूप में ही नहीं, बल्कि केंद्रीय मंत्री के तौर पर भी उनकी भूमिका संदिग्ध रही है। जिस दिन हंसराज भारद्वाज को कर्नाटक का राज्यपाल बनाया गया था, उसी दिन तय हो गया था कि येद्दयुरप्पा सरकार को येन-केन-प्रकारेण अस्थिर किया जाएगा। दक्षिण में भाजपा ने पहली बार अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई थी और सत्ता में आने की उपलब्धि हासिल की थी। दक्षिण में कांग्रेस की दमदार उपस्थिति रही है। दक्षिण के प्रंचड बहुमत से ही कांग्रेस की केंद्रीय सत्ता स्थिर रहती है। ऐसी स्थिति कर्नाटक जैसे राज्य में भाजपा की सत्ता उपस्थिति कांग्रेस को पचती तो कैसे? कांग्रेस ने हंसराज भारद्वाज को मोहरा बनाया। केंद्रीय कानून मंत्री के पद से हटाकर हंसराज को कर्नाटक का राज्यपाल बनाया गया। कर्नाटक का राज्यपाल बनते ही उन्होंने भाजपा सरकार को स्थिर करने के लिए संविधान के इतर चालें चलनी शुरू हो गई। राज्यपाल का निवास विपक्ष और खासकर कांग्रेस के दफ्तर के तौर पर तब्दील हो गया। मुख्यमंत्री येद्दयुरप्पा के पास बहुमत तो था, पर निर्दलीय और दागी विधायकों के समर्थन की बदौलत। अस्थिर सत्ता की बहुत सारी कमजोरियां-मजबूरियां होती हैं। जाहिर तौर पर ऐसी कमजोरियों और मजबूरियों से येद्दयुरप्पा भी संकटग्रस्थ होंगे। राज्यपाल की सह पर येद्दयुरप्पा की सरकार को गिराने की अनेक कोशिशें हुई। निर्दलीय और दागी विधायकों ने समर्थन वापस लेकर येद्दयुरप्पा की सरकार को गिराने का उपक्रम किया, लेकिन प्रत्येक कोशिशों को येद्दयुरप्पा नाकाम करते रहे। हंसराज भारद्वाज ने अल्पअवधि में दो बार येद्दयुरप्पा को विधानसभा में बहुमत साबित करने का आदेश थमाया। दोनों बार येद्दयुरप्पा ने अपना बहुमत साबित किया। कांग्रेस उत्साहित हो सकती है कि उसने कर्नाटक में येद्दयुरप्पा की सत्ता को कानूनी घेरेबंदी में कैद कर छोड़ा है। कांग्रेस के इस उत्साह का भविष्य में कैसा रंग होता है, यह अभी देखना होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
Sunday, January 30, 2011
कांग्रेस को उल्टा पड़ेगा दाव
एनटी रामाराव ने कांग्रेस और इंदिरा गांधी के अभिमान को न केवल प्रंचड चुनौती दी थी, बल्कि एक झटके में आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता उखाड़ फेंकी थी। इस प्रकार दक्षिण में तमिलनाडु के बाद आंध्र प्रदेश में कांग्रेस को अपना रुतबा और जनाधार खोना पड़ा था। अधिनायकवादी इंदिरा गांधी को यह बर्दाश्त होता तो कैसे? अपने विरोधियों पर सभी हथकंडे अपनाकर वह टूट पड़ती थीं। एनटी रामाराव के पास प्रचंड बहुमत था। इसलिए उन्हें सत्ता से बाहर करना मुश्किल था। एक ही रास्ता बचता था और वह था लोकतंत्र और संविधान की मूल आत्मा की कब्र पर एनटी रामाराव की सत्ता को गिराना। यही रास्ता चुना था इंदिरा गांधी ने। तब रामलाल नामक कांग्रेसी नेता इंदिरा गांधी का मोहरा बना था। राज्यपाल के रूप में रामलाल ने लोकतंत्र और संविधान का ऐसा गला घोंटा था, जो आज भी लोकतांत्रिक-संवैधानिक व्यवस्था पर कंलक के तौर पर देखा जाता है। प्रचंड बहुमत होने के बाद भी एनटी रामाराव को बर्खास्त कर दिया गया था। कई दिनों तक चली संविधान विरोधी कार्रवाइयों के बाद भी एनटी रामाराव का प्रचंड बहुमत टूटा-बिखरा नहीं। हारकर राष्ट्रपति को हस्तक्षेप करने पर राज्यपाल रामलाल एनटी रामाराव की सत्ता को फिर से स्थापित कराने के लिए बाध्य हुए थे। रोमेश भंडारी ऐसे एक अन्य राज्यपाल हुए थे, जिन्होंने कांग्रेसी इशारों पर नाचते हुए कांग्रेस विरोधी सरकारों को अस्थिर करने का खेल-खेलकर लोकतांत्रिक-संवैधानिक मूल्यों को सूली पर टांगा था। ये दोनों उदाहरण कर्नाटक में लोकतांत्रिक और संवैधानिक संकट के मद्देनजर महत्वपूर्ण हैं और इन्हीं दोनों उदाहरणों की कसौटी पर कर्नाटक के राज्यपाल हंसराज भारद्वाज की भूमिका देखी जानी चाहिए। हंसराज भारद्वाज ने जो आग लगाई है, उसमें कांग्रेस खुद भी जल सकती है। कल भाजपा और अन्य विपक्षी पार्टियां भी राष्ट्रपति से भ्रष्ट कांग्रेसी मंत्रियों और प्रधानमंत्री पर भी मुकदमा चलाने की अनुमति मांग सकती हैं। ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रपति के सामने संकट गहरा होगा और उनके सामने हंसराज भारद्वाज की संवैधानिक प्रक्रिया होगी। नैतिकता के तौर पर हंसराज भारद्वाज द्वारा खड़ी की गई प्रक्ति्रया का परीक्षण जरूरी हो जाएगा। हंसराज भारद्वाज जैसे राजनीतिज्ञ कोई अपनी काबलियत या फिर जनाधार की बदौलत राजनीति में नहीं चमकते हैं। ऐसे राजनीतिज्ञ केवल चाटुकारिता और समर्पण की बदौलत राजनीति में सीढि़यां नापते हैं। कांग्रेस के हित साधने में कानून और संविधान को दागदार करने में भी वे पीछे नहीं रहे हैं। राज्यपाल के रूप में ही नहीं, बल्कि केंद्रीय मंत्री के तौर पर भी उनकी भूमिका संदिग्ध रही है। जिस दिन हंसराज भारद्वाज को कर्नाटक का राज्यपाल बनाया गया था, उसी दिन तय हो गया था कि येद्दयुरप्पा सरकार को येन-केन-प्रकारेण अस्थिर किया जाएगा। दक्षिण में भाजपा ने पहली बार अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई थी और सत्ता में आने की उपलब्धि हासिल की थी। दक्षिण में कांग्रेस की दमदार उपस्थिति रही है। दक्षिण के प्रंचड बहुमत से ही कांग्रेस की केंद्रीय सत्ता स्थिर रहती है। ऐसी स्थिति कर्नाटक जैसे राज्य में भाजपा की सत्ता उपस्थिति कांग्रेस को पचती तो कैसे? कांग्रेस ने हंसराज भारद्वाज को मोहरा बनाया। केंद्रीय कानून मंत्री के पद से हटाकर हंसराज को कर्नाटक का राज्यपाल बनाया गया। कर्नाटक का राज्यपाल बनते ही उन्होंने भाजपा सरकार को स्थिर करने के लिए संविधान के इतर चालें चलनी शुरू हो गई। राज्यपाल का निवास विपक्ष और खासकर कांग्रेस के दफ्तर के तौर पर तब्दील हो गया। मुख्यमंत्री येद्दयुरप्पा के पास बहुमत तो था, पर निर्दलीय और दागी विधायकों के समर्थन की बदौलत। अस्थिर सत्ता की बहुत सारी कमजोरियां-मजबूरियां होती हैं। जाहिर तौर पर ऐसी कमजोरियों और मजबूरियों से येद्दयुरप्पा भी संकटग्रस्थ होंगे। राज्यपाल की सह पर येद्दयुरप्पा की सरकार को गिराने की अनेक कोशिशें हुई। निर्दलीय और दागी विधायकों ने समर्थन वापस लेकर येद्दयुरप्पा की सरकार को गिराने का उपक्रम किया, लेकिन प्रत्येक कोशिशों को येद्दयुरप्पा नाकाम करते रहे। हंसराज भारद्वाज ने अल्पअवधि में दो बार येद्दयुरप्पा को विधानसभा में बहुमत साबित करने का आदेश थमाया। दोनों बार येद्दयुरप्पा ने अपना बहुमत साबित किया। कांग्रेस उत्साहित हो सकती है कि उसने कर्नाटक में येद्दयुरप्पा की सत्ता को कानूनी घेरेबंदी में कैद कर छोड़ा है। कांग्रेस के इस उत्साह का भविष्य में कैसा रंग होता है, यह अभी देखना होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
हंसराज के फैसले के निहितार्थ
कांग्रेस के पूर्व नेता और देश के कानून मंत्री रहे हंसराज भारद्वाज एक बार फिर से विवादों में हैं। कर्नाटक के राज्यपाल के तौर पर उन्होंने सूबे के मुख्यमंत्री वाईएस येद्दयुरप्पा के खिलाफ केस चलाने की इजाजत देकर राज्य की राजनीति में भूचाल ला दिया है। एक जमाने में देश में विकास और गुड गवर्नेस की मिसाल देने वाला यह राज्य आज अपने संवैधानिक प्रमुख और सरकार के मुखिया के बीच के विवादों की मिसाल कायम कर रहा है। राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच जारी इस तनातनी में राज्य का प्रशासन और विकास दोनों ठप हो गए हैं। कार्यपालिका के मुखिया के खिलाफ केस चलाने की इजाजत देने के बाद एक बार फिर से राज्यपाल की भूमिका पर सवाल खड़े होने लगे हैं। सवाल इस इजाजत का नहीं है, बड़ा मुद्दा तो वह है, जो सतह पर दिखाई नहीं देता। जिस तरह से आनन-फानन में कुछ लोगों ने राज्यपाल से मुख्यमंत्री येद्दयुरप्पा के खिलाफ केस चलाने की इजाजत मांगी और हंसराज भारद्वाज ने त्वरित गति से कार्रवाई करते हुए उसकी इजाजत दे दी, उससे राज्यपाल की नीयत और उनकी मंशा दोनों पर सवाल खड़े होते हैं। संविधान के मुताबिक राज्यपाल को मंत्रिमंडल की सलाह पर काम करना होता है, लेकिन इस तरह के मामलों में राज्यपाल को मंत्रिमंडल की सलाह ठुकराकर स्वतंत्र रूप से फैसला लेने का अधिकार प्राप्त है। दो हजार चार में सुप्रीम कोर्ट की एक पांच सदस्यीय खंडपीठ के ऐतिहासिक फैसले में कहा गया था कि भ्रष्टाचार के मामलों में मंत्रिमंडल की सिफारिश को नामंजूर करते हुए राज्यपाल मंत्रियों के गैर कानूनी कामों और भ्रष्ट आचरण के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति दे सकते हैं। मुख्यमंत्री और कैबिनेट मंत्री के खिलाफ केस चलाने या आरोपी बनाने की इजाजत देने के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर कहा है कि यह निर्णय लेते वक्त राज्यपाल को पूरी स्वतंत्रता है और वह मंत्रिमंडल की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं है। जाहिर-सी बात है कि पूर्व कानून मंत्री रहे भारद्वाज को अपने इस अधिकार का बखूबी पता था और उन्होंने इसका इस्तेमाल करते हुए येद्दयुरप्पा के खिलाफ केस चलाने की इजाजत दे दी। उस इजाजत के पहले और बाद के गवर्नर के बयानों पर गौर करें तो उनकी राजनीतिक मंशा साफ तौर पर रेखांकित की जा सकती है। इस देश के संविधान में राज्यपाल से यह अपेक्षा की गई है कि वह दलगत राजनीति से ऊपर उठकर काम करें, लेकिन कर्नाटक के राज्यपाल उससे ऊपर उठ नहीं सके। भारद्वाज के इस फैसले से देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक गलत परंपरा को मजबूती मिलती है। उसके बाद जिस तरह से देश के गृहमंत्री पी चिदंबरम ने भारद्वाज का बचाव किया, उससे भी यह शक गहरा होता है कि केंद्र के इशारे पर हंसराज भारद्वाज ने येद्दयुरप्पा के खिलाफ मुकदमे को हरी झंडी दिखाई। चंद मामूली आरोपों के आधार पर अगर राज्यों के मुख्यमंत्रियों के खिलाफ मुकदमा चलाने को मंजूरी दी जाने लगे तो इससे देश के शासन तंत्र में बड़ा बखेड़ा खड़ा हो सकता है। अब अगर कल को कोई 1.76 लाख करोड़ रुपये के टेलीकॉम घोटाले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के खिलाफ मुकदमा चलाने की कार्रवाई की इजाजत के लिए कुछ लोग राष्ट्रपति के पास पहुंच जाते हैं और इसकी इजाजत मांगते हैं तो क्या राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के प्रोसिक्यूशन को स्वीकृति देंगी। येद्दयुरप्पा के खिलाफ अपने रिश्तेदारों को गैरकानूनी तरीके से जमीन आवंटन के आरोप लगे हैं। उसी तरह प्रधानमंत्री के दामन पर भी टेलीकॉम घोटाले के छींटे तो पड़ ही रहे हैं। कॉमनवेल्थ घोटाले में उस वक्त के केंद्रीय शहरी विकास मंत्री जयपाल रेड्डी से लेकर दिल्ली की मुख्यमंत्री तक पर घोटाले के परोक्ष आरोप लगे। अगर कर्नाटक के राज्यपाल हंसराज भारद्वाज के तरीके से लोकतंत्र चले तो राष्ट्रपति को किसी भी अदने से व्यक्ति की शिकायत पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के खिलाफ केस चलाने की अनुमति दे देनी चाहिए। हंसराज भारद्वाज के इस कदम को सही ठहराने वाले कांग्रेस के नेता छोटे लाभ के लिए बड़े मूल्यों और मानदंडों को भुलाने में लगे हैं। दरअसल, भारद्वाज कांग्रेस की पुरानी परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं। राज्यपाल के पद का दुरुपयोग 1967 से देश में शुरू हुआ। यह वह दौर था, जब देश में एक पार्टी का शासन चल रहा था और विपक्ष बेहद कमजोर था। जब 1967 में गैरकांग्रेसवाद की लहर चली और कई सूबों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं तो केंद्र की कांग्रेसी सरकार ने राज्यपाल का इस्तेमाल चुनी हुई सरकारों को अस्थिर करने के लिए शुरू कर दिया। इमरजेंसी के बाद जब इंदिरा गांधी दोबारा चुनकर आई तो उन्होंने राजनीतिक तौर पर बदला चुकाने के लिए जनता पार्टी के शासन वाले नौ राज्यों की सरकारों को भंग कर दिया और वहां राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया था। आजाद भारत के इतिहास में इंदिरा गांधी ने राज्यपाल नाम की संस्था का सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया और चुनी हुई सरकारों को भंग कर दिया। 1984 में आंध्र प्रदेश में जब एनटी रामाराव ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी, उस वक्त ठाकुर रामलाल ने इंदिरा गांधी के हुक्म पर बहुमत होने के बावजूद रामाराव को सरकार नहीं बनाने दिया और उनकी बजाए कांग्रेस के भास्कर राव को सरकार बनाने का न्यौता दे दिया था, जबकि एनटी रामाराव 48 घंटे के भीतर सदन में बहुमत साबित करने को तैयार थे। बाद में चौतरफा दबाव में रामाराव को सरकार बनाने दिया गया था। उसी तरह से जम्मू-कश्मीर की चुनी हुई सरकार के मुखिया फारुक अब्दुल्ला को जगमोहन ने बर्खास्त कर दिया। जब राज्यपाल की भूमिका को लेकर देशव्यापी बहस शुरू हुई और सरकार की जमकर आलोचना होने लगी तो राज्यपाल की नियुक्ति को लेकर सरकारिया कमीशन का गठन हुआ। 27 अक्टूबर 1987 को सरकारिया आयोग ने राज्यपाल की नियुक्तियों को लेकर कुछ सुझाव दिए थे, जिस पर ज्यादा अमल हो न सका। सरकारिया आयोग दो एक अहम सुझाव दिए थे- पहला कि घोर राजनीतिक व्यक्ति को जो हाल तक सक्ति्रय राजनीति में रहा हो, उसे राज्यपाल नहीं बनाया जाना चाहिए। दूसरा कि केंद्र में जिस पार्टी की सरकार हो, उसके सदस्य को विपक्षी पार्टी के शासन वाले राज्य में राज्यपाल नियुक्त न किया जाए। कर्नाटक के मामले में कांग्रेस ने दोनों सुझावों की अनदेखी की। केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह नहीं पाने वाले कानून मंत्री को खुश करने के लिए कर्नाटक जैसे अहम राज्य का राज्यपाल मनोनीत कर दिया, जहां भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई में सरकार काम कर रही थी। ये वही हंसराज भारद्वाज हैं, जिन पर कानून मंत्री रहते बोफोर्स तौप सौदे के दलाल क्वात्रोच्ची के खिलाफ कार्रवाई में ढिलाई बरतने का संगीन इल्जाम लगा था। भारद्वाज अपने इन कार्यकलापों से भारतीय जनता पार्टी की चुनी हुई सरकार को मुश्किल में डालकर कांग्रेस पार्टी और आलाकमान की नजर में अपना नंबर बढ़ाना चाहते हैं। हाल तक सक्ति्रय राजनीति करने वाले हंसराज भारद्वाज राजभवन के रास्ते एक बार फिर से राजनीति में सक्रिय होना चाहते हैं। इसलिए येद्दयुरप्पा सरकार की राह में रोड़े अटकाने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते हैं, लेकिन कानून और संविधान के जानकार हंसराज भारद्वाज यह भूल जा रहे हैं कि इससे कई गलत परपंराओं की नींव डल रही है, जो अगर नजीर बन गई तो लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं होगा। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
आडवाणी की रथ यात्रा से पनपा आतंकवाद
पिछले कुछ महीनों में कभी हिंदू आतंकवाद तो कभी संघी आतंकवाद का नाम लेकर राजनीतिक हलचल मचाते रहे कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने शुक्रवार को आडवाणी को घेरते हुए कहा कि सांप्रदायिक तनाव उनकी रथ यात्रा के बाद से ही पनपा है। आडवाणी की रथ यात्रा के कारण ही उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात और अन्य क्षेत्रों में आतंकवाद का जन्म हुआ। यदि देखा जाए तो रथ यात्रा ही आतंकवाद का आधार बनी। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान पहले से यह कहता आया है कि भारत सरकार को भारतीय मुस्लिमों पर विश्वास नहीं है, लेकिन आडवाणी की रथ यात्रा के बाद पड़ोसी देश का यह आरोप भी पूरी तरह हकीकत बनकर सामने आया है क्योंकि हजारों मुस्लिम युवकों का उत्पीड़न और शोषण किया गया, उन्हें गैरकानूनी रूप से हिरासत में रखा गया। इसके साथ ही दिग्विजय सिंह ने आरोप लगाया है कि भाजपा शासित राज्य हिंदू आतंकियों को प्रश्रय दे रहे हैं। उन्होंने मांग की कि ऐसे सभी मामलों की जांच एक ही एजेंसी से कराई जाए तथा संघ परिवार को बाहर से आ रहे पैसों की भी जांच हो। यहां एक समारोह में दिग्विजय सिंह ने गुजरात का नाम लेते हुए कहा कि आखिर प्रज्ञा ठाकुर और असीमानंद जैसे लोगों को वहां क्यों शरण मिली। जो बम बनाते हैं, वे गुजरात में जाकर संरक्षण पा लेते हैं। इस तरह के तत्वों को भाजपा सरकारें सरंक्षण दे रही हैं। उन्होंने कहा कि गुजरात की तरह ही मध्य प्रदेश में भी संघी आतंकियों को शरण दी जाती है। कांग्रेस में मुस्लिम हितों के लिए एक बड़ा चेहरा बने दिग्विजय ने कहा कि धर्म से परे हर आतंकी के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। मुस्लिमों को इसका शिकार नहीं बनाना चाहिए। बटला हाउस मुठभेड़ पर फिर से सवाल उठाते हुए उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी से पूछा कि आखिर पकड़ा गया हर आतंकवादी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का क्यूं है। समारोह में मौजूद माकपा नेता सीताराम येचुरी और लोजपा अध्यक्ष रामविलास पासवान ने भी भाजपा पर निशाना साधा। दोनों नेताओं ने आरएसएस की विचारधारा पर सवाल उठाते हुए कहा कि इस पर अंकुश जरूरी है। यही विचारधारा महात्मा गांधी की हत्या का कारण थी।
लोकतंत्र की मर्यादा
सच क्या वही है, जो सत्ता की कुरसी कहती है
सच क्या है और सच्चा कौन है, यह जानने का अधिकार केवल उनका है, जो सत्ता की कुरसी पर बैठे हैं! या शायद यह कहना ज्यादा सही होगा कि कुरसी जो कहती है, केवल वही सच होता है। ऐसा नहीं होता, तो सत्ताधारी कांग्रेस ने अपनी 125वीं जयंती के उपलक्ष्य में जो पुस्तक छापी, वह नहीं छपती; या जैसी वह छपी है, उससे शर्मिंदा होकर वह अब तक उसे वापस ले चुकी होती। लेकिन सत्ताधारी ऐसा नहीं करते, क्योंकि उन्हें पता है कि जब तक उनके पास कुरसी है, उन्हें गलत कहने वालों की कोई नहीं सुनेगा।
आज कांग्रेस के पास कोई जवाहर लाल नेहरू भी नहीं है, जो चाणक्य नाम से वह लेख लिखे, जिसमें देश को नेहरू जी के भीतर छिपी तानाशाही प्रवृत्तियों से सावधान किया गया था। वह लेख लिखकर उन्होंने देश को तो सावधान किया ही, खुद को भी सावधान किया। जैसी सत्ता उनके पास थी, जैसी स्वीकृति उनकी थी और कश्मीर से कन्याकुमारी तक उनकी जैसी धाक थी, उसमें संसदीय ढांचा बनाए रखते हुए भी सारी सत्ता खुद में केंद्रित कर लेना उनके लिए कठिन नहीं था। वह अंतिम दिन तक सत्ता छोड़ तो नहीं सके, पर अपनी लोकतांत्रिक मर्यादाओं और उसकी जरूरतों का जितना ध्यान उन्होंने रखा, उसका सपना भी उनके परवर्ती नहीं देख सकते।
यह सारा कुछ इसलिए प्रासंगिक है, क्योंकि कांग्रेस ऐंड द मेकिंग ऑफ द इंडियन नेशन नाम की इस किताब में लिखा है कि बोफोर्स का पूरा झूठ अवसरवादी गैरकांग्रेसी नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह ने खड़ा किया था। क्या आयकर अपील पंचाट की इस रिपोर्ट के बाद भी कांग्रेस को इस बारे में अपना मुंह खोलना चाहिए कि बोफोर्स दलाली में इतालवी दलाल ओत्तावियो क्वात्रोच्चि को 41 करोड़ की दलाली दी गई है?
आपातकाल के अंतिम 18 महीने जेल में काटते हुए मैं अकसर सोचता था कि अपनी इस भयंकर भूल पर इंदिरा गांधी और कांग्रेस पछताएगी और देश से माफी भी मांगेगी। 1977 की अकल्पनीय पराजय के बाद ऐसा लगा भी, जब इंदिरा गांधी जयप्रकाश नारायण से मिलने उनके पटना के एक कमरे के घर पर पहुंची थीं। तब उन्होंने यही कहने की कोशिश की थी कि जो हुआ, वैसा वह चाहती नहीं थीं।
उस कमरे में हुई बातचीत से कई दिनों पहले ही जनता पार्टी की जीत और मोरारजी देसाई का नए प्रधानमंत्री के रूप में चयन के बाद जब नए शासक दिल्ली के रामलीला मैदान में विजय दिवस मनाने में जुटे थे, तब हर कोई आकर कह गया था कि जेपी को उस समारोह में आना ही चाहिए। जेपी यह कहकर, कि मेरा उस समारोह में क्या काम, अपने निवास से निकल गए थे और बगैर किसी से सलाह-मशविरा किए सीधे इंदिरा गांधी के घर पहुंचे थे। उनसे उन्होंने तब कहा कि तुम्हारी हार खेल में हार-जीत से ज्यादा कुछ नहीं है। तुम हिम्मत और ईमानदारी से काम में लगी रहो, तो रास्ते मिलेंगे ही। देश की आजादी का समारोह दिल्ली को मुबारक कहकर गांधी कोलकाता की आग में बैठे ही रहे थे। दूसरी आजादी का समारोह नए सत्ताधारियों को मुबारक कहकर जयप्रकाश पराजय का दंश निकालने अपनी इंदू के घर गए। कांग्रेसी इसे तब भी नहीं समझ सके थे, आज भी नहीं समझ पाए हैं।
घटनाओं, तारीखों तथा व्यक्तियों के बारे में सिरे से गलतबयानी करती हुई किताब लिखती है कि बिना निशाने के भटकते गोले की तरह जयप्रकाश नारायण ने लोगों को जमा कर इंदिरा गांधी को हटाने की मुहिम छेड़ दी थी। उस आंदोलन को कांग्रेसियों ने असांविधानिक करार दिया है। आज कांग्रेसी कुछ भी कहें, पर इनमें से कइयों ने स्वीकारा है कि देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया फिर से गति और दिशा पकड़ सकी, तो केवल जयप्रकाश के आंदोलन के कारण।
देश की सर्वोच्च अदालत ने भी कुबूल किया है कि संविधान के दायरे से बाहर जा रही सत्ता के खिलाफ शांतिमय, लोकतांत्रिक आंदोलन खड़ा करना असांविधानिक और अलोकतांत्रिक नहीं होता। कांग्रेसियों ने जयप्रकाश नारायण का पटना के गांधी मैदान में दिया हुआ व्याख्यान पढ़ा होता, तो उन्हें बहुत सारी बातों का जवाब मिल गया होता और वे ऐसी सारहीन किताब को अपना इतिहास कहते हुए शरमाते। जब 74 साल के बीमार जेपी को चंडीगढ़ में एकाकी गिरफ्तार कर उनकी काया और मनोबल तोड़ने की कोशिश की गई थी, तब उन्होंने इंदिरा गांधी को एक पत्र लिखा था। वह पत्र कांग्रेस के इतिहास में तो नहीं, लेकिन देश के इतिहास में दर्ज है, ‘लोकतांत्रिक व्यवस्था में यदि कोई निर्वाचित सरकार भ्रष्ट हो गई है और वह कुशासन करने लगी है, तो जनता को यह अधिकार है ही कि वह उस निर्वाचित सरकार से त्यागपत्र की मांग करे और विधायिका ऐसी सरकार का समर्थन करने में लग जाती है, तो उसे भी हटाने की मांग उठाने का जनता को पूरा अधिकार है, ताकि जनता श्रेष्ठतर प्रतिनिधि का चुनाव कर सके।’
वैसे भी हमारे लोकतंत्र की जड़ें बहुत फैली नहीं हैं। इसमें नई ताकत भरने, इसके नए आयाम विकसित करने की दिशा में बहुत काम करने की जरूरत है। ये सारे काम कांग्रेसी या दूसरे राजनीतिक दलों के लोग नहीं कर सकेंगे। लेकिन वे यह तो कर सकते हैं कि जिस संसदीय लोकतंत्र की प्रक्रिया से चुनकर विधानसभाओं या लोकसभाओं में आते हैं, उसे समझें और उसका सम्मान करें।
सोनिया गांधी हों या राहुल, नरेंद्र मोदी हों या सुषमा स्वराज, लालू यादव हों कि नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव हों या मायावती-सबको लोकतंत्र की इस लक्ष्मण रेखा की समझ बनानी व बढ़ानी होगी। जयप्रकाश नारायण की फिक्र कांग्रेसी न करें, इतिहास उनके बारे में अपना फैसला सुना चुका है।
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